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लड़ाई मिथ्याभिमान की :: सत्यनारायण पाण्डेय

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Dr. S. N. Pandey


एक दशक पुरानी पापा की लिखी यह कविता किन घटनाक्रमों से उपजी थी वह स्पष्ट याद है! हमारी सोसाइटी जहाँ हम रहते थे, वहां की कुछ बातों से असहज हो कर लिखी गयी कविता आज पढ़ते हुए पुनः यह बात पुष्ट होती हुई लगती है कि लिख जाने के बाद देश काल परिस्थिति से परे हो जाती है कविता... ऐसा न होता तो आज इसे पढ़ते हुए ये कविता मुझे और भी कई सन्दर्भों में, वर्तमान परिपेक्ष्य में यूँ प्रासंगिक नहीं लगती...


लड़ाई
मिथ्याभिमान की
नासमझी की
अंध स्वार्थ की हो जहाँ... 


हो जहां
समाज में-
किंकर्तव्यविमूढ़ता...


प्रबुद्ध जन हों जहां--
मूक, विचलित, भयभीत...


वहां हो
कोई नीतिज्ञ भी -
तो क्या कर पाएगा?


जहां पड़ी हो कूप मे ही भंग-
वहां यथार्थ या सत्यार्थ को भी-
कौन समझा पाएगा?


दम्भी दम्भ भरता हुआ भी-
दम्भ क्या है,
समझ नहीं पाता है...
नाम भले सम्राट अशोक हो--
पर जग को शोकमग्न बनाता है...


सुनते हैं
नरसंहार के बाद वह
बिलकुल बदल गया था,


शान्ति का संवाहक हो गया था।


पर
आज साहस नहीं
लोग अपनी गलती भी स्वीकारें-
अपनी भूल को सुधारें... 


ये हैं परम शातीर, रचते स्वांग
कि वे तो भोले और निराले हैं--


पर लोग तो समझ ही लेते हैं दोहरे चरित्र को...


जीता वह घूटन में ही है!

 

और
स्पष्टवादी किसी की बिना किये परवाह
सब कुछ यहां रख देता है--
धाराप्रवाह! धाराप्रवाह!


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