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Channel: अनुशील
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मुट्ठी भर धरती और ज़रा सा आकाश... !!

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डे लाइट सेविंग टाइम ने घड़ी को एक घंटे पीछे कर दिया... अब यहाँ और भारत के समय में साढ़े चार घंटे का अंतर हो गया... और ऐसा ही रहना है मार्च तक... जब फिर घड़ी की सूईयाँ एक घंटे आगे हो जायेंगी और अंतर घट कर पुनः साढ़े तीन घंटे हो जायेगा... ! ये घंटे भर की उलट फेर भी क्या खूब बात है... कुछ घटा बढ़ा नहीं समग्रता में... बस माप की दृष्टि में भेद है... !! हमारे लिए समय भारत के रिलेटिव ही चलता है... रात दिन भी वहीँ के हिसाब से होते हैं अब भी चेतना में... घड़ी भी वहीँ के हिसाब से चलती है मन के भीतर... हम घर से दूर भी अपना घर मन में बसाये चलते हैं... शायद तभी ज़िन्दगी चलती है... चल पाती है... !!
आसमान का टुकड़ा यहाँ भले अलग हो पर वो सूरज चाँद तारे सब वही हैं जो वहां के आकाश में उगते हैं... ये कॉमन फैक्टर धरा के हर अंश को बांधे हुए है... बांधे रखेगा... हमेशा हमेशा... भले ही हम कितने ही हिस्सों में बंट  जाएँ... या बाँट ले धरा को... आसमान नहीं बँटता कभी... वो हमारी परिधि से बाहर होकर भी सदैव हमारे साथ है... और कुछ एक विम्बों से यूँ जुड़ा है कि हम कहीं भी चले जायें... कुछ और हो न हो अपने हिस्से का ज़रा सा आकाश हमेशा हमारे साथ होता है और अपने पल पल बदलते स्वरूपों के साथ... मुट्ठी भर धरती को अपना बनाने के हमारे संघर्ष का मौन साक्षी होता है... !! 
समय कितना कुछ तोड़ता है... कितना कुछ जोड़ता है... कितनी राहों से हम मुड़ते हैं... कहाँ इतना अवकाश कि इंसान सोचे समझे कुछ भी... देखते देखते दृश्य बदल जाता है...  ये अच्छा है कि स्मृतियों में रह जाती हैं टिक कर कितनी ही घड़ियाँ... जिन्हें हम जब तब जी लेते हैं... !! इस आकाश से परे भी है न एक आकाश... मन के भीतर... जहाँ हमारी इच्छा शक्ति से होता है सूर्योदय... अँधेरे समय में यहीं मन के धरातल से दिखने वाला सूर्य प्रकाशित करता है जीवन... किसी भी तरह ले ही आता है सुबह... सुबह के साथ संघर्ष भी... और संघर्ष हेतु आवश्यक संचित ऊर्जा भी कहीं दूर खिली मुस्कानों से...


घूमती हुई घड़ी की सुईयों में
समय के चलायमान होने का आभास था...


हमारी चेतना में लेकिन
एक ठहरा हुआ पल पास था...


और उसी एक पल के इर्द गिर्द
बुनी एक समूची दुनिया...


कभी कभी सिमट आता है समय एक ईकाई में...
हिसाब करती है ज़िन्दगी पाई-पाई में... !!


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