खिल आते हो...
नेह बढ़ाते हो...
फिर सब वीरान कर चले जाते हो...
कहो कैसा ये व्यवहार... ?
फूल बोल उठे :
यही जगत आधार !
बहती हो...
जाने क्या कहती हो...
लौ को कितनी बार बुझाती हो...
कहो ये तुम्हारे कैसे सरोकार... ?
हवा कह उठी :
मैं अपने प्राकृत स्वभाव से लाचार !
अटल खड़े हो...
कब से अड़े हो...
धरा के आँचल में कब से जड़े हो...
रास्ता देते नहीं, तेरे ये कैसे संस्कार... ?
पर्वत बोल उठे :
अचलता मेरा श्रृंगार !
बहती जाती हो...
कौन से गीत गाती हो...
क्या लिए मन में सागर में समाती हो...
खो जाता है तुम्हारा संसार... ?
नदिया बोल उठी...
मेरी यात्रा का यही पारावार !
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हम सुनते रहे...
गुनते रहे...
कुछ यूँ ही बुनते रहे :
ये कितने प्रतिबद्ध हैं न
स्पष्ट, पारदर्शी, साकार...
इंसान ही है जो है इतना
दिगभ्रमित, छली, लाचार... ? !!