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Channel: अनुशील
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यात्रा के कितने आयाम!

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जिसे कल पर छोड़ा जाता है वो हमेशा के लिए छूट जाता है... बारिश ने स्क्वायरपर उतरने नहीं दिया और अगला दिन वैटिकन सिटी के नाम रहा. स्क्वायर पर समय बिताना नहीं ही हो पाया. और भी बहुत कुछ था जो छूटा पर अभी बात करें उन पड़ावों की जिसे छू पाने में सफल रहे, भले समग्रता में नहीं, एक दूरी से ही सही!
सुबह सुबह तैयार हो कर हम टहलते हुए निकले, पैदल चलना जो दे सकता है वह भागते हुए या किसी वाहन पर सवार होकर कभी नहीं मिल सकता!
***
रोम यात्रा की अंतिम कड़ी लिख जाने के उत्साह ने कल हमसे अगले पोस्ट की तैयारी शुरू करवा दी, मन ही मन वैटिकन सिटी का मार्ग स्मृतियों में ढूँढने लगे हम और यहाँ लिखने लगे पर ऐसा थोड़े ही होता है कि एकाग्रचित्त हो कुछ कर रहे हों और एकाग्रता भंग न हो. तो मेरी भी एकाग्रता भंग हुई जब याद आया कि सेमीनार (लेक्चर के बाद जो क्लासेज होती हैं, उन्हें यहाँ सेमीनार कहते हैं) अटेंड करना है तो लिटरेचर पढ़ कर जाना होगा, सो वही करने में लग जाना उचित लगा. कल का समय फिर विगोत्सकीकी थियुरिज़ पढने में चला गया, कितना आत्मसात हुआ यह तो अब आज के सेमीनार में ही पता चलेगा…! कल यह निश्चय किया था कि सुबह उठना हो गया तो ये रोम यात्रा आगे बढ़ायेंगे, उठे भी पर निकल गए एक और यात्रा पर… अज़दककी यात्रा, एक एक क्लिकपर उमड़ता घुमड़ता समंदर अभिभूत करता रहा और हम टहलतेरहे बिना किसी हड़बड़ी के.
बिना कहीं पहुँच जाने की जल्दी के जो टहलना होता है न, घास पर पड़ी ओस की बूंदों को महसूस करते हुए जो खोयी खोयी सी गति होती है न.… कुछ कुछ वैसा ही! ओस की बूँदें महसूस हों और ये भाव न आये कि शायद पत्ते रोये हैं रात भर… ये कैसे हो सकता है; हमारे मन ने भी ओस की बूंदों के अनलिखे कुछ अक्षर पढ़े और अनूदित होती गयी कुछ पंक्तियाँ भीतर ही भीतर, उगी एक दूब और झिलमिला उठी एक ओस की बूँद उसके ऊपर और हमारा मन भींग उठा. सच कभी कभी ऐसे भी भींगना चाहिए, कि केवल पोर गीली हो आँखों की जबकि भीतर दर्द का एक सागर लहराता हो!
***
एक बेहद उदास शाम थी, कुछ पत्र लिखे उस दिन.… एक का जवाब मिला. शाम कुछ मुस्कुरायी. फिर जवाब देने वाले के प्रताप से ही पता मिला उस रोज़ वहाँ का. पॉडकास्टसुना… आवाजों के आसपास होने की आश्वस्तता ने हमें उबार लिया और तब से उस ओर जाना होता रहता है… आवाजें सुनने और कभी कभी सन्नाटों की गूँज सुनने भी!
लहरें होती ही हैं ऐसी, उनसे पहचान हो जाए तो समंदर का भी पता मिल जाता है.…! अरे वाह, ये तो कितना बढ़िया कोइन्सिडेन्स  है:: लहरें की स्वामिनी से ही तो सागर का पता मिला था!
***
ऊपर के लिनक्स क्लिक किये गए तो निश्चित ही वह शब्द यात्रा समृद्ध करेगी कई स्तर पर… और फिर तो उपस्थित होगी समक्ष एक लम्बी यात्रा पर निकल जाने की कूंजी!
ये वैटिकन की यात्रा तो हम ऐसे ही लिख जा रहे हैं अब… अटकी हुई कुछ याद और धूमिल न हो जाए इससे पहले कुछ एक रेखाएं खिंच लें इधर अनुशील पर…
रास्ते की एक तस्वीर बस से ही::
सुना है, बहुत बार पहुँच कर भी पहुंचना नहीं हो पाता, यह सत्य अनुभूत भी हुआ! आज खोज रहे हैं तो लग रहा है जैसे स्मृतियों में सहेजा हुआ जो है वैसी तो कोई क्लीक की गयी तस्वीर मिल ही नहीं रही फोल्डर में. तसवीरें खो गयीं या क्लिक ही नहीं की गयीं तब.… पड़ाव से यूँ रिश्ते तलाश रहा हो कि कैमरे की ओर ध्यान ही न गया हो, मन की ऐसी दशा भी तो हो सकती है न, रहा होगा कुछ ऐसा ही, खैर…. 
वैटिकन सिटी  पृथ्वी पर सबसे छोटा, स्वतंत्र राज्य है, जिसका क्षेत्रफल केवल ४४ हेक्टेयर (१०८.७ एकड़) है! इसकी राजभाषा है लातिनी, ईसाई धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का यही केन्द्र है, और इस सम्प्रदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप का यही निवास है.
बचपन में कोई चौथी क्लास के जनरल नॉलेज बुक से रटे गए कुछ तथ्य कौंध गए. 
भीड़ को मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा उठाये कुछ लोग तरह तरह की जानकारियाँ दे रहे थे, हमने सब धैर्यपूर्वक सुना और अपने विवेक से यह निर्णय किया कि बिना किसी दिशानिर्देश के जो जितना हो सकेगा वही देखा जाएगा. ऐसे भी सबकुछ एक ही बार में देख समझ लिया तो फिर यहाँ आने को क्या मकसद रह जायेगा! फिर आने की एक सम्भावना जीवित रहे, इस खातिर कुछ छूट जाए यात्रा में, वही अच्छा होता है.…
बूंदों के बीच से, बूंदों को महसूसते हुए बहुत अच्छे क्षण जीए गए यहाँ पृथ्वी के सबसे छोटे राज्य में! पूरी पृथ्वी हमारा घर है, घर का एक यह कोना यह  भी.… जाने कितने कोने अदेखे ही तो रह जाने हैं!
टुकड़ों में समेटी गयी भव्यता क्यूंकि हमारा सामर्थ्य नहीं कि समग्रता में ग्रहण कर पाएं कुछ भी. जीवन में भी तो ऐसा ही चलता है… टुकड़ों में जीना, टुकड़ेही समेटना और एक दिन टुकड़े टुकड़े हो भी जाना!
इस शहर में एक पोस्ट ऑफिस था, बहुत सारे लोग यहाँ से अपने प्रियजनों तक सन्देश लिख कर सोविनर पोस्टकार्ड पोस्ट कर रहे थे. हमें भी बहुत अच्छी लगी यह बात, पर हमने न कोई पोस्टकार्ड लिया न ही कुछ पोस्ट किया! पर आज सोचते हैं तो लगता है, सोचना नहीं चाहिए था, कुछ पोस्टकार्ड तो पोस्ट कर ही देने चाहिए थे वहाँ से अपने अपनों तक, दूर रहते कुछ सपनों तक….!
वैटिकन सिटी दुनिया के महान एवं प्रसिद्ध कला का निवासस्थल है. सेंट पीटर्स बैसिलिका नवजागरण वास्तुकला का एक प्रसिद्ध उदहारण है जिसमें क्रमशः कितने ही आर्किटेक्टों ने अपना योगदान दिया है… ब्रामनतेमाइकल एंजेलो, गियाकोमो डेला पोर्टा, मेडार्नो  औरबर्निनी!
सिस्टिन चैपल अपने भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है जिसमें पेरुगिनो, डोमेनिकोऔर बोत्तिसेलीकी कलाकृत्तियां शामिल हैं, साथ ही छत पर की गयी माइकलएंजेलो की कारीगरीऔर लास्ट जजमेंट  भी. वैटिकन और उसके अंदरूनी हिस्सों को सजाने के कार्य में और जिन्होंने योगदान दिया उनमें रफएल और फ्रा अन्ज़ेलिको शामिल हैं. 
माइकल एंजेलो की यह कृति वेटिकन की सर्वश्रेष्ठ ज्ञात कलाकृतियों में से एक है. कौन नहीं अभीभूत होगा इसछवि को देख कर!
वेटिकन अपोस्टोलिक लाइब्रेरीऔर वेटिकन संग्रहालय के संग्रह का उच्चतम ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्व है. १९८४ में, वेटिकन विश्व धरोहर स्थलों की सूची के लिए यूनेस्को द्वारा जोड़ा गया है. सूची में स्थान पाने वाला यह इकलौता राज्य है. इसके अलावा, हेग कन्वेंशनके अनुसार, यह स्मारकों से युक्त एक केंद्र के रूप में यूनेस्को के "विशेष सुरक्षा के तहत सांस्कृतिक संपदा के अंतर्राष्ट्रीय रजिस्टर" में पंजीकृत होने वाला पहला राज्य भी है. 
तथ्य हैं बहुत सारे, बहुत सारे तब के लिखे चुटके पूर्जे हैं, जिन्हें खंगाला और कुछ कुछ सहेज लिया इधर. क्या पता था शहर में भी एक शहर बसा होगा… नहीं तो और समय ले कर आये होते, रोम लौट जाने की जल्दी न होती तो और देखा समझा होता वैटिकन को!
अब वापस चलना था, शाम हो चुकी थी.… 
अगला पड़ाव था त्रेवी फाउंटेन! रोम के त्रेवी प्रदेश में स्थित यह फाउंटेन विश्वप्रसिद्ध है, इसे निकोल साल्वीने डिजाईन किया था और अंतिम रूप पिएत्रो ब्रासीद्वारा दिया गया था. 
हम जब यहाँ पहुंचे तो अँधेरा रोशन था, भीड़ थी और कुछ काम भी चल रहा था, अच्छी तसवीरें नहीं ले पाये…. 
खैर, एक और परंपरा है यहाँ की : सिक्के फेंकने की. कहते हैं, यहाँ सिक्का फेंकने वाले पर्यटक वापस फिर कभी रोम ज़रूर आते हैं.
अनुमानतः प्रतिदिन ३००० यूरो के सिक्के फेंके जाते हैं इस फाउंटेन में. इस राशि का इस्तमाल रोम के जरूरतमंद लोगों के लिए एक सुपरमार्केट में रियायत देने हेतु किया जाता है. 
ये तीन हज़ार यूरो के कोयंस का आंकड़ा सच ही होगा, देखिये हमने यह तस्वीर ली थी वहाँ फाउंटेन की, सिक्के झलक रहे हैं न अनगिनत. 
कैसा तो होता है न हमारा मन, सब एक ही तार से जुड़े होते हैं चाहे कहीं के भी लोग हों, सब लौटना चाहते हैं फिर से एक बार वहाँ, जहां से होकर आ चुके हैं. ये साझे भाव न होते, यूँ हम भिन्न होकर भी अभिन्न न होते तो कैसे होते इतने सिक्के इस पानी में. 
अब हम तो नहीं जानते थे सिक्के को सही ढंग से फेंकने का तरीका तब, सो बस ऐसे ही डाल दिया. मेरी अज़ीज दोस्त राही के ब्लॉगपर घूमने जाएँ अगर आप तो मिल जायेगी सही ढंग से सिक्के उछाले जाने की एक तस्वीर. स्वीडिश भाषा में हाल ही में उसने लिखना शुरू किया है, मूलतः ईरान की रहने वाली मेरी यह दोस्त बहुत कुछ अच्छा सहेज रही है. उसे बधाई!
उसे हिंदी नहीं आती, वो नहीं समझेगी कि हमने क्या कहा अभी उसके बारे में यहाँ, पर भाषा से परे जो भावों का संसार है वहाँ कई बार हम एक ही धरातल पर खड़े होते हैं....!
अब स्पेनिश स्टेप्स की ओर चलें, यहाँ तक जाना बस "हाँ.… न" करते हुए यूँ ही हो गया था… समय यूँ भाग रहा था कि पकड़ना मुश्किल था और हम अंतिम बस मिस नहीं करना चाहते थे इसलिए बस बैठ गए हॉप ओन हॉप ऑफ का इंतज़ार करते हुए वहीं सड़क पर 
बस का कोई ठिकाना नहीं था और इंतज़ार करना खल रहा था. आस पास भी कई और लोग उसी बस की राह तक रहे थे. सुशील जी ने वहाँ उपस्थित कुछ निवासियों से बात की तो पता चला कि इंतज़ार किया जा सकता है पर कई बार ऐसा भी होता है कि बस नहीं आती. 
हम लोग काफी देर तक रुके रहे इसी अवस्था में, हॉप ओन हॉप ऑफ जाने कहाँ रह गया कि दो दिन का साथ बिसरा गया और हमें हमारे गंतव्य तक अंतिम बार पहुँचाने से चूक गया! गूगल मैप के सहारे इतना पता कर लिया गया कि होटल तक पैदल जाया जा सकता है, फिर हम कुछ इत्मीनान हुए. काफी आराम हो चुका था बस के इंतज़ार में तो हम स्पेनिश स्टेप्सकी ओर बढ़ ही गए. 
कुछ समय वहाँ बिताया, किसी आस पास के स्पॉट पर बस का फिर भी कुछ अता पता नहीं था, शायद अपने चक्कर लगाने में ये रुट मिस हो गयी हो बस से या फिर जान बूझ कर हमें वहाँ से पैदल चलाने की कोई मंशा को नियति अंजाम दे रही हो, कौन जाने!
अब धीरे धीरे बढ़ना था सीढ़ियों को पीछे छोड़ समतल सड़क पर अपने ठिकाने की ओर!
रास्ते में तसवीरें लेते हुए, शाम को घर लौटते कदमों की ताल सुनते हुए हम चलते रहे अपने गंतव्य की ओर! राहें भी चल रहीं थीं, हम भी चल रहे थे और हमारे साथ रोशन अँधेरा भी चल रहा था अपनी गति से, कैमरे के क्लिक्स भी अंत अंत तक कुछ न कुछ आहट समेट लेने के ध्येय से गतिमान थे ही… 
तो इस तरह रोम को अलविदा कहने का वक़्त आ गया और हमने अगले रोज़ सुबह सुबह स्टॉक होम के लिए उड़ान भरी.… 
जहाज़ की खिड़की के शीशे से झाँकता मन अचंभित था… अपनी धरती से कितने दूरहैं हम और फिर भी सांसें चल रहीं हैं..........
जिंदा हैं……?
कैसे तो भला.……?


