बहुत पुरानी कभी की लिखी एक कविता है मेरी... जो मुझे कई बार बहुत ही सही लगती है... कि बार बार वह मेरे दुखी हृदय के समक्ष खड़ी हो आती है... सांत्वना देती हुई कि मत हो दुखी... ये दुनिया ऐसी ही है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
चौपायों में तो सिर्फ पशुता है,
दोपाये आसुरी हैं...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
बेचैन हृदय...
श्रीहीन सी अन्तःपुरी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
मृत्यु की सी कातरता
इंसानियत के सामने मुँह बाये खड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
लुटता हुआ इंसान और लूटने वाला भी इंसान-
ये कैसी विडम्बना सम्मुख आन पड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
मानवता की शवयात्रा में
मूक दर्शक बन क्यूँ ये भीड़ खड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया बहुत बुरी है...
*
हे ईश्वर!
इतना विवेकशील बनाया इंसानों को,
फिर क्यूँ न हमारा हमराह
स्वयं हरि है?
घटनाक्रम क्यूँ लिखवा रहा है चेतना से
कि...
तेरी दुनिया बहुत बुरी है?
आदि मध्य न अंत...
ये कैसी धुरी है !!
*** *** *** *** ***
इसे कई बार फेसबुक पर भी शेयर किया है... प्रतिक्रियाएं अलग अलग तरह की आती ही हैं... आती रहीं... दुनिया का यह रूप आसानी से स्वीकार्य तो नहीं... करना भी नहीं चाहिए... और शायद यह कविता लिखी भी नहीं जानी चाहिए थी... पर क्या करें अब लिख गयी तो...
खैर, इस बार एक सुखद बात घटित हुई... इश्वरीय कृपा ही कहेंगे की सोमदत्त द्विवेदी सर ने मेरी इस कविता का परिष्कार कर दिया...
इस परिष्कृत रूप को देख कर मन आत्मा सब चमत्कृत हो गयी... आज यह चमत्कार यहाँ भी सहेज लें!!
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी-पूरी है...
चौपायों में भी रची प्रियता है,
दोपाये आभारी हैं...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी पूरी है...
चैन हृदय...
श्रीसिक्त सी अन्तःपुरी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी पूरी है...
मृत्यु की सी शाश्वता
क्षण भंगुर जीवन के सामने मुँह बाये खड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी पूरी है...
बसता हुआ इंसान और बसाने वाला भी इंसान-
ये कैसी भाव रसता सम्मुख आन पड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी पूरी है...
मानवता की जीवनयात्रा में
हर्षोल्लासित जन यूँ ये भीड़ बड़ी है...
हे ईश्वर!
तेरी दुनिया भरी पूरी है...
*