$ 0 0 चार पल थे...उनमें ही जीना था...हम वो नहीं रहे जो कल थे...कटु अनुभवों की घुट्टी को ज़रूरी जो पीना था...अनुभूतियाँमन के धरातल परकुछ बीज नए बोतीं हैं...ज़िन्दगीहर क्षण बदल रही हैबिखर रही है, संवर रही है...वो, वो नहीं है इस क्षणजो बीते क्षण होती है... ...चुन करअवशेष...हम बढ़ जाते हैं...कितना कुछखोया हुआ हमयाद-शहर में पाते हैं...पल थे चार...और उन्हीं पलों में निहित जीवन और जीवन का साक्षात्कार...क्या करता राहीचलता रहा...रात दिन बारी बारी से पारी सँभालते रहेसूरज रोज़ उगता, रोज़ ढ़लता रहा...यहीं से निकली भोर...उन्मुख जीवन की ओर... !!