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सुप्रभातम्! जय भास्करः।

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पापा से बातचीत :: कुछ अंश 

डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 









कुछ भी करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के लिए सर्व प्रथम आत्मविश्वास जरूरी हैचाहे वह कार्य स्वयं के लिए होसमाज के लिए होराज्य के लिए हो, देश के लिए हो अथवा सम्पूर्ण विश्व के लिए हो. सर्वप्रथम लक्ष्य का निर्धारण, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम एवं स्वस्थ्य मन मस्तिष्क के साथ सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत होती है। सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास ऐसा हो कि "स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है"की तरह "सफलता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है". मैं अपनी मेहनत और लगन से निश्चित समय सीमा मे लक्ष्य पाकर ही दम लूँगा ।-----यदि ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति नही है, सेवा के बदले स्वार्थ लेकर कुछ करने की मनसा हो, तो वैसे व्यक्ति को मेरी सलाह है वह समाजिक जिम्मेदारी लेने से दूर रहे। ढोंग तो टिकने वाला नहीं। जय भास्कर! 



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"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।वह महामाया भगवती भवानी, ज्ञानियों के चित्त को भी बल पूर्वक खींच (ज्ञान से मोह की ओर) कर मोह से जोड़ देती है, इसका अभिप्राय यह है कि, ज्ञानी भी सजग न रहें तो, मोह, माया उन्हें भी अपने प्रभाव में ले लेती है, फिर लापरवाह की बात ही क्या?
सधन्यवाद प्रेषित! मंगलकामनासहितम्! जय मां आदिशक्ति!




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"संकल्प"कितना महत्वपूर्ण है, समझ के अभाव में चाहे वह विद्यार्थी हो, धनार्थी हो, स्वस्थ का याचक हो, किसी भी सामाजिक, पारिवारिक, या कार्यसम्पादनार्थ जो भी कार्य इच्छित हो, उसकी निर्बाध सफलता के लिए अपने इष्टदेव या परमादर्श का हृदय से स्मरण कर सूचिता के साथ संकल्प समूह के समक्ष लेना चाहिए. इसका असर होता है, हम संकल्प के प्रति सजग रहते हैंफिर सफलता भी कलकदम चुनने को मजबूर हो जाती है। यही कारण है कि हमारे सारे आध्यात्मिक कार्य ध्यान और संकल्प से ही आदिकाल से आरम्भ होते रहे हैं। पर अफसोस जैसे आज के राजनेता, मंत्री, समाज सेवी "सपथग्रहण "को सिर्फ एक कट्सी  (परम्परा) मात्र मान कर चल रहे हैं, विडम्बना यह कि हम भी किसी छोटे बड़े कार्य के सम्पादन में परम्परागत संस्कृति को संकल्प आदि को कट्सी  (परम्परा निर्वहन) मात्र मान बैठे हैंसारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। हम अब भी जागें। अब भी जागें।मंगलकामनासहितम्! सुप्रभातम्! जय भास्करः।


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"सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता"सुख की स्थिति हो की दुःख की ईश्वर बुद्धि वाले  (महान) व्यक्ति एकरूप ही बने रहते हैं. "सब पूर्व निर्धारित है, कब क्या होना है? जानकारी के अभाव में हम मनुष्य सुख या दुःख से प्रभावित होते रहते हैंयह भी उसी परमात्मा की देन है, यथावसर अनुभूतिगम्य बनाने की। ईश्वर हमें यथावसर समभाव में रहने की शक्ति दें।जय राधे! राधे! राधे! राधे!

बस समय की प्रतीक्षा धैर्य पूर्वक करनी चाहिए, मन की बात जहां कही जा सकती है, वहीं कहनी चाहिए, सब से एक जैसी उम्मीद ही दुःख का कारण होता है। सदा खुश रहो, बहुत अपने जो हैं, उनको खुश रखो, दुनिया से कुछ लेना देना है ही नहीं तो फिर दुःख काहेका?



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सुप्रभातः सर्वेषाम्! मंगलकामनासहितम्! जयतु भास्करः! "गृह(धर)को परिभाषित करते हुए "गृहिणी गृह्यमुच्यते "कहा है, हिन्दी की लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है :----"बिन घरनी घर भूत का डेरा"स्पष्ट है चहारदीवारी से घिरे कमरों से घर घर नहीं बन जाता, परिस्थिति भले बदली हो पर वर्तमान समय मे भी उपर्युक्त वाक्यों को झुठलाया नहीं  जा सकता है। पुनः स्पष्ट किया गया है   :- 



माता यस्य गृहे नास्ति, भार्याश्च प्रियवादिनीम्। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथा गृहं तथा वनम् ।।


अर्थात्  जिसके घर में मां नहीं हो, प्रियवचन(मधुर वचन) बोलने वाली पत्नी न हो, उसे जंगल मे ही चले जाना चाहिए, क्योंकि दोनों के अभाव में घर और वन में फर्क ही क्या है? "यथा गृहं तथा वनम् ।। मां लाड़ प्यार के साथ संस्कार भी देती है, पत्नी अपनी अच्छी भूमिका में "तारिणी संसारसागरस्य "संसार रूपी सागर से सहज तरने में पति की सहयोगिनी होती है। स्पष्ट है भूतकाल में अभी वर्तमान में या भविष्य में पति पत्नी की रथ के दो पहिये की भूमिका निभाने की बात सफल जीवन के लिए त्रिकाल में सत्य है। इसे झुठलाना आसान नहीं।


इति शुभम !


क्रमशः ... 


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