$ 0 0 सब अच्छा ही तो था...सब अच्छा ही तो है...फ़िर कहाँ हुई चूककैसे छिटक गया फूल और ओस रिश्ता इतनी दूरियां कैसे आ गयींकि सामीप्य के पैमाने ठगे से रह गए पता ही नहीं चला कब उग आयीं दरारें...ऐसे में क्या फ़र्क पड़ता है, जीतें या हारें...इतना जटिल है जीवनइतनी जटिल है मन की दुनियाकैसे सुलझेइतने उलझे हुए हैं जो सिरेकुछ भी तो नहीं हाथों में मेरे!फ़िर लगता है,वेदना का मौसम है...मौसम ही है तो बदल जाएगा...ओह! ये तो रात है अभीसुबह होगी, तो- फूलों पर ओस की बूंदों का अस्तित्व नज़र आएगा... !