तुम्हें लिखते हुए...!

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हाँ,
मीठा पसंद नहीं हमें,
पर तुम्हारी
मिठास भरी बातें
बड़ी प्यारी लगती हैं...


हमारे किसी पूण्य का प्रताप है
तुम्हारा साथ,
तेरे आसपास खिलने वाली धूप
सारी दुनिया से
न्यारी लगती है...


जुदा-जुदा सा है
एक पल से हर एक दूसरा पल,
तुझ संग बितायी घड़ियाँ
समय के आँचल में
सुनहरी धारी लगती है...


कुछ भी अपना नहीं जहाँ
जीवन के घमाशान में,
वहाँ चंद अनमोल बातें तेरी
आसमान में इन्द्रधनुष सी
चित्रकारी लगती है...


आगे निकल जाने पर
ग़र पीछे मुड़ने का मौका देगी ज़िन्दगी,
तो देख यही निशान कहेंगे...
अरे! ये परछाईयाँ तो
हमारी लगती हैं...!












Anamika, Thanks for the click! 

कविता  पुरानी , तस्वीर नयी!

पूजा के फूल!

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मेहँदी से जुड़े कितने ही रंग हैं यादों के.…., सभी रंगों को खूब याद करते हैं यहाँ. 
पंजाबी लाईन, मानगो में गुजरा बचपन जमशेदपुर की यादों में सबसे ज्यादा जगमगाता है. ये वो समय था जब स्वर्णरेखा नदीपर केवल एक ही पुल था. ट्रैफिक जाम की सम्भावना हमेशा होती थी, इम्तहान के समय अगर स्कूल जाते वक़्त हमारा रिक्शा जाम में फंस जाता था तो पैदल पुल पार कर फिर किसी न किसी उपाय से स्कूलपहुँचते थे. फिर नए पुल का निर्माण कुछ राहत ले कर आया. अब दो पुलथे और राह कुछ आसान. पुराने छोटे पुल पर पैदल चलना अब आसान हो गया, पुल जितनी बार पार किया मन पुल के प्रति और कृतज्ञ होता गया. यही पुल हमें हमारे स्कूल राजेन्द्र विद्यालयतक ले जाता था!
पुल के एकदम पास ही थी गली जिसमें १९८८ से २००२ तक रहे हम लोग. एक बड़े परिवार जैसा ही था पूरा मोहल्ला. आज दूसरे जगह शिफ्ट हो गए हमलोग जमशेदपुर में पर पंजाबी लाईन के लोगों से जो आत्मीयता थी वह अब तक है. हमारे ऊपर वाले मकान में रहने वाला छोटे भाई सा Souvik अभी पेरिस में है. हम आज भी पड़ोसी ही तो हैं! एक फ्लोर की दूरी हुआ करती थी हमारे घरों में, आज दो देश की दूरियां हैं पर पेरिस से स्टॉकहोम आना दुरूह तो है नहीं, हम कई बार आने जाने की प्लानिंग कर चुके हैं. देखें कब सफल होते हैं! सुन रहे हो न Souvik?
बात शुरू हुई थी मेहंदी से, तो चलते हैं माड़वाड़ी आंटी के घर. तीज का समय होता था तब मम्मी के दोनों हाथ और पैरों में भी कितनी सुन्दर मेहंदी लगा देती थी वे, हमारी छोटी छोटी हथेलियों में भी अंत में कुछ फूल खिल उठते थे उनके प्रताप से.
इस बार मम्मी ने कोई मेहंदी नहीं लगायी, हम लोग हैं नहीं वहाँ जो कुछ आड़ी तिरछी लकीरें खींच दें उनके हाथों में और न ही अब वह समय है जब कोई पड़ोस वाली आंटी साधिकार मेहंदी लगा दें अपनी किसी परेशानी की परवाह किये बगैर. खैर, ये अच्छी बात है कि हमारे मोहल्ले के लोग, जो अब भी वहीं पंजाबी लाईन में रहते हैं और जो इधर उधर शिफ्ट भी हो गए, वे सभी अब तक जुड़े हुए हैं. सामने वाले घर में जो पंजाबी आंटी थीं, उन्हें हम बचपन से ही सामने वाली आंटी कहते थे. आज दूरी तो बहुत है, पर अब भी वो हमारे लिए सामने वाली आंटी ही हैं! अपनी शादी की विडियो देखते हैं तो पूरे पंजाबी लाईन से मिलना हो जाता है!
हमें याद है तीज पूजा के बाद अगले दिन प्रसाद बांटना, घर घर जा कर हम प्रसाद बाँट आते थे, २००२ में जब पंजाबी लाईन छूटा तब भी तीज के बाद पंजाबी लाईन प्रसाद पहुँचाने जाना याद आता है. पता नहीं इस बार मम्मी से संभव हो पायेगा या नहीं, हममें से कोई न हो तो मम्मी अकेली क्या क्या करें; भले ही जा नहीं पाएंगी पर मम्मी सबको याद ज़रूर कर रही होंगी और सबलोग भी ज़रूर मम्मी को और प्रसाद को याद कर रहे होंगे!
ये तीज की कुछ पुरानी यादें हैं, मेहंदी, पेड़किया, मम्मी का निर्जला उपवास और सुबह उठकर उनके लिए जल्दी जल्दी पारण बनाना!
तीज करने का अवसर जब मेरे जीवन में आया तो हम यहाँ थे स्वीडन में, आये ही थे २००९ में यहाँ कि पहली तीज पड़ी थी. न मेहंदी लग पायी न प्रसाद ही बना पाए थे, चार दिन ही तो हुए थे भारत से आये. बिलकुल अनजान था यह शहर. बस निर्जला उपवास और पूजा हो पायी उस वर्ष, २०१० में मेहंदी भी लगाई, इन फैक्ट, लगवाई… ये रही सुशील जी की कलाकारी ::

रंग कितना चढ़ा था यह तो याद नहीं, पर गाढ़ा नहीं ही रहा होगा क्यूंकि मेहंदी स्टॉकहोम में ली गयी थी तभी तो कभी बहुत बाद जब हमने स्टॉकहोम से बतियाते हुए यह कवितालिखी तो कहना नहीं भूले ::


तुम्हारे यहाँ
कांच की चूड़ियाँ नहीं मिलतीं
मेहँदी तो मिली, पर उदासीन सी है वह...
जाने क्यूँ हथेलियों पर नहीं खिलती?
शिकायत न समझना...
बस बता रही हूँ...
मैं जहां से आई हूँ
वहाँ की खुशबू बस जता रही हूँ...

पिछले वर्ष दिसंबर में घर गए थे हमलोग तीन वर्ष बाद. आज जो मेहंदी का रंग है मेरी हथेलियों पर वह हम 
घर से लाये हैं. इस बार खुद ही लगाया, उनसे जिद नहीं की लगा देने की. खुद ही जो हुआ खिंच लिया हथेलियों पर दो एक दिन पहले ही.
इस बार हम दोनों ने मेहंदी से ज्यादा मेहनत प्रसाद बनाने पर किया. घर में ही, जाने कौन विधि से, हमारे स्वामी ने खोवा तैयार किया, मैदा साना और हम दोनों ने मिल कर गढ़े पेड़किये (गुझिया को हमारे यहाँ पेड़किया ही कहते हैं). हमको भी मम्मी को देखते हुए जो याद था वो तरीका अप्लाई किया, उन्होंने भी बचपन में अपनी मम्मी की मदद की है प्रसाद बनाने में तो वो क्यूँ पीछे रहते, उन्होंने भी अपना हुनर आजमाया और हमारा प्रसाद तैयार हो गया! जितनी जैसी व्यवस्था हो सकती थी यहाँ वो की हमने और पूजा पाठ भी बढ़िया से संपन्न हो गया. ये एक तस्वीर पूजा के बाद की::

याद आता है, जमशेदपुर से पापा बनारस हॉस्टल तक पार्सल कर देते थे प्रसाद, उस पार्सल की बात ही निराली हो जाती थी. पहुँच जाए ये बहुत बड़ी बात होती थी, किस हाल में पहुंचा प्रसाद ये गौण हो जाता था! 
सांसु माँ और मम्मी से बात हो गयी फ़ोन पर, दोनों का व्रत ठीक से संपन्न हो गया, उन्हें प्रणाम निवेदित कर हमने भी सुबह की पूजा के बाद अब प्रसाद खा लिया है. 
सोमवार है, स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी भागने की तैयारी शुरू की जाए अब.… 
***
हम समस्त  जीवनाधारसमेट लाये हैं यहाँ, अपनी जगह से दूर अकेला जीवन आसान नहीं है पर उसे आसान बनाने की जिम्मेदारी निश्चित हमारी है.…  
और यह कहते हुए संतुष्ट होता है मन -


हमारी किस्मत की तरह...
ऐ! माटी...
तू भी हर पल
साथ है...
तीज की पूजा हेतु
गौरी-गणेश बनाने को
हम कुछ रजकणों से संस्कार
समेट लाये हैं!


सभी को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं!
पूजा के कुछ पावन फूल अर्पित हैं प्रभु के श्रीचरणों में, भक्ति भाव ही तो होते हैं पूजा के फूल और इन्हीं से प्रसन्न होते हैं भगवान!
वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

ऐ दिल…!

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हम में से हर कोई संवेदनशील है,
बुराई की भर्तस्ना  करता है,
शांतिप्रिय है,
है हम सबमें विवेक… 


फिर कहाँ से आते हैं वो लोग
जो उन्माद फैलाते हैं?
क्यूँ है इतना हाहाकार संसार में?
कहाँ से आती है इतनी कटुता?
क्यूँ रो रही है मानवता?
जब सब अच्छे हैं,
तो क्यूँ है ये दुर्दशा???


इन प्रश्नों से जूझते हुए बेहाल थे
मन उद्विग्न था बेचैन कई सवाल थे 


इतने में कहीं से आवाज़ आयी… 


भीड़ कोई चिल्लाई


भीड़ की कोई सोच नहीं होती
भीड़ की कोई संवेदना नहीं होती
भीड़ का कोई आदर्श नहीं होता
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
भीड़ की कोई नागरिकता नहीं होती
और इंसानियत…?
इंसानियत का तो 

दूर दूर तक भीड़ से कोई वास्ता ही नहीं होता… 



इसलिए भीड़ से
किसी भी सद्विचार की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है.… 


भीड़ सिर्फ ताकती है, 

तमाशे का हिस्सा होती है 

या फिर 

होती है तमाशबीन! 


जहां भीड़ न हो ऐसी जगह जा कर बस ऐ दिल…!

कौन सा गीत गाऊँ मैं?

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क्या क्या मुझे रुलाता है-
इसकी एक सूची बनाने बैठूं तो
सूची में सबसे पहले किसका जिक्र होगा…?


दुनिया का?
मेरी खुद की सीमाओं का?
या फिर जीवन का?
या सबसे पहले अपना वजूद प्रस्तावित कर,
सूची में सबसे ऊपर…
मुस्करा रही होगी मौत?



क्या होगा वह अव्यय
जो सूची में पहले स्थान पर होगा-


यह प्रश्न
फिर रुला रहा है मुझे!


नम आँखों से आखिर
कौन सी सूची बनाऊं मैं?


कैसे व्यवस्थित हो मन
कौन सा गीत गाऊँ मैं?


कुछ विम्ब इस शहर के!

