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सुप्रभातम्! जय भास्करः! १४

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डॉ सत्यनारायण पाण्डेय 

पापा से बातचीत :: एक अंश
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सुप्रभातः सर्वेषाम्! मंगलकामना सहितम्! जयतु भास्करः!

मनुष्य को धन का स्वामी बनना चाहिए, नौकर नहीं।तात्पर्य यह कि मालिक ही अपनी इच्छानुसार धन का उपयोग कर पाता है, सेवक (नौकर) तो जीवन पर्यंन्त धन के रक्षण में ही लगा रह जाता है। शास्त्र आरम्भ से आगाह करते रहे हैं :---"धन की तीन  गति सुनिश्चित है :: दान--भोग--नाश । जरूरतमंदो को दान दें, आवश्यकतानुसार अपने और अपनें परिजनों के भोजन-वस्त्र-आवास, शिक्षा पर कृपणता छोड़ खर्च करना, ये खर्च सार्थक खर्च हैं, नहीं तो धन की तीसरी गति तो सुनिश्चित है ही--नाश । चोर चुरा लेंगे, अग्निकाण्ड में सब जल जाएगा या मृत्यु के उपरान्त परिजन, अगर कोई वारिस नहीं है तो, सरकार के खजाने में चला जाएगा!

धनस्वामी बनें, धन के नौकर नहीं।

यह श्लोक भी इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है:--

नास्ति कृपणसमो दाता, न भूतो न भविष्यति ।
यः अस्पृशन्नेव सर्वं धनं-परेभ्यः प्रयच्छति ।।


अर्थात!

कृपण के समान दानी (सुनने में विरोधाभासी, पर सत्य) न तो कोई आजतक हुआ है और न भविष्य में कभी होगा! सारे धन को पाई-पाई कर जीवन भर तिजोरी या बैंक में रखता है, कृपणता के कारण अपने ऊपर भी खर्च नहीं करता, एक दिन बिना हाथो से स्पर्श (छुए) किए करोड़ो की सम्पत्ति एकमुस्त दूसरे के लिए छोड़ जाता है। दानी तो छूकर थोड़ा धन ही न्योछावर कर दानी की श्रेणी में गिना जाता है।

यदि कोई व्यक्ति भविष्य के लिए वर्तमान में कष्टमय व्यतीत करता हुआ धन संग्रह कर रहा है, तो भविष्य का सुख अनिश्चय के गर्भ में है वर्तमान का सुख भविष्य की चिन्ता की बलि चढ गया, लाभ क्या हुआ।

यदि धन संचय सन्तान के लिए कोई कर रहा है, तब भी व्यर्थ परिश्रम ही है। अनीति से कमाया धन भी बन्धन या दण्ड का कारण बन सकता है, वैसे कहा भी है:--

"पुत्र कुपुत्र किं धन संचय ?।पुत्र सुपुत्र किं धन संचय ?।।

अर्थात् दोनों ही परिस्थतियों में वर्तमान में जीने की कला सीखें, क्यूंकि संतान यदि सपुत हुआ तो खुद अपनी व्यवस्था बना लेगा और यदि कपुत निकल गया तो वर्षों की मिहनत की कमाई को मिनटो में स्वाहा कर देगा, कुमार्ग पर भी चल पड़ेगा।

इसी लिए तो नीतिज्ञ कह गए हैं:-

"अध्रुवानि शरीरानि, विभवो नैव शाश्वतः।

अध्रुवेण शरीरेण कर्तव्यो धर्मसंचयः।।


अब स्वयं विचार करें--हमसब को धन के प्रति कैसा लगाव रखना चाहिए।
सधन्यवाद प्रेषित्।

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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