वेनिस और रोम घूमने गए हुए थे, बहुत अच्छी रही यात्रा... लेकिन इसके बारे में फिर कभी. अभी स्टॉकहोम की ही एक शाम सहेजते हैं यहाँ... इससे पहले कि इन्द्रधनुष की ही तरह स्मृति में भी वह छवि धुंधला जाए, उसे सहेज लेना चाहिए!
यूँ ही उस शाम खिल आये स्पष्ट इन्द्रधनुष ने चमत्कृत कर दिया... हर रंग अपने अस्तित्व को परिभाषित कर रहा था... आसमान मानों समुद्र हो और उसपर हो निर्मित रंगबिरंगा पुल...; कुछ तस्वीरें लीं लेकिन शायद ही उस पल का सौन्दर्य कैद हो पाया हो कैमरे के क्लिक में.
प्रस्तुत है कुछ भाव, कुछ पंक्तियाँ जिसे कविता सा कुछ बना गयी, वह शाम-
दोहरा इन्द्रधनुष:
जैसे-
दो सतरंगी पुल गगन में,
चन्द पलों के लिए दृश्यमान
फिर जैसे लुप्त होते ही
बस गया हो मन में!
खिली धूप में देखा उसे
काले बादल पर
अवतरित होते हुए,
जैसे दिख गयी हो
कोई प्रार्थना
फलित होते हुए...
क्षणिक सौन्दर्य का
कीर्तिमान गढ़
हो गया वह अंतर्ध्यान,
न केवल देखने में था वैसा
बल्कि वह कर भी गया
पुल का काम...
समय की नदी को पार करवाया उसने
जहां बहुत पीछे कहीं
झिलमिला रही थी एक शाम,
वह शाम इस मायने में विशिष्ट थी
कि वह भी थी
इन्द्रधनुष के नाम...
दूरी का भाव हो जाता है दूर
जब महसूसते हैं, कि
एक गगन के नीचे हैं हम,
कोई भी टुकड़ा हो धरती का
एक सी ही बारिश से
उसे सींचे है गगन...
एक ही सूरज है,
है वो एक ही चाँद,
जो चमकता है
धरती के हर कोने पर;
बनतीं है हर बार
इन्द्रधनुष की सम्भावना,
किसी भी कोने में
आँखों के नम होने पर...
और फिर,
बनते हैं पुल...
जिससे हो कर संवेदना
लम्बा सफ़र
तय कर पाती है!
इन्द्रधनुष लुप्त हो भी जाए
तो क्या?
उसकी क्षणिक झलक ने ही जता दिया-
उन उच्चाईयों तक भी
राह जाती है!
यूँ ही उस शाम खिल आये स्पष्ट इन्द्रधनुष ने चमत्कृत कर दिया... हर रंग अपने अस्तित्व को परिभाषित कर रहा था... आसमान मानों समुद्र हो और उसपर हो निर्मित रंगबिरंगा पुल...; कुछ तस्वीरें लीं लेकिन शायद ही उस पल का सौन्दर्य कैद हो पाया हो कैमरे के क्लिक में.
प्रस्तुत है कुछ भाव, कुछ पंक्तियाँ जिसे कविता सा कुछ बना गयी, वह शाम-
दोहरा इन्द्रधनुष:
जैसे-
दो सतरंगी पुल गगन में,
चन्द पलों के लिए दृश्यमान
फिर जैसे लुप्त होते ही
बस गया हो मन में!
खिली धूप में देखा उसे
काले बादल पर
अवतरित होते हुए,
जैसे दिख गयी हो
कोई प्रार्थना
फलित होते हुए...
क्षणिक सौन्दर्य का
कीर्तिमान गढ़
हो गया वह अंतर्ध्यान,
न केवल देखने में था वैसा
बल्कि वह कर भी गया
पुल का काम...
समय की नदी को पार करवाया उसने
जहां बहुत पीछे कहीं
झिलमिला रही थी एक शाम,
वह शाम इस मायने में विशिष्ट थी
कि वह भी थी
इन्द्रधनुष के नाम...
दूरी का भाव हो जाता है दूर
जब महसूसते हैं, कि
एक गगन के नीचे हैं हम,
कोई भी टुकड़ा हो धरती का
एक सी ही बारिश से
उसे सींचे है गगन...
एक ही सूरज है,
है वो एक ही चाँद,
जो चमकता है
धरती के हर कोने पर;
बनतीं है हर बार
इन्द्रधनुष की सम्भावना,
किसी भी कोने में
आँखों के नम होने पर...
और फिर,
बनते हैं पुल...
जिससे हो कर संवेदना
लम्बा सफ़र
तय कर पाती है!
इन्द्रधनुष लुप्त हो भी जाए
तो क्या?
उसकी क्षणिक झलक ने ही जता दिया-
उन उच्चाईयों तक भी
राह जाती है!