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स्टॉकहोम में हमारे साथ एक हफ्ते रहकर वापस लंदन जा रही थी अनामिका, एअरपोर्ट के लिए बस में बैठ चुकी थी और ये तस्वीर हमनें बाहर से क्लीक की थी…! ये ख़ुशी जो चेहरे पर झलक रही है यह मुझसे छुटकारा पाने की ख़ुशी भी हो सकती है, पर शायद ऐसा नहीं है… ये मुस्कराहट खिली है क्यूंकि मोबाइल पर इन्टरनेट एक्सेस हो रहा है, बस के वाई फाई के प्रताप से और इसका अर्थ यह हुआ कि हम उसकी एअरपोर्ट तक की यात्रा में साथ हो सकते है मोबाइल द्वारा बात चीत के माध्यम से!
बस खुल गयी और आँखें भर आयीं. हम ट्रेन स्टेशन की ओर बढ़े, जब तक हम घर पहुंचे वह भी एअरपोर्ट पहुँच गयी. और संपर्क नहीं टूटा!
२७ अगस्त से ३ सितम्बर::  ये समय याद रहेगा हमेशा! धन्यवाद अनामिका हमें इतने यादगार पल देने के लिए!
***
ये प्रारंभ लिख कर विराम ले लिया था आज के लिए क्यूंकि क्लास है आज, सेमीनार में सारी बातें समझ आयें इसलिए लिटरेचर तो पढ़ कर जाना ज़रूरी ही है.
फिर सुबह सुबह उठना हमेशा कहाँ हो पाता है, अभी ऐसा हो पा रहा है तो सोचा थोड़ा टहलना भी हो जाए... एक बार मौसम बदला, बर्फ़बारी शुरू हुई तो फिर टहलना-वहलना भी आकाश कुसुम सा दुर्लभ हो जाना है! पर, ये कहीं सिद्ध थोड़े किया गया है कि टहलना हमेशा अच्छा ही होगा, कभी कभी कोई एक दृश्य, कोई एक कदम कोई एक किरकिरी सारी शुद्ध हवा पर भारी पड़ जाती है और टहलने का उत्साह छू मंतर हो जाता है, जिस भी कारण से बिगड़े, अब मूड ठीक नहीं है तो ऐसे में हमसे पियाज़े की थियोरी तो समझ आने से रही…! पढ़ाई छोड़ कर अभी याद करते हैं वह समय जब अनामिका यहाँ थी और हम खुश थे!
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इंसान जहां रहता है, वहाँ की महत्ता से दूर ही रहता है… जाने ऐसा क्यूँ है कि छूट जाने के बाद ही समझ आती है, चाहे वो ज़िन्दगी हो…  चाहे वो स्थानविशेष हो...! रिश्ते नातों को लेकर भी तो हमारा रवैया कुछ ऐसा ही है, लोगों की कद्र भी तो उनके न होने पर ही किये जाने की विचित्र परिपाटी है इस जग में और इसी परिपाटी का निर्वहन हम किये चले जाते हैं.… कितनी विचित्र है न ये बात कि समय रहते कुछ भी नहीं जानते पहचानते हम!
अनामिका के आने से ये एक और अच्छी बात हुई की बहुत ज्यादा तो नहीं पर स्टॉकहोम के कुछ एक महत्वपूर्ण ठिकानों को हमने समग्रता में देखा, महसूस किया. अब अगर लिख भी जाएँ सारे अनुभव तो और बढ़िया होगा, अनुशील के पन्ने पलटते हुए याद करेंगे इन लम्हों को जो समय के साथ एक रोज़ धुंधले पड़ जाने ही हैं!
सिटी हॉल, स्टॉकहोम की वह ईमारत है जहां हर वर्ष १० दिसंबर को भव्य आयोजन होता है नोबल प्राइज वितरण समारोह के उपलक्ष में. 
यहाँ पहले भी आना हुआ है पर बाहर ही बाहर घूम कर चले जाते थे, इस बार भीतर गए, ब्लू हाल और गोल्डन हॉल में प्रवेश किया, उनका वैभव महसूस किया!
एक विडियोमिली है, इसे देखा जा सकता है, वैसे अपने शब्दों से तो हम कुछ वैसा ही चित्र खींचने का प्रयास करेंगे ही!
तेज़ बारिश में एक छतरी के सहारे हम दोनों बहनें सेंट्रल स्टेशन से सिटी हॉल पहुंचे पैदल, मज़ा आया. अनामिका बचती हुई चल रही थी और हम जानबूझ कर थोड़ा भींगते हुए! 
सिटी हॉल पहुँच कर बहुत सारी तसवीरें लीं बारिश की, छतरी की, छतरी के साथ अनामिका की भी! तस्वीर खिंचवाते नवविवाहित जोड़ों को ठहर कर देखते रहे. दुल्हन की पोषाक ने हमारी बहना को विशेष आकर्षित किया, ऐसे भी सफ़ेद और काला, दोनों ही रंग सर्वाधिक प्रिय जो हैं उसके. अफ़सोस! हमारे यहाँ इन दोनों में से किसी भी रंग का चलन नहीं है किसी भी शुभ अवसर पर, कोई और रंग में रुचि जगाओ बहना!

एक डेढ़ घंटे बिताये हमने यूँ ही फिर तबतक अपना कुछ जरूरी काम निपटा कर सुशील जी भी आ गए. हम तीनों ने बारी बारी से फोटोग्राफी की, जगह की, एक दूसरे की, दो की तीसरे ने.…
फिर हम सिटी हॉल के गाइडेड टुवर के लिए टिकट खिड़की की ओर बढ़े. तीन बजे का अगला समय था, घंटे भर और इंतज़ार करना था… पर कोई बात नहीं, तीन लोग हों और फोटोजेनिक सिटी हॉल हो फिर एक घंटे तो पलक झपकते ही बीत जाने हैं!

अब तीन बजने को थे और हम एक ग्रुप में अपनी गाइड के साथ अन्दर प्रवेश कर रहे थे. सुशील जी पहले भी आये हुए हैं यहाँ अकेले किसी किसी कार्यक्रम में सो उन्होंने गाइड की बातें पहले भी दो तीन बार सुनी हैं, सो इस बार उनकी ड्यूटी थी तस्वीरें लेना और हम दोनों बहनें गाइड को फॉलो कर रहे थे और उसकी बातों पर कान लगाये हुए थे!

अभी हम खड़े हैं बैंक्वेट हॉल में अर्थात ब्लू हॉल में, जो कहीं से भी ब्लू नहीं है! असल में इसके निर्माण काल में मूल डिजाईन और प्लान्स में कई फेर बदल हुए, अंततः लाल इंटों को ही उपयुक्त माना गया पर आर्किटेक्ट के दिए हुए ओरिजिनल नाम को डिजाईन के साथ नहीं बदला जा सका टेक्निकल समस्यायों के कारण और गाढ़े लाल रंग की इंटों से बना यह हॉल ब्लू हॉल ही रह गया. इन इंटों को स्वीडिश भाषा में "मुन्कतेगल"कहते हैं अर्थात सन्यासी की इंट क्यूंकि परंपरागत रूप से इनका उपयोग मठ व चर्च के निर्माण में हुआ करता था. सिटी हॉल के निर्माण में बारह वर्ष लगे, १९११ से १९२३ और करीब ८ मिलियन लाल इंटों का उपयोग हुआ. ईमारत का उद्घाटन २३ जून १९२३ को हुआ (गुस्ताव वासाके आने के ठीक ४०० वर्ष बाद). 

अपने सीधे दीवारों और आर्केड के साथ ब्लू हॉल में एक कोर्टयार्ड(प्रांगन) के सभी  प्रतिनिधि तत्व शामिल हैं. यह वार्षिक नोबेल पुरस्कार समारोह के बाद आयोजित भोज के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले डायनिंग हॉल के रूप में जाना जाता है. ब्लू हॉल का ऑर्गन स्कैंडेनेविया में सबसे बड़ा पाया जाने वाला ऑर्गन है जिसमें १०,२७० पाइप हैं!

ऊपर जहां से रौशनी आ रही वह खुली जगह है. जैसा कि  गाइड ने बताया, पहले ऊपर से पूरी तरह खुला हुआ करता था यह हॉल फिर कालांतर में ऊपर छत का निर्माण हुआ. 

इस भव्यता में प्रवेश कर रही किरण सुहानी थी. ये स्पष्ट था कि खूब बरस कर अम्बर अब शांत हो चुका है और सूर्य देवता स्टॉकहोम की शाम को सुहाना करने को उग आये हैं. अभी गोल्डन हॉल की सैर बाकी है. अब हम गाइड को फॉलो करते हुए ऊपर बढ़ते हैं… गोल्डन हॉल की और!

गोल्डन हॉल की कहानी अगली पोस्ट में कही जायेगी क्यूंकि उसके विषय में कहने को बहुत कुछ है! कुछ तथ्य, कुछ कहानी, कुछ अनुभव और ढ़ेर सारी तस्वीरें! 
ऊपर आकर ब्लू हॉल की कई तसवीरें क्लिक हुईं… भीड़ बढ़ रही थी गंतव्य की ओर और हम कोई खाली सा कोना देख यहाँ के कुछ लम्हे हमेशा के लिए अपनी खातिर सहेज रहे थे.
जहां गैलरी में हम खड़े हैं वहीँ से चल कर पुरष्कार विजेता नीचे जाते हैं. सीढ़ियों का निर्माण कुछ यूँ किया गया है कि सहज रूप से उतरना हो सके और चाल बिलकुल एलिगेंट हो. गाइड ने इस विषय में कई तथ्य साझा किये मसलन उतरते वक़्त दीवारों में बने किस झरोखे की ओर नज़र हो तो सबसे अच्छा पोस्चर होगा, सबसे अच्छी तस्वीर आयेगी. 
आखिर नोबेल पुरष्कार का आयोजन है, सबकुछ पर्फेक्ट्ली डिजाईन तो होना ही है! 
अब सीढ़ियों की तस्वीर और उन झरोखों की भी जो ठीक सीढ़ी से उतरते हुए सामने पड़ती हैं.… 
एक पोस्टकार्ड लिया था उसी की तस्वीर…. समारोह में कुछ ऐसी छटा होती है ब्लू हॉल की! यह दृश्य कितना आकर्षक है न!
***
कल से लिखना शुरू किया था, आज पूरी हुई ब्लू हॉल की कहानी. कल जैसा भी रहा हो, दिन की शुरुआत अच्छी ही हुई है आज.… 
अभी ब्राह्म मुहूर्त की बेला है, मन शांत है, बाहर कोहरा है और हमें पता है कि रौशनी हो जायेगी कुछ घड़ी में क्यूंकि बाल अरुण अपने किरण पथ पर सवार हो निकल चुके हैं रोशन करने संसार को!

सौन्दर्य के प्रतिमान!

