$ 0 0 कई बारसमझ नहीं आता...क्या सही हैक्या गलत... कई बारवस्तुस्थिति यूँ हो जाती है जैसे...आगे की राह परकभी न हटने वाली धुंध जमी हो...कई बार यूँ भी हुआ हैकि कोहरा भयंकर होता हुआलील गया है समूचा विश्वास...कई कई बार टूटे हैं सपनेकितनी ही बार रूठे हैं अपनेराह मेंकितनी बार ठोकर लगी हैये हिसाब रखना छूट गया है... !चलते चलते हमने जानासाथ चलता हुआ अपना ही विम्बहमसे जाने कब रूठ गया है... !!युगों युगों के साथ कावो निर्विवाद पक्षधर...कभी मौनतो कभी मुखर... विश्वास के धागे सुरक्षित हैं उन्हीं धागों से बुन करसंवादों का एक अदृश्य पुल...हम रूठे हुए विम्ब को मना लेंगे...कोहरे में गुम होती आकृतियों मेंहम स्वयं को पा ही लेंगे... !!