ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी !
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते!!
जयंती से ढंका कलश आज अपनी जगह से हट जाता था माँ की विदाई पर और जयंती आशीर्वाद स्वरुप रह जाती थी... याद आता है, क़िताबों में रखते थे आशीर्वाद को... ! बचपन के साथ ये सब अब बीत गयी यादें ही बन कर रह गए... कलश आज भी रखा जाता है... आज भी वैसे ही होती है पूजा पर हम नहीं हैं वहां अब... और यहाँ भी नहीं हैं शायद कि मन के आकाश का "काश"हमेशा वाचाल होता है... और दोहराता रहता है वही सब बातें जिनका मूर्त रूप लेना इस पल तो संभव नहीं लगता... ! पर एक शाश्वत जिद है इस "काश"में... आकाश को उदास नहीं होने देता और धरा मुस्कुरा उठती है... !!
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बारिश हुई है... भींगा हुआ है धरा का आँचल... आसमान अब भी बादलों से अच्छादित है और उदास सा प्रतीत होता है... आज सूरज उगते हुए नहीं दीखेंगे... उदित तो वैसे ही हुए होंगे वो... पर बादलों की उपस्थिति उन्हें प्रकट नहीं होने देगी, ये स्पष्ट है... पर जानती है हमारी चेतना कि सूर्योदय हो चुका है... सूर्योदय कभी नहीं टलता... तो आश्वस्त भी हैं हम कि बादल छटेंगे और किरणें दिखेंगी!
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ज़िन्दगी, तेरे आँचल में जो भी है, सब है स्वीकार्य...
तुम्हारी सारी सीमाएं, सभी अनुकम्पायें, शिरोधार्य... !!