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देश कोई हो, भाषा कोई भी हो, भावनाएं एक सी ही होती हैं. "वसुधैव कुटुम्बकम" का सिद्धांत सर्वोपर्री है! इस भाव की  आत्मा से पहचान हो जाती है जब ये महसूस करते हैं कि हमारे दुःख एक हैं, हमारी खुशियां एक सी ही हैं, ख़ुशी और गम दोनों में ही हमारी आँखों का छलक आना एक सा है. हम सब एक से हैं और एक ही कुटुंब से हैं, एक ही धर्म है हमारा और वो है इंसानियत. एक ही भाषा है हमारी और वो है हृदय की भाषा. 
इस हृदय की भाषा ने बहुत मदद की तब जब हमारी भाषाओँ ने हार मान ली. हमें स्वीडिश नहीं आती थी तब, और विश्व के विभिन्न कोनों से आये बहुत से ऐसे भी लोग थे मेरी क्लास में जिन्हें हिंदी तो नहीं ही आती थी, अंग्रेजी भी बिल्कुल नहीं आती थी और न ही उनकी भाषा का हमें ज्ञान था! कैसे होता संवाद? पर संवाद हुए, मन की भाषा ही रही होगी जिसने पुल बनाये होंगे दो विभिन्न भाषियों के बीच जबतक की हम टूटी फूटी स्वीडिश न बोलने लगे संपर्क भाषा के रूप में. 
अपनी भषा के प्रति जो निष्ठा यहाँ देखी वह प्रशंसनीय है, शुरू शुरू में बहुत खीझ होती थी कि कहाँ चले आये, कुछ समझ ही नहीं आता लेकिन यह बात समझनी भी तो हमें ही थी कि हम दूसरी जगह आये हैं तो उस जगह के अनुसार स्वयं को तैयार तो हमें ही करना होगा और यहाँ शिकायत नहीं की जा सकती क्यूंकि हमारी सहूलियत के लिए भाषा सीखाने का समुचित इंतजाम कर रखा है इस देश ने! हमने स्वीडिश क्लासेस में जाना शुरू किया और धीरे धीरे कुछ कुछ चीज़ें आसान होती चली गयीं! बाहर से आये लोगों के लिए सरकारी तंत्रों द्वारा बड़ी सुन्दर व्यवस्था है स्वीडिश क्लासेज की. कोई भी सीख सकता है बस थोडा सा समय ही तो देना है अपने पास से हमें! सभी को बहुत अच्छी अंग्रेजी आती है यहाँ पर कोई अंग्रेजी बोलता नहीं है, लोग बात अपनी भाषा में ही शुरू करते हैं, सामने वाला समझने की असमर्थता व्यक्त करे तो फिर बोलते हैं अंग्रेजी! और जब हम कभी दो भारतीय यहाँ टकरा जाते हैं तो अक्सर ऐसा होता है कि बात अंग्रेजी में ही शुरू करते हैं, फिर हिंदी में पहुँचते हैं. भाषा के प्रति यही मूलभूत अंतर है हमारी सोच में. हिंदी नहीं बोल पाने को शर्मिंदगी नहीं बल्कि एक गर्व के विषय सा ट्रीट किया जाता है हमारे यहाँ, बस  इन्हीं छोटी छोटी मानसिकताओं को बदलना है, भाषाएँ सभी सीखनी है, सब भाषाएँ बोलनी भी हैं पर मूलतः हमें हमेशा हिंदी में होना है! 
जो हमारी पहचान है, उसी से पहचाने जाएँ हम  
बोलें अंग्रेजी भले ही, पर अंग्रेजी के हो न जाएँ हम 
अपनी भाषामें होना ही सकल सौभाग्य व सौन्दर्य है!
***
गोल्डन हॉल के विषय में लिखते हुए कल वाली पोस्ट को आगे बढ़ाना था और हम सुबह के कोहरे को देखते हुए खो गए उन दिनों में जब यहाँ आये थे और स्वीडिश भाषा ने हमारे लिए अच्छी खासी मुश्किलें खड़ी कर दी थी. दुकानों में सामान पहचानना भी कठिन था, अपनी चीनी और अपने नमक ने दूसरा ही स्वरुप और नाम धर लिया था यहाँ, अब कैसे पहचानते हम! खैर, अब आगे बढ़ते हैं गोल्डन हॉल की ओर… 
यह है प्रवेश द्वार, यहाँ से भीतर की दुनिया सुनहरी है, इस द्वार के भीतर सबकुछ स्वर्णिम है! उज्जवल प्रतिमान, इतिहास का अंकन व भविष्य के लिए एक गहरी अंतर्दृष्टि इस भव्यता को और भव्य बनाते हैं. कलाकारों ने निश्चित समय में उत्कृष्टता के प्रतिमान गढ़े. इन प्रतिमानों की आलोचनाएं भी हुईं और अपनी कला को सिद्ध करने हेतु कलाकारों ने अपने तर्क भी रखे. ये हम पर है कि कैसे मूल्यांकन करते हैं, हमारे लिए आलोचनाओं का महत्व  है या हम कलाकार के तर्क को अधिक उपयुक्त मानते हैं. 
४५ मिनट के साथ ने इस भद्र महिला को हमसे जोड़ ही तो दिया था, इसकी बातें कितनी भली लग रही थीं, तथ्यों को प्रगट कर मौन हो जाती और यह कहना नहीं भूलती… "इट्स अप टू यु हाउ यू जज़!"
गोल्डन हॉल में सामने वाली मुख्य दीवार के पास खड़े हुए यह स्वर्ण कारीगरियों के बारे में बता रही है, अर्थ खुल रहे हैं हमारे समक्ष और हम अभिभूत हुए जा रहे हैं. 
दीवार पर मुख्य आकृति मैलरेन सरोवर की देवी की है. यह कलाकार की विशुद्ध कल्पना है लेकिन कितनी सुन्दर कल्पना है! हमें माँ गंगा और यमुना मैया  याद हो आये. ये कैसी विरल समानता देखने को मिली, मन अभिभूत हो गया कि  हमारी तरह  इनकी संस्कृति में भी नदियों सरोवरों को माँ व देवी कहते हैं!
लेक मैलारेन की देवी की यह कलाकृति शांतिप्रिय स्वीडन का प्रतिनिधित्व करती है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसका अस्तित्व में आना इस सोच के तहत हुआ कि यह शान्ति की देवी पूरब और पश्चिम का आवाहन कर सबको एक विश्व का नागरिक होने का भान कराते हुए शान्ति की स्थापना का प्रतीक बनेगी!
देवी के दोनों ओर क्रमशः पश्चिम और पूरब का प्रतिनिधित्व करती आकृतिया हैं और बीच में लेक मैलारेन की देवी स्वयं समंव्यय का प्रतीक बन कर विराजमान हैं!
दाहिने तरफ हाथी घोड़े पालकी द्वारा पूरब को दर्शाया गया है और बायीं तरफ पश्चिम के प्रतीक हैं जैसे कि स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी व् अन्य टावर्स! ऊपर की तस्वीर में गाइड बायीं तरफ ही खड़ी है! 
ये तो तथ्य हो गए, अब बात करें आलोचना की. कहते हैं उस दौरान इस बात को लेकर काफी विवाद हुआ कि देवी सुन्दरता के प्रतिमानों पर खरी नहीं उतरतीं, उनकी आखें, उनकी हथेलियाँ और उनके पाँव स्त्रियोचित नहीं हैं, सौन्दर्य के प्रचलित मुहावरों को नकारती यह तस्वीर लोगों को स्वीकार्य नहीं थी. आखिर कैसे वे सुन्दर से देश के प्रतिनिधि स्वरुप एक "अजीब" सी देवी को स्वीकार लेते जो उनके सौन्दर्य की परिभाषा से मेल न खाती हो!
कलाकार ने आखिर कुछ सोच कर ही तो यह स्वरुप दिया होगा, उनके पास तर्क थे अपनी कला के पक्ष में और कालांतर में माने भी गए. आलोचना के रास्ते अब भी खुले हैं और तर्क भी अपनी जगह खड़े हैं, आप इन्टरप्रेट करने को स्वतंत्र हैं!
कलाकार का कहना था कि देवी की आँख का बड़ा होना इस बात का प्रतीक है कि वह नज़र रख सकें स्थितियों परिस्थितियों पर. सभी बातों पर नज़र रखने के प्रतीक के रूप में आँखों को बड़ा होना ही होगा, नज़र पैनी होनी ही होगी अन्यथा वे कैसे स्थिति को संज्ञान में लेते हुए विपरीत परिस्थितियों में सबकी रक्षा कर पायेंगी! हाथ और पैरों का अपेक्षाकृत बेढ़ब होना भी यूँ तर्क द्वारा सिद्ध किया गया कि देवी की सुन्दरता व सार्थकता छुई मुई सी कोई कन्या होने में नहीं है. उनका उद्देश्य और उनकी ताकत ही उनका सौन्दर्य है, विकसित हो वह नज़र जो उनका सौन्दर्य देख सके! मस्तक पर सात लटों सा कुछ बना हुआ है, आलोचना का एक विषय यह भी था कि ये बाल सा कुछ यूँ दर्शाना देवी को और कुरूप बना रहा है. कलाकार ने अपना पक्ष रखा, दरअसल ये बालों को नहीं बल्कि लेक मैलारेन की धाराओं को दर्शाने का प्रयास है. सरोवर का सौन्दर्य तो उसकी धारा ही है न, तो देवी की आकृति बिना अपनी धारा के कैसे सम्पूर्ण हो सकती है!
पूरा गोल्डन हॉल जगमगा रहा है. दीवारों पर इतिहास के प्रतिमान अंकित हैं, शक्तिशाली स्त्री पुरुषों की आकृतियाँ हैं क्रमशः पुराने समय से प्रारंभ हो कर वर्तमान समय के प्रतिनिधियों तक का अंकन है. 
इस हॉल का नामकरण १८ लाख से अधिक टाइल्स से बने स्वर्णिम सजावटी मोज़ाइक के नाम पर हुआ है Gyllene Salen अर्थात गोल्डन हॉल. मोज़ाइक में स्वीडिश इतिहास के  रूपांकनों का अद्भुत प्रयोग है.
सभी यात्री तथ्यों को गुनते हुए, गाइड को सुनते हुए इस दिव्य हॉल की गरिमा से अभिभूत लग रहे थे, तस्वीरें लेने का उत्साह था, देवी के प्रति आदर भरा अनुग्रह था और विश्वबंधुत्व की भावना के प्रति प्रतिबद्धता थी. सभी कारक मिल कर सभी के मुख पर एक शान्ति व संतोष का भाव ला रहे थे और कदम गाइड के पीछे पीछे चल पड़ते थे…
मुख्य गोल्डन हॉल भ्रमण के बाद अब भी बहुत कुछ शेष है… टावर, परिसर व काउंसिल हॉल! लेकिन अभी रुकना होगा, घड़ी पर नज़र गयी, नौ बजने को हैं! आज खिड़की से धूप ने आकर टोका नहीं तो हम इसी भ्रम में हैं कि ६-७ बजते होंगे! आज बादल घिरे हुए हैं आसमान पर ठीक वैसे ही जैसे उस दिन थे जब हम सिटी हॉल गए हुए थे. 
उस दिन सिटी हॉल से ली गयी एक तस्वीर… 
बादलों का जमघट है, वहीँ कहीं पीछे चमकता सूरज है, डोलती जीवन नैया है और नैया से खेलती लहरें हैं….! 

"मैं आकाश देखता हूँ..."

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बहुत देर से आसमान पर नज़रें टिकाये बैठे थे, चीज़ें जैसी हैं वैसी क्यूँ हैं, क्यूँ यूँ ही बस उठ कर कोई चल देता है जीवन के बीच से, समय से पहले क्यूँ बुझ जाती है बाती? इतनी सारी उलझनें है, इतने सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, मन इतना व्यथित और अव्यवस्थित है कि कुछ भी कह पाना संभव नहीं! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि नियति से कोई चूक हो गयी हो और इस बात का एहसास होते ही वह भूल सुधार करेगी और जो उसने छीना है जगत से, बिना क्षण खोये उसे लौटा देगी… वह फिर रच सकेगा, फिर हंस सकेगा फिर लिख सकेगा और अपनी कही बात दोहराते हुए हमें आश्वस्त करते हुए कह सकेगा : : "विदा....... शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है", मैं कैसे विदा हो जाऊं, लो आ गया वापस….!

उन्होंने कहा भी तो था: : 
"…बोल ही तो नहीं पाता मैं 
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नहीं है 
यह पृथ्वी छोड़ कर..."
फिर क्यूँ चले गए यूँ अचानक?

व्यथित मन उलझा हुआ था, आसमान पर बादल थे, मेरी आखें वहीँ थीं दूर तकती सूने अम्बर को, कि आसमान मानों कह उठा- गलत हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए था वक़्त के होठों पर एक प्रेमगीतसजाने वाले को यूँ नहीं जाना था! 

एक गलत का निसान है न वहाँ अम्बर पर और वहीँ एक पंछी उड़ा जा रहा है! 
***
आज उनकी यहकविता पढ़ते हुए आँखें नम हैं, मेरी खिड़की से नज़र आ रहा आकाश उदास और परेशान है.… जहां भी हैं क्या आज भी वे देख रहे हैं आकाश की ओर जैसा उन्होंने अपनी कविता में कहा है : :
"मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से . "
***
कितने समय से यदा कदा उनके वाल पर जाते थे, इसी २६ अगस्त की बात है उनका फ्रेंड रिक्वेस्ट आया फ़ेसबुक पर, मैंने उसी क्षण एक्सेप्ट किया… फिर उनका मेसेज: :
Deepak Arora
मैत्री के स्वीकार पर आभार लिखते कुछ अटपटा सा लगता है . मेरे ख्याल से आप एक छोटे शुक्रिये से काम चला लेंगी .
शुक्रिया 
8/26, 7:29pm
Anupama Pathak
Pranaam!
It's all my pleasure, Sir!
Friend request bhejne ke liye Shukriya:)
8/26, 7:29pm
Deepak Arora
:)
इतना सा परिचय था बस! भले जुड़ना महज़ कुछ दिनों पहले हुआ पर उन्हें पढ़ा तो हमने निरंतर ही. फेसबुक पर भी, प्रथम पुरुषपर भी. जिस दिन उनका ब्लॉग अस्तित्व में आया था ८ अप्रैल २०१२, उस दिन से उनकी कविताओं से परिचय है. अभी कल ही की तो बात है उनकी वाल से उनकी कविता शेयर की थी:
"कवि एक अजन्मे बच्चे की मौत पर रोता ,
अकेला खड़ा एक थका आदमी है ."
कितना सच कह गए वे: 
"आदम को सिरज लेने के बाद उस के कंधे पर हाथ रखते ईश्वर ने कहा," देखो! जंकयार्ड में दुःख के छोटे छोटे टुकड़े पड़े हैं. जाओ अपना दुःख चुनो कि बिना दुख के यहाँ से कोई नहीं जाता."
आदमी मुस्कुराया .....................और अपनी समझ से उसने सबसे छोटा चुना .
यह स्मृति थी ."
...................दीपक अरोड़ा
***
क्या क्या लिखें, उनकी कितनी बातें कोट करें, कितनी कविताओं को याद करें…
प्रथम पुरुष की पहली पोस्टमें कविता कहती है… 
"सच कहूं ,तो
आप इमानदार नहीं हैं ,
अपनी नींद के साथ भी ,
और जीना चाहते हैं ,
विंडचाइम और कालबेल ,
की घंटियों के बीच ही कहीं ,
अपने बचे हुए समय को ,
गहरी काली रातों में ,
सायं-सायं करती तेज़ हवा चलती है ,
और हवा से हिलती ,
विंडचाइम की पाइपें,
एक दुसरे से टकराती हैं ,
सर्द रातों में भी आप ,
दरवाज़ा खोल कर देखते हैं ,
जहाँ किसी ने ,
अब होना ही नहीं है |"
-दीपक अरोड़ा 

"जहाँ किसी ने , अब होना ही नहीं है |" गूँज रहा है मानों शून्य में कहीं और अक्षर धीमें से कह रहे हैं-कोई कहीं नहीं जाता, सब यहीं रहते हैं अपने अपनों के बीच… जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी!
प्रभु उनके परिवार को और हमें यह दुःख सहने की शक्ति दें.… 
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि!


बादलों से पटा अम्बर!

