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Channel: अनुशील
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कोहरे में गुम होती आकृतियों में... !!

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कई बार
समझ नहीं आता...
क्या सही है
क्या गलत... 


कई बार
वस्तुस्थिति यूँ हो जाती है जैसे...
आगे की राह पर
कभी न हटने वाली धुंध जमी हो...


कई बार यूँ भी हुआ है
कि कोहरा भयंकर होता हुआ
लील गया है समूचा विश्वास...


कई कई बार टूटे हैं सपने
कितनी ही बार रूठे हैं अपने


राह में
कितनी बार ठोकर लगी है
ये हिसाब रखना छूट गया है... !


चलते चलते हमने जाना
साथ चलता हुआ अपना ही विम्ब
हमसे जाने कब रूठ गया है... !!


युगों युगों के साथ का
वो निर्विवाद पक्षधर...
कभी मौन
तो कभी मुखर... 


विश्वास के धागे सुरक्षित हैं


उन्हीं धागों से बुन कर
संवादों का एक अदृश्य पुल...


हम रूठे हुए विम्ब को मना लेंगे...


कोहरे में गुम होती आकृतियों में
हम स्वयं को पा ही लेंगे... !!



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