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Channel: अनुशील
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सुदूर कहीं... !

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द्वेष, दंभ, दंश के संसार से
कहीं दूर... सुदूर कहीं...



कश्ती!
ले चल हमें कहीं और,
कि ये अपना संसार नहीं... ... ... !!



यहाँ रोज़ बातें होती हैं,
दिल दुखाया जाता है...



अभी एक बार
बरस कर रुकी ही थी,
कि फिर आँख बही... ... ... !!



विडम्बनाओं का
बढ़ता ही जाता है आकार प्रकार...



कैसी क्षणिक है
ये ज़िन्दगी,
आज है, कल रही... न रही... ... ... !!



शुभता, स्नेह, परस्पर प्रेम से सींची,
होगी न कोई दुनिया कहीं...



कश्ती!
दी पतवार तुम्हारे हाथों में,
चल ले चल, हमें वहीँ... ... ... !!


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एक पंक्ति पर नज़र पड़ी... "द्वेष, दंभ, दंश के संसार से कहीं दूर... सुदूर कहीं... ! --सुरेश चंद्रा "


किसी प्रश्न का उत्तर थी शायद वह पंक्ति...
"कहाँ...?"इस प्रश्न का उत्तर बन कर प्रेषित हुई हो ऐसी सुन्दर संभावनापूर्ण पंक्ति तो उसे विस्तार तो मिलना ही चाहिए... पहली पंक्ति की प्रेरणा से जो जुड़ता गया सो लिख गयी कलम... सहेज ली जाये यहाँ... कि खो न जाये प्रेरणा का आकाश हमसे... लुप्त हो न जाए... टूटा फूटा जो भी विस्तार दे पायी मेरी कलम और कश्तियों को भी तो सहेजना है... कि कागज़ की कश्तियाँ है... और पल पल उनके खो जाने का डर भी... नष्ट हो जाने की आशंकाओं के बीच सांस लेते जीवन को सहेजना सरल लगता होगा, पर होता नहीं... कभी नहीं...
अब ये कागज़ की नाव बनाना सरल लगता हो पर मेरे लिए सरल कहाँ था... सुशील जी ने एक एक फोल्ड के साथ कई बार डेमोंसट्रेट किया तब जा कर हम ये कश्तियाँ बनाने में सफल हुए थे... 


नाविक! प्रवाह की कैसी फिक्र...
हर क्षण है धारों के बीच तेरा ही एक ज़िक्र...






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