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खूब बारिश हो रही है, आसमान पूरा काला है. इतना तो नहीं बरसता था यहाँ का आसमान.... कभी नहीं देखा इन दो तीन वर्षों में यूँ जब तब रोते हुए बादलों को. फुहारें आत थी, चली जाती थीं. एक झोंका आया, धरती तर हुई और पुनः धूप खिल आई. लेकिन इस बार तो घिरा ही रहता है गगन, काले बादल मंडराते ही रहते हैं और बरसता रहता है अम्बर. जिस सप्ताह अनामिका यहाँ आई हुई थी, यही हाल था, हम लोगों का घूमना बारिश ने कुछ हद तक तो नियंत्रित कर ही दिया था.
***
सुबह काले बादलों ने डरा ही दिया था, फिर हमने हिम्मत की और निकल पड़े नेतुरहिस्तोरीसका म्यूजियमकी ओर. आज यहीं हमारी क्लास होनी थी सुबह नौ बजे से. सात बजे निकल लिए, क्या पता इस बारिश में कहाँ फंस जाएँ, सो समय से पहुँचने के लिए थोड़ा समय लेकर निकलना ही ठीक रहेगा… बस और फिर क्रमशः दो ट्रेन बदल कर पहुंचे हम भींगते-बचते गंतव्य तक… शायद ऐसी बारिश में पहली बार निकलना हुआ यूँ, क्लास तो बहुत समय से जा रहे हैं, स्नो फॉल  में निकले हैं पर ऐसी बारिश में छाता ताने कभी निकलना पड़ा हो, याद नहीं…!
दिन भर यूँ ही बीता लेक्चर सुनते हुए. क्लास समाप्त होने पर भी आसमान का रूप वही था, बारिश थम गयी थी पर बरसने की सम्भावना बनाने में काले बादल लगे हुए थे. आसमान बरस रहा था, मेरे भीतर भी एक उदासी सी छाई थी जो आखों से बरसना चाहती थी, कुछ बूंदा-बांदी हुई भी फिर हमने अपने आप को इधर उधर उलझा लिया. 
***
आज की भोर भी कुछ कुछ कल जैसी ही है, बस काला नहीं है अम्बर आज… कुछ किरणों ने मन से चित्रकारी की है आकाश के कैनवास पर. आज भी बरसना ही है बादलों को… सो उसी की तैयारी में व्यस्त दिख रहा है बादलों से पटा अम्बर!
जीवन यात्रा में कितने ही पड़ाव हैं, कितनी ही यात्राएं हैं, कितने ही सपने हैं, कितनी ही योजनायें हैं, कितनी तो शिकायतें हैं जीवन से…. आखिर मोल क्या है इन सबका? बरसते माहौल में बूंदों का मिट जाना दिख ही कहाँ पाता है, कि खुद को ज़रा सा नियंत्रित करने की सम्भावना जन्मे… अपने मन के अंधेरों की खातिर कोई दिया जला पाएं… ज़िन्दगी तो यह अवसर देने से रही, स्वयं ही कोशिश करनी है. 
कविता खो गयी सी लगती है, भ्रमण की कोई कहानी लिखने का मन नहीं है और फिर भी लिखे जा रहे हैं जाने क्या क्या…!


ज़िन्दगी!
एक दिन तू
मौत में ही तो
बदलने वाली है 


तेरा कोई भरोसा नहीं
आज है लबालब भरी हुई
अगले ही क्षण तू
रीत गयी प्याली है 


हम तो मात्र भ्रम हैं
जिन्हें देवता ने खेल खेल में रचा है
तू बता, ज़िन्दगी!
तेरे पास कितना जीवन बचा है 


कब कौन अपना सामान बाँध रहा है
तुझे तो हो जाता होगा न आभास
क्यूँ नहीं आगाह कर देती हमें
क्यूँ मौत के बाद बच जाता है केवल संत्रास 


तू अनमनी सी क्यूँ खड़ी है
कुछ तो बोल रे!
हम कुछ से कुछ कहे जा रहे हैं
तू इन कड़वाहटों में कोई मिश्री तो घोल रे! 


क्या कहती ज़िन्दगी?
सुनती रही चुपचाप
पास आई गले लगा लिया
हर लिया सकल ताप 


"ज़िन्दगी हूँ
सच है एक रोज मौत में बदलने वाली हूँ
आज भरी हुई तो कल
रीत गयी प्याली हूँ 


प्रश्नों के झांसे में
मत आया कर
मैं अविरल बहती हूँ
तू भी संग बह जाया कर 


क्षणिकता का सौन्दर्य ही
मेरी थाती है
मैं जब तक संग हूँ, संग हूँ
विलुप्त होने के बाद भी मेरी ही कीर्ति मुस्काती है 


मौत का मेरे आगे
वजूद ही नहीं है
जब तक है तब तक तो है ही
न होने पर भी ज़िन्दगी ही हर कहीं है!"

***

सभी को एक रोज़ स्मृतिमात्र बनकर ही तो रह जाना है... एकमात्र सत्य तो यही है. कुछ दिन हुए मेरे फूफा जी नहीं रहे. उनका अचानक आँखें मुंद लेना बहुत कष्ट देता है, वो सौम्य सी छवि आँखों के सामने आ जाती है बार बार. बुआ से बहुत हिम्मत करके एक दिन बात की… हँसते खेलते कितनी बातें करते थे बुआ से, ज़िन्दगी ने ऐसी करवट ली कि हंसी ही खो गयी उनकी… क्या बात हो, बातें होती हैं तो एक सन्नाटा होता है बीच में और हमारी आँखें कोई शून्य निहारती है… 
पर क्या किया जाए, सच्चे लोग जाते भी तो ऐसे ही हैं, बिना किसी आहट के, किसी एक दिन निद्रा देवी की गोद में लेटे हुए चिर निद्रा में लीन हो जाते हैं, तैयारी क्या करनी…  राम नाम का घट तो बूँद बूँद जीवन भर भरा ही होता है उनके हृदय ने, जब आये काल…  ले जाए, उन्हें क्या!
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति!


यादों के पथ पर चलते हुए...!

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नीरव शान्ति है… ये कहाँ हैं हम. दो तारीखें अंकित है हर एक ठौर, एक तारीख है जन्म की और दूसरी तारीख है मृत्यु की... बीच में एक छोटा सी लाईन सी खिंची है… हाँ! हाईफन कहते हैं न इसे. ये दो तारीखों के बीच के अंतराल को इंगित करता है न, दो तारीखों को जोड़ता है न शायद…. पहली तारीख जन्म की दूसरी इस जग से प्रस्थान की और बीच में खिंची लाईन जीवन का ही तो प्रतिनिधित्व करती है न. हर एक कब्र पर दो तारीखों के बीच सिमटे जीवन को पढ़ रहे थे हम. इतनी सी ही तो कहानी है, पहले भी अप्रकट बाद में भी अप्रकट बस बीच में थोड़ा सा प्राकट्य और वही प्राकट्य जीवन की सम्भावना ढूंढती यात्रा या फिर स्वयं जीवन... कौन जाने!
एक दिन गए थे वहाँ जहां जीवन विश्रामरत है, चिरनिद्रा में लीन है वातावरण और जाग रहे हैं धरती अम्बर. सूरज का प्रकाश वैसे ही आता है जैसे वह साँस ले रहे जीवन को स्पंदित करने आता, धरती वैसे ही हरी घास की चादर ओढ़े है जैसी वह जीवन से भरी किसी शाम को ओढ़ इठला रही होती…
हम बहुत समय से लिखना चाह रहे हैं इस नीरवता को, उस धुन को जो बज उठी थी भीतर, उन पेड़ों की छाँव को भी जिनसे रौनक है वहाँ और खिली धुप को भी लिख जाना है… जो मैंने खिली देखी है वहाँ!
कविताओं के अनुवाद के विषय में लिखते हुए उस शाम के बारे में लिख जाने का जिक्र भी किया था, वहाँ की एक तस्वीर भी चिपकाई थीउस पोस्टमें फिर इतने दिन बीत गये… तीन दिनों से दो एक पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं और यहाँ भी कलम अटक ही रही है… मन नहीं सौंप पा रहा कलम को वे भाव जो लिख जाने को गति देते हैं, मानों रोक दे रहा हो यह कहकर कि रुको अभी, अभी तुम्हारे कलम में वो बात नहीं कि उस नीरवता और उस दिव्यता को लिख सके जो महसूस की है तुमने और जिसे महसूस करने के लिए पुनः उद्विग्न हो तुम!
***
तसवीरें देख रहे थे… इस तस्वीर पर अटक कर रह गये… गलती से की गयी यह क्लीक जाने कैसे कितना कुछ अदेखा अबोला समेटे हुए है गलती से ही! कभी कभी यूँ ही बिना हमारे किसी प्रयास के ऐसा कुछ घटित हो जाता है जो कितना कुछ कह जाता है, जीवन को कुछ और समृद्ध कर जाता है…! 
चाँद सितारे सूरज जिनके संगी साथी हों,  भला क्या अभाव हो उस धरा को, अगर हुआ भी तो ऐसा सान्निध्य सारी पीर हर लेगा. इस छवि में ऐसा लगता है जैसे किरणों संग सूरज भी उतरने को बेताब हो धरती पर फिर जैसे अचानक सूरज को यह एहसास हुआ, कि उसका ताप धरती को भस्म कर देगा, कि एक दूरी ज़रूरी है. धरा से उसका एक निश्चित दूरी पर होना ही तो धरा का जीवन है; इतना एहसास होना था कि सूरज ने उसी क्षण मानों चाँद का रूप धर लिया…! सूरज से रोशनी उधार लेकर चमकने वाले चाँद ने जैसे धरती पर अपनी शीतलता बिखेर कर अबतक के सूरज द्वारा किये गए सारे एहसानों का मोल चुका दिया हो. 
जाने आँखें क्या देखती हैं, मन क्या सोचता है, सभी बातों में तुक हो ज़रूरी तो नहीं, न इस तस्वीर का ही कोई तुक है न इस तस्वीर के विषय में मेरी बातों का ही पर हमें तुक से क्या लेना देना! ज़िन्दगी भी तो कई बार बेतुकी ही लगती है… अकथ अबूझ पहेली सी…!
उस दिन यादों के पथ पर चलते हुए याद शहर की गरिमा से मन भरा भरा सा हो गया, अब भी भरा है, आँखें नम हो जाती हैं यूँ ही कई बार. याद शहर की कोई बात, यादों के आकाश का कोई तारा झिलमिला जाता है और मन आद्र हो जाता है, आँखें ऐसे में कैसे न हो नम.
आज बस यूँ ही तस्वीरें और कुछ भाव की लकीरें, इस जगह के विषय में तथ्यगत बातें फिर कभी! अभी तो बस यूँ ही टहल लिया मन ही मन बाहर से ही, फिर प्रवेश करते हैं इस द्वार से तो लिखते हैं याद शहर की कोई कहानी अगली बार!
ये एक और जगह थी, सीढ़ियों से होते हुए पहुंचे थे यहाँ, यादों का बाग़ है यह… अपने स्वजनों को हमेशा के लिए विदा करने के बाद यहाँ उनकी याद को जीते हैं लोग. फूल खिले हुए हैं मानों कह रहे हों मौत भी जीवन का ही शंखनाद है, कि कोई कहीं नहीं जाता… हम यहीं के हैं यहीं रहते हैं हमेशा कभी शरीर में तो कभी आत्मा के रूप में याद के अम्बर पर!
बीच बाग में ये आकृतियाँ थीं, स्वीडिश सन्दर्भ चाहे जो हो, हमें तो कान्हा ही नज़र आ रहे हैं बांसुरी बजाते हुए एक ओर… 
इस चित्र में शायद स्पष्ट नहीं है पर कान्हा के अलावा बांसुरी और कौन बजा सकता है, जीवन और मौत की संधि बेला का एहसास कराते इस  माहौल ने हमें तो गीता के श्लोकों के बाग तक अनायास ही पहुंचा दिया… मन में गूँज रहे थे श्लोक और वहीँ कृष्ण बांसुरी बजा रहे थे…  
वासांसी जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाती नरोपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यनयानी संयाति नवानि देही।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ श्लोक २२)

उनकी लीला वे ही जाने…!
हमें इस पराये देश में भी अपनेपन की सुगंध बन कर मिल जाते हैं भगवान! उनकी कृपा है… सांस ले रहे हैं हम, उनकी इतनी कृपा हो कि ये सांसें इस लय में चले कि उनके बन्दों के काम आ सकें, किसी के लिए जीवन रहते हम छाँव बन सकें, और क्या चाहिए!
ॐ शरणागति शरणागति शरणागति!

सुन रही हो न, ज़िन्दगी!

