धागे नहीं थे शेष...
सिये जाने को कितना कुछ शेष था...
आँखों में गंगा यमुना थी
दूर सपनों का देश था...
जाने क्यूँ ऐसा ही अक्सर होता है...
धागे छूट जाते हैं...
चलते चलते पता ही नहीं चलता
कब सपने रूठ जाते हैं...
गतिमान तो हैं पर बढ़ते हम कहाँ हैं
ये बस चलते रहने का भ्रम है...
हम वहीँ तो ठहरे हुए हैं
हर दिवस सांझ के बाद वही तो व्यतिक्रम है...
ज़रा सा टूटा है
कहीं से धागों का कोई सिरा छूटा है...
धागे मिले तो देखा
सूई का एक हिस्सा टूटा है...
सो--
सीने से रह गए...
गुज़र गयी तो जाना
हम जीवन जीने से रह गए... !!