पतझड़ भी
अपनी सुषमा में...
वसंत सा प्रचुर...
उड़ते हुए सूखे पत्ते...
जैसे चिट्ठियां हों...
अपने गंतव्य तक पहुंचने को आतुर...
रंग बिरंगे स्वरुप में...
संजोये हुए कितने ही सन्देश...
आकंठ समोये कहे-अनकहे कितने ही भाव...
यात्रारत...
क्षत विक्षत... !
कहाँ पहुंचेंगे... ?
क्या कोई पढ़ेगा भी लकीरें... ?
क्या होगी परिणति... ?
इन सब बातों को कर परे...
पत्ते आकाश नापने चले... !!
देखना!
दिखें तो उन्हें पढ़ लेना...
उन रंगों ने
अदृश्य लिपि में
भावों को श्रृंखलाबद्ध किया है...
अपने अनुरूप अर्थ कोई
हो सके तो
तुम भी गढ़ लेना... !!