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यादों के पथ पर चलते हुएबहुत कुछ समेटा था मन में, उन्हें लिख जाने की इच्छा तो थी पर लिख पाना इतने समय तक संभव न हो सका. अब जैसे कलम को कोई जल्दी है, वह मन से अपने तार जोड़ कर अपना काम करने में व्यस्त है, उसे इससे कोई मतलब नहीं कि अभी मेरी परीक्षा नजदीक है और जो लिखा पढ़ा जाना चाहिए वह हो केवल "सीखने के सिद्धांत और परिपेक्ष्य" (Teorier om Lärande). बेहद दिलचस्प है यह छोटा सा मनोविज्ञान से सम्बंधित कोर्स भी, पर इसके बारे में फिर कभी! अभी तो मन ने जो तार जोड़ लिए हैं कलम से तो लिख ही जायेगी यादों के आरामगाह की दास्तान…
नोर्रा बेग्राव्निंगप्लात्सेन (उत्तरी कब्रिस्तान) स्वीडन के सबसे बड़े कब्रिस्तानों में से एक है. यह स्टॉकहोम नगरपालिका द्वारा प्रबंधित है व सोलना नगरपालिका में स्थित साठ एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है. वर्ष १८१५ में स्टॉकहोम वासियों के लिए सार्वजनिक कब्रिस्तान का भूक्षेत्र आवंटित किया गया जिसे  बिशप योहान ओलोफ वैलिन द्वारा ९ जून १८२७ को खोला गया. जिनके द्वारा उद्घाटन हुआ, कालांतर में वह बिशप भी यहीं विश्रामरत हुए! आखिर एक दिन तो सबको छोड़ कर जाना ही है यह जग, अतिथि ही तो हैं हम इस संसार में, आतिथ्य पूरा हुआ नहीं कि यह संसार विदा कर देगा हमें, पथिक के हाथ में कुछ नहीं, बस सामान बाँधने की सहूलियत दे दे ज़िन्दगी यही बहुत है, जाते हुए शांति हो चेहरे पर… कठिन कितना भी हो, अलविदा कह दिया हो कायदे से अपने अपनों को फिर उड़े प्राण पखेरू! सुन रही हो न ज़िन्दगी… कहो तो इतना तो करोगी न? पूछ रहे हैं बड़े स्नेह से, ये जानते हुए भी कि अक्सर ऐसा नहीं ही करती हो तुम, यूँ ही उड़ जाना बिना किसी पूर्व नोटिस के… यही है पंछी की फितरत, यही है जीवन का सच!
ओह! फिर भावुक हो कर तथ्यों से भटक गये हम. हाँ, तो अब बात करते हैं ऊपर लगी तस्वीर में दिख रही कलाकृति की और ऐसी ही कई अन्य कलाकृतियों की जिनसे आबाद है यह आरामगाह! कई वास्तुकारों ने मिलकर इस कब्रिस्तान को डिजाईन किया है, कुछ नाम यूँ हैं: गुस्ताफ लिंड्ग्रेन, गुन्नार अस्प्लुन्द, सिगुर्द लेवेरेंत्ज़ और लार्स इसराइल वह्लमन. साथ मिलकर सभी वास्तुकारों ने इस कब्रगाह को अत्यंत प्रभावशाली एवं व्यापक सुविधाओं से लैस देश के महत्वपूर्ण कब्रगाह के रूप में विकसित किया. यहाँ कई मूर्तियाँ, नक्काशियां एवं अन्य अनन्य कलात्मक अलंकरण देखे जा सकते हैं, जिन्हें स्वीडन के प्रमुख शिल्पकारों ने बड़ी श्रद्धा से बनाया है. कार्ल एल्धऔर कार्ल मिल्ल्सप्रमुख शिल्पकारों में से थे.
वृहद् क्षेत्र में फैला कब्रिस्तान अपने आप में एक शहर है, कई गलियों मुहल्लों वाला एक छोटा शहर. नए क्षेत्र और पुराने क्षेत्र आसानी से अलग दिख जाते हैं, काल के बदलते चक्र में स्थान का चरित्र भी तो बदलता है… जैसा एक सदी पूर्व था, उससे बहुत भिन्न है नवीन सन्दर्भ तो वैसा ही अंतर विश्रामगाह में भी दिख पड़ता है. कब्रिस्तान में  एक यहूदी और एक कैथोलिक कब्रिस्तान भी है.
कहीं न कहीं समानता होते हुए भी हम अलग तो होते ही हैं देश धर्म के आधार पर तो मौत क्यूँ न दे हमें वो सहूलियत… हमें हमारी पहचान के साथ जीने की और मरने की सहूलियत! कितना व्यवस्थित है यह शहर, सभी अपने अपने कुटुम्बियों के साथ अपने अपने क्षेत्र में विश्रामरत हैं!
सबकी कब्र पर फूल खिले हैं, फूल नहीं तो दूब और हरी घास ने पूरा ख्याल रखा है फूल की कमी को पूरा करने का. ऐसा लग रहा है कि संतुष्ट हैं सभी, सभी बेचैनियों को विराम मिल गया है. एक निर्दोष बच्चे की तरह सो जाने के अप्रतिम सुख का आनंद ले रही हैं अनंत रूहें और काल अपनी गति से बढ़े चला जा रहा है… 
इस गति से उन्हें कोई लेना देना नहीं, वो समयातीत हो चुके हैं, उनकी साँसों ने अलविदा कह दिया है उन्हें उनकी कब्र पर लिखी अंतिम तारीख को… इस गति से हमें सरोकार है इसलिए इसका महत्त्व हमें समय रहते समझना ही होगा, अपने अपने अंतिम तारीखों तक के सफ़र में ये हम ही होंगे जिन्हें अपनी दिशा तय करनी होगी, हमें स्वयं अपना दीपक बनना होगा अन्यथा ज़िन्दगी अपनी गति से चल कर कब भस्म हो जायेगी हमें पता ही कहाँ चलने वाला है!
हम न रहेंगे तब रह जायेंगे अक्षर ही. इन अक्षरों को सँवारने का विवेक दो और जिन कर्मों से अक्षर संवरते हैं उन कर्मों की ओर हमें ले चलो… इतना तो करोगी न, तुम पर लिखी हमारी किसी कविता ने अगर ज़रा सा भी तुम्हें छुआ है तो इतना ज़रूर करना! अपनी हो तुम, तुमसे नहीं तो किससे होगी हमें ऐसे दिव्य श्रेय की अपेक्षा… सुन रही हो न ज़िन्दगी? 
तथ्य लिखते हुए भावों में बह जाती है लेखनी, क्यूँ छोड़े वह ये अवसर… साथ होती है पर ज़िन्दगी से बात करने का अवसर रोज़ कहाँ मिलता है. कैसी अजीब सी बात है न, ज़िन्दगी पूरी सिद्दत के साथ बात करती भी है तो मृत्यु की नीरवता में, यही वो समय होता है जब हम अपने करीब होते हैं, अपने अपनों के करीब होते हैं, शोक में कोई विभेद नहीं होता, सब साथ रोते हैं, सब साथ होते हैं! एक बात कहें ज़िन्दगी? चलो मृत्यु की नीरवता से ये सबको साथ कर देने का ज़रा सा हुनर तुम भी सीख लो, साथ हंसने रोने की जो अकथ कहानी है वह थोड़ा सा तुम भी आत्मसात कर लो, इससे क्या होगा कि हम दुराव-छिपाव से दूर पारदर्शी होंगे, हमारी संवेदनाओं का रथ बिन पहियों का नहीं रह जायेगा. सुन रही हो न ज़िन्दगी, कुछ सीख भी लो अब…! हरी घास की चादर पर लेटे हुए गगन से बात करना तो तुम्हीं ने सीखाया है, तुम अभी हमें और भी कई बातें सीखाने वाली हो… न? हम आशा भरी नज़रों से तुम्हें देख रहे हैं! सुन रही हो न ज़िन्दगी?
ज़िन्दगी को एड्रेस करते हुए सारी बातें स्वयं को ही समझाई जा रही हैं, कलम ये खूब समझती है और स्याही भी खूब पहचानती है हमें, वो हर लिखने वाले को पहचानती है… वो जानती है कि हर लेखन वस्तुतः अपनी बेचैनियों से त्राण पाने के लिए ही होता है, ये और बात है कि अस्तित्व में आने के बाद वो कई और लोगों का भी संबल बन जाए, कोई और भी उनमें अपने मन की बेचैनी देख ले… ऐसा हुआ तो इसका सारा श्रेय शब्दों को जाता है, लिखने वाला केवल माध्यम ही तो है…!
***
अभी भी बहुत सी बातें शेष हैं, कई तसवीरें शेष हैं, फिर लौटते हैं कलम से मौन और मन को जोड़ इधर… कि अभी कुछ ज़िन्दगी भी तो शेष है…!

तितली उड़ रही है बेपरवाह!

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जीवन एक लम्बा रस्ता है, अनेकानेक संकेतों से युक्त एक ऐसी राह जिसपर चलते हुए हम अपनी अभीष्ट मंजिल तक आसानी से पहुँच सकते हैं, बस मार्ग में मिल रहे संकेतों को ठीक से पढ़ना है! अब संकेत तो संकेत होते हैं, उनके गूढ़ कथ्य को समझने का धैर्य होना चाहिए राही के पास. प्रकृति संकेतों में ही तो बात करती है हमसे, जिसने बूझ ली उसकी भाषा उसे आनंद ही आनंद कि मंजिल का पता तो हमेशा संकेतों में ही मिलता है!
ये लिखते हुए, तस्वीरें छाँटते हुए, हम देख रहे थे कि अम्बर झाँक रहा है हमारी खिड़की से भीतर…
कुछ समय पहले ही तो तारे थे  अम्बर पर, अभी अभी बादलों के ऊपर थोड़ी सी नारंगी रोशनी बिखरी, पंछियों का झुंड यहाँ से वहाँ करता हुआ दिखा और अभी इस क्षण देखते हैं तो उजले काले का कोई मिलाजुला रूप धरे अम्बर बादल की चादर ओढ़े सो रहा है, आँख लग गई है उसकी शायद! पल पल बदलते रूप का वर्णन असंभव है, अभी एक सिरा पकड़ते हैं कि पूरा रूप ही परिवर्तित…  ये आसमान बिलकुल मन जैसा है, छवि इसकी घड़ी  भर भी तो स्थिर नहीं रहती!
मन का आकाश भी तो यूँ ही सुख दुःख के बादलों से आच्छादित होता है… और अम्बर की ओर उड़ते आस विश्वास के खग से आबाद! सब संकेत ही हैं, बरस जाने वाले बादल भी, बूंदों का मिट जाना भी, और उन्हीं बूंदों से पुनः बादलों का सृजन भी. सब करते हैं इंगित एकमात्र जीवन की ओर. मिटते हुए भी जो होता है मेघ के होठों पर, वह जीवनगीत ही तो होता है! 
इस पथ पर चलते हुए जीवन जैसे साथ चल रहा था, मृत्यु की नीरवता में कैसे छोड़ देता हमें वो अकेला!
बाहें फैलाये सबका स्वागत है! मौत तू भी प्रतीक्षित ही है, ये बाहें तुम्हारे लिए भी खुली हुई हैं, जब आओगी, स्वागत है! कुछ ऐसा ही तो कह रही है यह आकृति. जीवन इस तरह जिया गया हो कि कोई संकोच न हो, आये जिस घड़ी मौत गले लगा ले, उसका स्वागत है. एक उज्जवल जीवन के मुख पर ही मौत का स्वागत करते हुए शांति का भाव परिलक्षित हो सकता है, वरना अधिकांशतः तो रोते-धोते, घसीटते, 'न जाने' की जिद करते हुए ही हम मौत की ओर बढ़ते हैं! स्कूल न जाने की जिद कितनी भी कर ले कोई, अभिभावक भेज ही देते हैं बहला फुसला कर! वैसे ही तो न जाने की कोई जिद काम नहीं आती, नियति ले ही जाती है बहला कर. जब जाना ही है, फिर क्या! मौत का ख्याल हर क्षण रहे तो जीवन संयत हो जाएगा. क्षणिकता का बोध रहे तो जाने-अनजाने हो रहे कितने ही पाप करने से हम बच जायेंगे… संचय का मोह नहीं रहेगा और संचय की मंशा से किये गए समस्त तिकड़म से भी हम निजात पा जायेंगे जीवन रहते ही.… नहीं?

