$ 0 0 आज भी प्रस्तुत है पापा की ही एक कविता !---------------------------------------------------------------हे अमृत संतान! याद करो अपनी पहचान अंधकार के बीहड़ तिमिर मे जग जब भटक रहा था बर्बर पशु सा नग्नकाय वन वन में अटक रहा था तब ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-दीप जलाये थे संस्कृतियों के नव ईंट पके प्रासाद बनाए थेहम थे निर्मल वेदों के पावन मन्त्रों से गुंजित था यह आकाश विमल ! कहां गई वह चेतना? कहां गया वह ज्ञान? दुश्मन बन रहा क्यूं? एक दूसरे का इंसान ! था कितना चिन्तन उच्च भारत की मान्यता थी सर्वोच्च हैं एक ही देव भाषित सभी प्राणियों में... न केवल मनुष्य मेंअपितु सभी जीवों में--अण्डज, पीण्डज, स्वेदज उद्भिज सूक्ष्म शरीरों में... !! जियो और जीने दो का सिद्धांत -- था सर्वमान्य, थे सभी विश्वस्त निभ्रान्त पर आजलगी है सभ्यता की दौड़ स्वार्थपरता की होड़ कथनी और करनी हुए बेमेल हुआ भौतिक विकास होता गया मानवता का ह्रास धूमिल होता गया ज्ञानप्रकाश अब हाहाकार मचा है सारी संत्रस्त प्रजा है हे देव! दया कर वर दें मानव मानव के मन मे भर दें एकता का भरपूर भाव मानवता के शरीर पर अब न लगे कोई घाव सभी पवित्र-भाव से पूरित मंगलकारी ही होवें-- विज्ञान के भी कृतित्व अब न कोई विध्वंसकता रचे सभी "विश्वबंधुत्व"की भावना मे ही रचें बसें, न कोई मिटे, न हम मिटें !!