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Channel: अनुशील
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इस्ताम्बुल... !!

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घर जाना... घर हो जाने जैसा होता है... जैसे एकाकार होने जा रहा हो मन अपनी चिरपरिचित दुनिया से... अपने परिवेश से... अपनी जानी पहचानी हवा के आगोश में निश्चिंत हो चैन की नींद सोना जब दुर्लभ हो ऐसे में ऐसी संभावनाओं का जन्मना... पंछी बना देता  है मन को ही नहीं सम्पूर्ण अस्तित्व को भी... ऐसा लगता है जैसे दौड़ते हुए पहुँच जायें...!
दौड़ते हुए गिरते भी हैं... गिरे भी... पर धैर्य किसे है... आज भी डेढ़ साल पुराने चोट के काले निशान हैं... इस्ताम्बुल में उड़ते उड़ते चल रहे थे... गिरे और क्या और अच्छी खासी यादगारी मिल गयी... ये अच्छा है... टूटता फूटता कुछ नहीं है बस दर्द और काले नीले निशान हो कर ही रह जाते हैं, नहीं तो सुशील जी तो मेरी मरम्मत ही करवाते रह जाते आये दिन...!
खैर, ये बात हो रही है... २०१४ की... छोटी बहन की शादी थी... हम घर जा रहे थे... यात्रा का एक पड़ाव था... उस पड़ाव पर कुछ समय का अवकाश था हमारे पास और मेरे पास था एक चंचल मन... जो बार बार उस क्षितिज पर उड़ कर चला जाता था... वो क्षितिज जहां कोई मेरा इंतज़ार कर रहा हो...! ये ऐसा ही है... दूरी हो तो हो... पर जुड़े हुए जो है वो जुड़े ही रहते हैं मन... कारण, तर्क-वितर्क, सबसे परे... उनका साथ, कभी नहीं छूटता... कोई किसी से नहीं रूठता कभी भी... हाँ! भ्रम हो सकता है कि रूठा हुआ है समय... टूट गयी है अनन्यता...पर ऐसा होता नहीं है... बादल सूर्य को ढंकने का भ्रम पाल सकते हैं...
पर वास्तविकता तो कुछ और ही है...
रिश्तों के आकाश पर सदा दिव्य भोर ही है...!
अरे! ये तो राह भटक रहे हैं हम... क्या लिखना है और क्या क्या लिख रही है कलम... थोड़ा ठहरो भई, पता है तुम मेरे वश में नहीं... हम तुम्हारे वश में हैं... पर कभी सुन भी लिया करो... कितने समय से छूटा हुआ है... आज पूरा कर दो इसे... लेखनी! आज जरा लिख जाने दो इसे...!
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दो महाद्वीपों के बीच बंटा एक शहर... इस्ताम्बुल
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जाने कैसे तो ये रूट लिया हमने तब भारत तक पहुँचने हेतु... पड़ाव की सुन्दरता यात्रा को यादगार बनाती है... वो यात्रा तो ऐसे भी यादगार होने वाली थी... मंज़िल भारत जो था... !!
१६ जनवरी २०१४ की रात को स्टॉकहोम से चले थे हम... आधी रात के बाद कभी इस्ताम्बुल पहुंचे... सुबह होने तक इंतज़ार करना था... वही सोये बैठे समय बीता... सुबह हुई... बारिश हो रही थी... फिर भी हम बस की खुली छत पर बैठे... फुहारों के बीच गुजरते दृश्यों को आँखों में संजोया  और कैमरे में भी... ये तो तय ही था कि एक ही बार इस रास्ते से गुज़र रहे हैं हम... इस ओर लौटना न होगा फिर... !

यूँ लिखते हुए भी तो इस पोस्ट पर आज कितने समय बाद लौटे हैं... लौटना इतना मुश्किल क्यूँ होता है... हर सन्दर्भ में... !!! जाने क्यूँ? अब तक क्यूँ नहीं लिख पाई वह यात्रा...
शायद इसलिए कि हर बात के लिए एक वक़्त निर्धारित होता है... जब तक वह वक़्त नहीं आता तब तक अधूरी ही रहती है बात... मन में तो कितना कुछ उमड़ता घुमड़ता है... कहाँ प्रेषित हो पाता है सब... कि सब की नियति पूर्व निर्धारित है... !!
अब आज और लिखना न हो पाए शायद... पर पेंडिंग भी नहीं रखनी यह पोस्ट... आधी अधूरी ही सही... प्रकाशित हो... शेष अगली कड़ी में लिख जाये... कल ही... जल्द ही...

तब तक कुछ तस्वीरों के साथ लेते हैं विराम...
ज़िन्दगी लेकर आएगी फिर परिकथाओं वाली शाम...









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