हताशा ने हर ओर ताका...
तुम्हें ढूंढते हुए हर एक दिशा में झाँका...
मिली केवल निराशा...
उस अँधेरे में हमने शब्द उकेरे...
सुबकियों के बीच धुंधली सी एक कविता रची...
आँखों में अथाह सूनापन लिए
हमने क्षितिज की ओर देखा...
वहां भी वही प्रतिविम्बित हुई
जो थी आँखों में एक हताश रेखा...
पर क्षितिज तो क्षितिज है न--
आसमान और धरा के मिलन की भावभूमि...
होता हो तो हो ये एक भ्रम ही सही...
उसी भ्रम को पोषित करने वाले क्षितिज ने
प्रतिविम्बित हताश रेखा को जीवन रेखा में परिवर्तित कर दिया...
भ्रम कई बार ज़रूरी होते हैं
जीने के लिए...
प्रेम के धागे नहीं मिलते कई बार
तार तार मन को
सीने के लिए...
इसलिए
बनें रहें भ्रम...
जब तक टूटे न साँसों का क्रम... !!