यह है नोर्रा कपेल्लेत जिसका निर्माण वर्ष १९०९ में हुआ. इस ईमारत के डिज़ाइनर थे गुस्ताव लिन्द्ग्रेन,  इस ईमारत का निर्माण १८८७ में निर्मित स्वीडन के पहले श्मशान के स्थान पर नोर्रा बेग्राव्निंगप्लात्सेनमें किया गया. यहाँ दाह संस्कार की सुविधा उपलब्द्ध थी. १९३१ तक स्टॉक होम क्षेत्र में इस सुविधा से युक्त यह एकमात्र श्मशान था! १९८९ में श्मशान बंद कर दिया गया और अब इस ईमारत को उत्तरी चैपल के नाम से जाना जाता है. प्रार्थनास्थल के रूप में प्रयुक्त यह ईमारत बारोकशैली में बनायी गयी है! गगनचुम्बी गुम्बद और ताज मानों प्रार्थना के स्वर किसी दूसरी दुनिया तक पहुँचाने को उद्धत खड़े है और खड़े रहेंगे दिगदिगंत तक!
जिस रस्ते गए थे उसी रस्ते से बाहर निकल आये, बाहर पास के क्षेत्र में भी वही निर्जनता थी. जंगल है, पेड़ हैं, घास है, एक खाली बेंच है और उड़ती भागती कुछ एक तितलियाँ! तितलियों में उमंग है जीवन के प्रति… भले ही वो नियति के समक्ष उतनी ही असहाय और निरुपाय है जितने कि हम हैं. उसने अपने मसले जाने की चिंता को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया है तभी तो वो उड़ रही है बेपरवाह! उन बेपरवाह तितलियों के रंग नहीं कैद हो पाए क्लीक में, होते भी कैसे? रंग तो महसूस करने की चीज़ है… उमंग तो जीने की चीज़ है, उसे देखा या छुआ कहाँ जा सकता है! 
***
इस कब्रगाह में स्वीडन की महान हस्तियाँ विश्रामरत हैं. नोबेल पुरस्कार के प्रणेता अल्फ्रेड नोबेल की कब्र से हो कर गुजरते हुए सिटी हॉलपर लिखे गए आलेख याद हो आये, अभी एक कड़ी लिखनी शेष ही है, वह लिख जाए फिर नोबेल पुरष्कारों के प्रणेता के विषय में भी विस्तार से लिखेंगे… 
अभी याद हो आई है तो अल्फ्रेड नोबल से सम्बंधित नोबेल पुरष्कार के प्रारंभ की दिलचस्प कहानी लिख जाते हैं यहीं::
हुआ यूँ कि १८८८ में कानका दौरा करते वक़्त अल्फ्रेड के भाई लुडविग की मृत्यु हो गयी और एक फ़्रांसिसी अखबार ने गलती से अल्फ्रेड की निधन सूचना प्रकाशित कर दी. अखबार ने डायनामाइट के आविष्कार के लिए नोबेल की निंदा की थी. कहते हैं इस निंदा ने ही नोबेल को मृत्युपरांत एक बेहतर विरासत छोड़ने के लिए प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप नोबेल पुरष्कारों की स्थापना हुई! अखबार ने लिखा था- Le marchand de la mort est mort ("The merchant of death is dead") और यह भी कि "Dr. Alfred Nobel, who became rich by finding ways to kill more people faster than ever before, died yesterday."
अल्फ्रेड यह पढ़कर अत्यंत निराश हुए और चिन्तित हो उठे कि क्या यूँ याद रखा जायेगा उन्हें? तत्क्षण ही जीवन रहते कुछ ठोस कर जाने का शुभ संकल्प उदित हुआ उनके मन में और २७ नवम्बर १८९५ को उन्होंने  स्वीडिश नार्वेजियन क्लब में अपने अंतिम विल पर हस्ताक्षर किये और अपनी चल-अचल संपत्ति का मुख्य हिस्सा नोबेल प्राइजकी स्थापना हेतु दे दिया. बिना किसी राष्ट्रीयता के भेदभाव के दिए जाने वाला यह पुरष्कार नोबेल को सचमुच नोबल बना गया. 
अखबार में छपी एक गलत खबर ने एहसास करा दिए उसे जीवन के मायने, जब मृत्युपरांत इतनी निंदा  ही होनी है तो क्या है जीवन का हासिल? क्या है समृद्धि का मोल? इन्हीं मूलभूत प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए अल्फ्रेड ने तो जीवन के बाद जीने का एक रास्ता खोज लिया. 
समय रहते हम सबको यह एहसास हो, जैसे याद किये जाने की तमन्ना है, वैसा ही जीवन जियें हम!

एक ही समय पर दोनों बात होती है!

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लिख जाने पर सुकून मिलता है, कह जाने पर मन हल्का हो जाता है लेकिन एक वो भी बिंदु है जब इतना उद्विग्न होता है मन कि न लिखा जाता है न कुछ कह पाने की ही सम्भावना बनती है... बस महसूस हो सकती है हवा की तरह... कुछ उदासियाँ ऐसी भी होती हैं!


कारण ज्ञात भी होता है
और अज्ञात भी...
एक ही समय पर दोनों बात होती है,
एक ओर दिन खड़ा रहता है
सकुचाया सा...
और रात भी साथ होती है! 


दिन के पास ढ़ेरों काम हैं
रात अपनी है...
खुद अपने पास होने के ढ़ेरों पल देती है,
जीवन की पटरी पर
कोई जतन से लौट आये मन की रेल...
ये रात ही है जो हमें आने वाला कल देती है! 


वो जो एक चाँद है वहाँ पर
उसने नाव सा आकार लिया हुआ है...
कुछ क्षण में बादलों की लहर में ओझल हो जाएगा,
जाने किस राह पर है किस ठौर जाना है उसे
हमें पता है बीतते वक़्त के साथ...
उसके प्रति ये अनन्यता का भाव और प्रबल हो जाएगा! 


जो जोड़ती है डोर कहीं से
उसको देखने की जिद्द जाने देते हैं...
तर्क-वितर्क की यहीं तो मात होती है,
कारण ज्ञात भी होता है
और अज्ञात भी...
एक ही समय पर दोनों बात होती है!

दिन जब नहीं होता साथ, रात साथ होती है!

परिचय के मोती...!

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कई रातें जगे हुए बीतीं हैं
तुम्हारी कविताओं के साथ
कई हजार शब्द तुम्हारे
मेरे मन में उमड़ते घुमड़ते रहते हैं 


कितने ही आंसू साथ रोये हैं हम 


झांकना कभी बीते समय में फुर्सत से
तो जगमगा उठेंगे वो आंसू 


सच है अनायास ही होते हैं
कुछ प्रयास...
हम देख नहीं पायेंगे कभी
पूर्व निर्धारित घटनाक्रमों का आकाश... 


ये समय ही है जो हमें जोड़ता है,
फिर हमारा जुड़ाव समयातीत हो जाता है!
उबड़ खाबड़ जीवन की राहों में कोई विरला ऐसा होता है
जो हमारे लिए गीत हो जाता है!! 


मेरे मन में थी कहीं की कोई एक तीव्र प्रेरणा
जो त्वरित तुमसे जोड़ गयी 


और तेरी विराट नज़रों का रूख मेरी ओर मोड़ गयी 


ईश्वरीय सा कुछ जब यूँ घट जाता है
जीवन के प्रति स्नेह और प्रगाढ़ हो जाता है 


ये परिचय के मोती...
ये भावों के रजकण जरा चुन लें हम,
कहती रहे वाणी और भावविभोर सुन लें हम... ... ... !!

*****


आवाज़ को तरसते हुए जब कोई आवाज़ मिल जाए कहीं तो शब्द फिर मिलते नहीं...! बिन शब्दों के लिखते रहे, फिर प्रेरणा ने हाथ पकड़ कर लिखवाये शब्द और कहा- जोड़ कर सहेज लो, यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव की सुगंध तो इन पन्नों में होनी ही चाहिए...! सो बस ऐसे ही लिख गयी कविता... एक बहुत पुराने अनन्य मित्र के लिए. मित्रता शायद सदियों पुरानी हो, बीच में विस्मृत हो चली थी... फिर मिल गयी और अपने पूरे प्रताप के साथ खिल गयी! 

बस एक क्षण ठहर, ज़िन्दगी!

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जब शब्दों से ज्यादा
उनके बीच का
मौन बोलता हो...
जीवन का रहस्य
जब मन में
बेचैनी घोलता हो,
कोई एक भाषा मन की
तब मन में ही
मुखर होती है...
कह नहीं सकते
किसके प्रताप से
किसकी ज्योत प्रखर होती है! 


परस्पर होते हैं
कुछ आदर स्नेह के प्रतिमान...
कुछ भाव
एक से होते हैं,
मिलता है संबल
जाने कहाँ से दृगों को...
कुछ मन को छू जाता है
और हम नयन भिगोंते हैं!


नम आँखों से
फिर एक प्रार्थना
महकती है...
ईश्वर सी ही
कोई अनन्य छवि
झलकती है,
और घुटनों पर बैठी आत्मा
हाथ जोड़े
लीन हो जाती है
प्रार्थना में शब्द नहीं होते
कहते हैं,
शब्दों से प्रार्थना क्षीण हो जाती है! 


वो सब सुनता है
मौन भी शब्द भी...
प्रभु की कृपा करती है
हमें भावविभोर भी और स्तब्ध भी,
उसकी लीला
वो ही जाने...
इंसान हैं हम
बस भावों से ही जाएँ पहचाने!



इतना ही परिचय हो अपना
इतनी ही हो
अपनी बिसात...
आज सुबह सुनहरी दी है प्रभु!
ऐसे ही देना
कल का भी प्रभात,
शब्द बोले
और दो शब्द के बीच का
मौन भी बोले...
बस एक क्षण
ठहर, ज़िन्दगी!
हम ख़ुशी ख़ुशी आज रो लें... ... ... !!




शब्द सेतु!

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बहुत उदास है मन... धीरे धीरे सुबह हो रही है... आसमान में बादलों का जमघट है... वही कहीं थोड़ी लाली भी है...! क्या है अम्बर के मन में? आज वह सूरज के साथ उगने वाला है या बादलों के पीछे छुपे हुए वहीँ से हमारी बेचैनियों को तकने वाला है...
रोते हुए लिखो तो ये नहीं समझ आता कि शब्द हैं या आंसू जो बरस रहे हैं पन्ने पर... जो भी हो, अब बरसना है तो बरसेगा ही न अम्बर...!
हर सुबह एक सी नहीं होती... एक सा नहीं होता हर प्रभात... कुछ तो होता है जो हर क्षण बदलता है और हम उसे कभी नहीं समझ पाते हैं, न ही हमारी दृष्टि कभी उस हो रहे परिवर्तन तक पहुँच पाती है... मन की दुनिया अजीब ही है!
बस हृदय कह उठता है... प्रार्थना जैसा ही कुछ कि बदल रहे हर क्षण में कुछ एक श्रद्धा विश्वास के प्रतिमान तो हों जो कभी न बदलें... जाना जरूरी हो अगर तो अच्छा क्षण एक पल ठहर यह कह कर भी तो जा सकता है न... कि घबराना मत, जा कर आता हूँ, जल्द ही! पर ऐसा कहाँ होता है... वो कह कर नहीं जाता, कह कर आया भी कब था...? जब आना है आएगा जब जाना है जाएगा, उसकी मर्जी... हमारी तो नियति बस इंतज़ार ही है न...!

सूरज के उगने से पहले
कितने कितने रूप बदलता है अम्बर
काश! हम वो सारे रंग
समेट पाते अपने आँचल में
तो, दिखाते तुम्हें
कैसा होता है क्षितिज पर रंगों का संसार
समझ पाते फिर तुम भावों का पारावार!


बरसने से पहले
कितना धुंधलापन छाता है
आँखों का पानी ही है न
आंसू जो कहलाता है
खरा सा कोई रंग फिर नयनों में मुस्काता है
काश! देख पाते तुम वो धार
समझ पाते फिर तुम भावों का पारावार!



हमने देखा है जीवन में
जीवन को जीवन से जुदा होते
रोते हैं हम भले ही
पर नहीं देख सकते हम तुम्हें रोते
एक सहज सी मुस्कान खिली हो तट के उस पार
काश! समझ पाते तुम इन बातों का सार
समझ पाते फिर तुम भावों का पारावार!

***

आज लिखना कुछ नहीं था... या शायद कुछ और लिखना था... पर लिख गयी आसमान की रंगत कुछ यूँ, तो सहेज ली जाए यहाँ... कि जब पहुंचना संभव न हो... तो ये शब्द ही सेतु बनते हैं... ... ... !!

शून्य से... शून्य तक!

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विस्मित हो न?
आखिर क्या नाता है...
ये है क्या?
जो जोड़ता है हमें...
हमारे बीच...
कितना "वाचाल"है न "मौन"!


शब्दों में ये आत्मीयता घोलता है कौन...!


विस्मय तो हमें भी होता है
हमारा मन भी तर्क वितर्कों में खोता है


फिर कोई तुम्हारी ही भेजी नमी...
मेरी आँखों में चमक जाती है,
जो आंसू तुम्हारे काँधे पर सर रख बहाये थे कभी
उन धारों की याद दिलाती है...!


तब विस्मय सारा मिट जाता है...


मूंदी हुई पलकों से एक अश्रुकण छलक आता है


चलती है फिर एक यात्रा अंतहीन

शून्य से शून्य तक शून्य में ही सब विलीन... ... ...!!
***

यहाँ जो भी है, भाव भाषा... सब प्रेरणा के फूल हैं... हमने बस सहेज भर लेने का काम किया है...!

आँखें हुईं सजल...!

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पिछले वर्ष घर गए तो एक बचपन की डायरी साथ ले आये... इतने दिनों से पलटा नहीं यहाँ ला कर भी. अभी उसके फटे हुए पन्नों को पलटते हुए कितने ही वो पन्ने याद हो आये जो बस किसी को यूँ ही दे दिए... कि उन पन्नों पर लिखी कविता उसे पसंद थी...!!! उन कविताओं की कुछ एक पंक्तियाँ याद हो आती हैं, पर इस तरह नहीं कि उन्हें उनकी समग्रता में पुनः लिखा जा सके...
आज इसी डायरी से एक कविता यहाँ लिख लेते हैं कि पन्ने सब अलग अलग हैं, खो जाने की सम्भावना प्रचुर है...
जिंदगी भी तो ऐसी ही है न... हमेशा कुछ न कुछ खो देने के डर से त्रस्त और ये खो देने का सिलसिला ज़िन्दगी के खो जाने तक चलते ही तो रहना है अनवरत...
खैर, अब कुछ डायरी की बातें... उन दिनों की बातें जब कुछ कुछ कविता जैसी हो होती थी ज़िन्दगी... दोस्तों के साथ खुशियाँ गम और बचपन की छोटी छोटी चिंताएं बाँट लेने के दिन... पंछियों की तरह मुक्त उड़ने के दिन... जीने के दिन... स्कूल की किताबों में उलझे रहने के दिन... खेलने के दिन... हंसने के दिन... खिलखिलाने के दिन और यूँ ही कविताओं के साथ खेलने के दिन!
उन्ही दिनों की लिखी एक कविता... किसी चुटके पूर्जे से इस डायरी में पुनः उतारी गयी २००१ में कभी... काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय में बैठ कर... अपनी पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हुए थकती थी... तो कोई पुराना चुटका पूर्जा निकालती थी अपने झोले से... जिसमें कभी की लिखी कवितायेँ होती थी... उन्हें लिख जाती थी डायरी में और फिर लाईब्रेरी से लौटते वक्त उन चुटकों के छोटे छोटे टुकड़े कर हवाओं में उड़ा देती थी, मिटटी में रोप आती थी... वो कागज़ के टुकड़े अबतक कहाँ बचते मेरे पास, अच्छा हुआ कि उन्हें डायरी में लिख लिया... आज डायरी भी अपने कई पन्नो को खो चुकी है... जर्जर अवस्था में है... तो लगता है वहाँ जो बची हैं कवितायेँ...  जो सुखी पंखुडियां अब भी हैं पन्नों के बीच, उन्हें अनुशील पर लिख लिया जाए कि अब तो यही है मेरी डायरी... मेरी यात्रा के विम्बों को सहेजने वाला मेरा पन्ना...!
उस वक़्त की कविता है... तो शीर्षक विहीन है... जो है जैसी है लिख जाए और रह जाए यहाँ किसी पड़ाव की पहचान बन कर...!!!



