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हमने यूँ जीने की तरकीब निकाली...

एक आधी पंक्ति में
अपना टूटना बिखरना क्या ही बताते...
सो कोरे पन्नों वाली
एक पूरी ही क़िताब लिख डाली.


'चुप'में रच डाला सारा प्रेम
आंसुओं की लिपि में लिखे कुछ ज़रूरी ख़त
धैर्य के महीन धागों से बुना इंतज़ार
मौत के मुहाने हमने यूँ जीने की तरकीब निकाली.


शब्द नहीं होते कई बार
छोटे छोटे संवाद भी नामुमकिन से हो जाते हैं


ऐसे में चुप रह जाते हैं हम
गुम कहीं अँधेरे में जैसे हो ही नहीं इस जहां में कहीं


इस शून्य हताश से बेगानेपन में
बस एक ही तसल्ली है-


कि हमारे न होने से भी कुछ नहीं रुकता.


जिन्हें हमारा 'गुम'होना याद है
उनके लिए भी हमारा 'न मिलना'बस एक मामूली सी ही बात है


एक 'पिन'के खो जाने जितना मामूली
या शायद उससे भी कम.


हर क्षण
आने और चले जाने की
पीड़ा जीने को अभिशप्त इस दुनिया में

ये कितना बड़ा इत्मीनान है, कि-


दुखों का पहाड़
बीतते बीतते बन जाता है
कल कल बहती धार


वो धार
जो सींचती है
यादों की ज़मीं...


पहाड़ की
कठोर अचलता में ही कहीं
मुस्कुराती है नमी...


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