$ 0 0 ये अंतहीन सफ़र...दृश्य बदलते हर घड़ी, हर पहर...देखा हर रंग का हरा...प्राकृतिक हर रंग था खरा...आसमान पूछ रहा था बड़े स्नेह से..."कहो, कैसी हो धरा... ?!!"क्या कहती ??वो भावविभोर थी... !आसमान ने हाल पूछा है,बस इतने से ही धन्य हुई धरा...दर्द भी मुस्कुरायाये देख आसमान का भी मन भर आया... !!फिर देखा हमनेबादलों कोउमड़ते-घुमड़ते...आपस मेंकितनी ही आकृतियों कोटूटते-जुड़ते...उनटूटते-जुड़ते विम्बों मेंखोये हुएहमने अपना एक क्षितिज तराशा...बारिश में भींगतेतरुवरों के सान्निध्य मेंअपनी अंजुरी में भर लिया हमनेआसमान से टपकती बूंदों का दिलासा... !!