संतप्त हैं कोटि कोटि प्राण...
वेदना की रात का कैसे हो विहान...
कैसे गीत लयबद्ध हों...
कैसे कविता के शब्द-शब्द प्राण-प्राण से सम्बद्ध हों...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 



आतंकित है पूरा समाज...
उभयपक्ष कैसे अभय हों आज...
कैसे विपदा में धरोहर को बचाया जाए...
कैसे छंदों से क्रांति का विगुल बजाया जाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


'मेरा-तेरा'के झगड़े में इंसान पीसा जाए...
ऐसे में आत्मा कैसे स्वाधीन रह पाए...
कैसे संघर्ष के बीच भी मूल चरित्र डटा रहे...
कैसे उपवन से हर क्षण सौंदर्याभिराम सटा रहे...

यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


हृदय की मायूसी से चेहरा हुआ जाए क्षीण...
जीवन की कंदराओं में कैसे हों किरणें वित्तिर्ण...
कैसे अवसाद को परे हटा खिलना सीखा जाए...
कैसे अनंत सागर में नदियों सा मिलना सीखा जाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


हर तरफ पतन हर ओर ह्रास...
बचें कैसे क्षण-प्रतिक्षण बनने से काल का ग्रास...
कैसे कोटि-कोटि जन माला के मोती सम आबद्ध रहें...
क्यूँ टूटने-बिखरने की प्रक्रिया को सुधीजन भी मात्र प्रारब्ध मान सहें...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


हर संचित धन का निश्चित क्षय...
फिर हृदय धन कैसे रह पाए अक्षय...
कैसे मन-मंदिर समृद्धधाम बने...
दंश दोष को कैसे पूर्णविराम मिले...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


पल पल उड़ता ही जाता रंग...
ऐसे में कैसे रह पाए जीवित उमंग...
कैसे बसंत की शोभा में खोये लोगों को सूखे पत्ते दिखाए जायें...
आखिर कैसे मृत्यु की सी मरूभूमि में उल्लास गीत गाये जायें...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


आदर्श हर क्षेत्र में मरणासन्न...
फिर कैसे हो आहुति के बिना यज्ञ संपन्न...
कैसे त्राहि-त्राहि करता समूह खोयी मुक्ता पाए...
कैसे इस संक्रमणकाल में किरणों का आलम छाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

***

आखें आज भी सजल ही तो हैं, तो यही हो शीर्षक!!!

शीर्षकविहीन!

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पुरानी डायरी से एक और पन्ना... जाने किन मनःस्थितियों में कभी लिखी गयीं होंगी ये बातें किसी कागज़ के टुकड़े पर, फिर उतारी गयीं होंगी किसी शाम डायरी के पन्नों पर... आज यहाँ भी लिख जाए कि मन का मौसम फिर फिर वही होता है... जो कभी बहुत पहले कई बार जिया जा चुका है...


हम रूंधे हुए गले से 

कह रहे हों...
और तुम्हारी आँखों से 

अविरल आंसू बह रहे हों...


इससे आदर्श 

कोई स्थिति हो, 

तो बताओ...
स्मृति कुंजों से, 

हो तो, 

कोई ऐसी छवि ढूंढ लाओ!


धारा के समान 

बह रहे हों...
शब्द तरंगों को 

तह रहे हों,
इस तरह 

पर्वत के चरणों पर 

लहराओ...
सतह से परे 

जरा गहराई तक 

हो आओ!


प्रभु 

हृदय में 

सप्रेम साकार 

रह रहे हों...
मन वीणा से 

हम 

नाम उन्हीं का 

कह रहे हों,
इस तरह का 

कोई स्वप्न तो सजाओ...
क्षितिज की सुषमा को 

अपने आँगन में बुलाओ!


कब हमारी रचनाशीलता का प्रभाव 

इतना सबल होगा...?
कब कविता के आँगन में 

तेरी हर विपदा का हल होगा...?


यही सोच कर लिखते हैं!
जो हैं... हम वैसे ही दीखते हैं!

***

बिछड़े हुए किसी बेहद अपने मित्र सी मिल जाए जो पन्नों में कविता, तो एक बार उसे पढ़ना और फिर पुनः लिख जाना- ये तो होना ही चाहिए...
कि पढ़ना है अपना ही मन हमें बार बार, अपने शब्दों में जो है किसी की प्रेरणा साकार, उसे जीना है पुनः पुनः ... ... ... !!
शीर्षक तो कुछ लिखते नहीं थे पहले, अभी कुछ सूझ भी नहीं रहा तो रहने दिया जाए इन बिखरे कच्चे भावों को अनाम... शीर्षकविहीन... कि 
"शीर्षकविहीन"भी तो एक शीर्षक ही है न!

"ईश्वर, मेरी कविताएं, शीर्षक विहीन हैं!!"

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कई अधूरे ड्राफ्ट्स पड़े हैं, जिन्हें पूरा करना है... लिख जाना है कुछ भावों को, कुछ स्मृतियों को, कुछ विम्बों को... पर अभी शायद समय लगेगा उन एहसासों को पृष्ठ तक आने में...! मन अभी तेरह वर्ष पुरानी डायरी में ही रमा है... पन्ने पलट रहा है और बस कुछ उन लम्हों को जी रहा है... जब कविताओं का होना दोस्तों से घिरा होना होता था... जब स्कूल के दिन थे और कविताओं को साथ कहने गुनगुनाने वाले दोस्त थे...!
श्वेता, ये डायरी पलटी जा रही है तो याद आ रही हो तुम और वो रातें भी जब हम सारी रात कविताओं के साथ बीता दिया करते थे कहते सुनते हुए... हॉस्टल के दिनों में...
इन कविताओं का आधे अधूरे बचे रहना कैंपसकी याद दिलाता है... सेंट्रल लाइब्रेरी की याद दिलाता है... त्रिवेणी हॉस्टल की भी महक है इनमें और वो स्कूल के दिनों की यादें भी... कि ये तब की ही कवितायेँ हैं न...!

आज फिर उसी डायरी के बिखरे पन्नों से एक कविता... कच्ची सी... अपनी सी...


एक बार फिर मन जरा हताश है...
फिर एक बार जागी मन में नयी आस है...
क्या गाऊं मैं क्षुद्र अज्ञ आवेश में?
क्या बोलूं मैं तुच्छ, 

तुलसी मीरा के इस देश में?



तोतली बोली का बयान...
क्या करेगा कविता?
कोई मुझ सा अनजान...
क्षमा करे निर्मम निर्णायक समय 

मुझे अबोध जान कर,
मचला जाए मेरी धृष्टता को 

क़दमों तले की घास मान कर... 


पर ढहती दीवारों पर 

मेरी टूटी फूटी पंक्तियों को छोड़ दे,
हे समय! सबकुछ लील जाने की 

अपनी पुरानी प्रथा तोड़ दे!
लड़खड़ाते क़दमों को 

सलीके से चलने का पूरा अवसर मिले
हे समय! कर कुछ ऐसी व्यवस्था---
मुरझाने से पहले हर चेहरा एक बार तो जरूर खिले!


आस्था के अटल होने का मार्ग उद्भासित हो...
हे समय! तुम्हारी प्रतिकूलता से लड़ने का 

कंटकाकीर्ण  मार्ग सुवासित हो!
और इन सबके बीच 

छंदों की शान तनी रहे
कविता कालजयी होती है, 

कविता की मर्यादा सदा बनी रहे! 


अभिव्यक्ति की इस विधा का 

अपना हिय भी है अनुगामी,
बूँदें दिखाई नहीं देतीं 

पर आद्र कर जाता है 

मुसलाधार बरसता पानी!
बस इसी आद्रता से सींचा हृदय 

बीज संवर्धन करता है...
और मेरी बाल सुलभ धृष्टता का मुखर रूप 

शब्दों के झुरमुट में कदम धरता है!


निकल पड़ता है फिर कोई फुट कर श्रोत...
और दिवास्वप्न के साकार होने के से रोमांच से 

कण कण हो जाता है ओतप्रोत!
तब शुरू होती है एक यात्रा अंतहीन...
कविता कभी ख़त्म नहीं होती,

वह तो जीवन की 

पल पल की कर्तव्यनिष्ठा में है 

किरणों सम वितीर्ण!


मुक़म्मल कविता 

या मुक़म्मल इंसान होते ही नहीं... 

इन तत्वों तक सिर्फ राह तय की जाती है!
विश्वास और श्रद्धा के बल पर ही 

तमाम अपूर्णताओं के बावजूद 

ज़िन्दगी जी जाती है! 


वाणी को शब्द मिलें...
ज़िन्दगानी में शब्द ढलें...
वाणी और ज़िन्दगानी को संयुक्त कर दे!
हे समय! कसौटी पर 'कथनी'को 'करनी'से युक्त कर दे!!


कविताओं को जीना 

और फिर उनका लिखा जाना,
रचनाशीलता का हो 

यही पैमाना!

जिस दिन रचित आकार 

हिय के सपने सम होगा...
मुझे विश्वास है, 

उस दिन निश्चित मेरी धरा का गम 

कुछ कम होगा!

बस वह दिन 

अपने आसमान संग 

अपना दिन होगा...
सपनों के अम्बर तले 

छोटा दीपक 

कौतुकपूर्ण संघर्ष से परिपूर्ण होगा! 


और लौ में जो है हवाओं से लड़ने की अक्षय उमंग
हे समय! बस यही एक शय कर दे मेरे संग 


फिर तो हम नन्ही कल्पनाओं से 

धरा का अंचल सजा दें...
तुलसी मीरा के इस देश में 

हिय का तार हम भी अपनी उँगलियों से 

एक बार फिर बजा दें...
धरती पर कण कण की आबद्धता की बात क्या 

फिर तो हम दो जहां की हदें मिला दें...
एक बार जो अमृततत्व हमें मिल जाए, 

फिर तो हम हर मरणासन्न आत्मा को 

जीवन दिला दें...


हे समय! कर कुछ चमत्कार
कि स्वप्न हो साकार!!!

***

आज एक नए ब्लॉग  तक जाना हुआ... पहली पोस्ट पर... मन अभी उन्हीं शब्दों को गुनगुना रहा है...
हमने स्वप्नों को कभी जटिल नहीं होने दिया...
ना अपने किसी भी स्वांग को कुटिल...
संतृप्त की सृजन यात्रा अनवरत चले, अनंत शुभकामनाएं, सुरेश जी...!!!
मेरी एक कविता पर कभी दो पंक्तियाँ लिख गए थे आप...
एक अंध धुंद में, तुम सी ही विलीन हैं...
ईश्वर, मेरी कवितायेँ, शीर्षक विहीन हैं... ... ... !! ~SC~

इन पंक्तियों को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे किसी ने हमारा मन पढ़ कर लिख दिए हों ये शब्द... मेरी कितनी ही पुरानी शीर्षकविहीन कवितायेँ जैसे धन्य हो गयीं... इस दिव्य श्रेय के लिए आभार किन शब्दों में कहते हैं, इसका हमें ज्ञान नहीं है, इसलिए आभार की औपचारिकता रहने देते हैं... ये कविता का प्रांगन है न... यहाँ शब्दों से जुड़े हैं हम... हमारे बीच कविता बहती है... यूँ ही बहती रहे सदा सर्वदा...
इस पोस्ट का शीर्षक क्यों न आपकीलिखी पंक्ति ही हो... सत्य, अभिराम, सरल!!! 
"संतृप्त"को "अनुशील"की ओर से कोटि कोटि शुभकामनाएं...!!!
***
इस बार अपनों के आशीषों के प्रताप से ही सुदूर स्वीडन में इतने वर्षों में पहली बार माँ दुर्गा की प्रतिमा के दर्शन हुए, कीर्तन, आरती, पूजा, प्रसाद, पाठ में शामिल होने का मौका मिला... कितने ही वर्षों बाद यूँ पूजा के वातावरण को जिया हमने...

आप सबों को दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं!!!
माँ के दर्शन से संतृप्त हुए हम लौट रहे थे... प्रकृति की गोद में बैठ कर कुछ एक क्षण उस सौन्दर्य को भी जीया जो बिखरा हुआ है वादियों में...
मन यूँ ही अभिभूत रहे, नम रहे, आद्रता बनी रहे कि पतझड़ के बाद फिर बसंत आता है...



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