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सुप्रभातं! जय भास्कर:! १०

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डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 




पापा से बातचीत :: एक अंश
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सुप्रभातम् सर्वेषाम्! मंगलकामनासहितम्!
मनुष्य को चाहिए किसी भी विकट परिस्थिति में जब वह अकेले हो उपस्थित परिस्थिति का एक संबद्ध किरदार न बन द्रष्टा बन जाय, विश्लेषक बन जाय, यह घटना दूसरे के साथ हुई है और वह सलाहकार की भूमिका में निरपेक्ष रूप से अपने को महसूस कर ले तो, स्वतः बिना किसी के सहयोग के वह स्वस्थ चित्त हो जायेगा, अन्यथा चित्त की अशांति उसे कहीं का नहीं रहने देगी ।
श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय के पैंसठवें, छयासठवें श्लोक पर गौर करें तो पायेंगे कि इसतरह की परिस्थिति में स्वस्थ चित्त (मन का) होना कितना जरूरी है :-
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते ।प्रसन्नचेयसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
अर्थात् अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और प्रसन्न चित्त होने के कारण (सम्यक बुद्धि के कारण) सभी चिन्ताओं से मुक्त हो परमात्म बुद्धि वाला हो जाता है या यों कहें परमात्मतत्व में ही उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है !
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।
अर्थात् जिसकी बुद्धि अनिश्चयात्मक होती है, उसके अन्दर बुद्धि धूमिल पड़ जाती है, अन्तःकरण में भावना का भी अभाव हो जाता है, फिर भाव हीन मनुष्य को शांति भी नही मिलती , फिर शान्तिरहित मनुष्य सुख का अनुभव भी कैसे कर सकता है? इस स्थिति को पाने के लिए थोड़ी सजगता, थोड़ा स्वस्थचिन्तन (चिन्ता नहीं) चाहिए  क्योंकि शर्त ही यही है "प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते ।"



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सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत संगतिम् । सद्भिः विवादं मैत्रीं च नासद्भिः किंचिदाचरेत् ।।
अर्थात् सज्जन के साथ भोजन, शयन, सज्जनों की संगति ही श्रेयस्कर है, यहां तक कि विवाद भी सज्जन के साथ हो जाता है, तो अपका अहित नहीं होगा मित्रता तो मित्रता है, असज्जन के साथ (काटे चाटे श्वान के दुई भांति विपरीत ) किसी तरह का व्यवहार उचित नहीं।
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"जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु में"
हे स्वामी! जगत् के नाथ! मेरे नयनपथ में आयें, अर्थात् हमें अपना दर्शन देने की कृपा करें।
आज का चिन्तन :--
सज्जनों के प्रति "लंका में प्रवेश के उपरांत श्री हनुमानजी नें विभीषण को राम नामोच्चारण करते सुना और सुनिश्चय किया :--
"इनसन हठकरि करिहौं पहिचानी।साधु ते होहिं कारज हानि।।"इन से मै हठपूर्वक अपनी जान पहचान करूंगा, क्योंकि सज्जन पुरुषों से नुकसान का भय नहीं होता! ठीक इसके विपरीत दुर्जन की संगति से दूर रहने की सलाह बराबर दी जाती रही है, क्यों? इस श्लोक को देखें :--दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्। उष्णोदहतिचांगारह शीतः कृष्णायते करम्।।
अर्थात् दुर्जन क्रोध मे है, तो उष्ण अंगारे की तरह जलन पैदा करेगा, और यदि ठंढा (शीतल ) दुर्जन शीतल =शांत भी है तो ठंडे काले कोयले की तरह छूने पर हाथ को काला ही करेगा । दूसरा और भी ध्तक्षककस्य ::
विषं दंते मक्शिकायाः विषं शिरे वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्नृणां विषम् ।।
अर्थात् सर्प के मुख में विष रहता है, मक्खी के शिर में विष रहता है और बिच्छू के पुच्छ में विष होता है, पर दुर्जन के तो सारे शरीर में विष भरा होता है, इसलिए दुष्टव्यक्ति से सदा दूर रहना चाहिए ।
सधन्यवाद प्रेषित! मंगलकामनासहितम्! जयतु भास्करः!

--सत्यनारयण पांडेय


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