$ 0 0 आस की जलती लौ...और आंसुओं के सहारे...कितने मोड़ यूँ ही कर लिए गए पार...हर बारअदृश्य शक्तियों द्वाराथाम ली गयी पतवार... !हर बार लिखते हुए आंसू...नम हुई जब नोक कलम की...तो उस नमी से भीरंगों की ही सम्भावना जन्मी ठीक वैसे हीजैसे बूंदों के बीच से...इन्द्रधनुष नज़र आता है...श्वेत वर्णसात रंगों में...विभक्त हो जाता है...मिल गए फिर सबअब रंग श्वेत है...ऐसे कैसे रीत जाएगी भले ज़िन्दगी हाथों से फिसलती हुई रेत है... !!