↧
सिसकियों के उस पार!
↧
कल उजाला होगा...!
पुराने पन्ने पलटना उन दिनों तक लौटना है जब उन पन्नों पर यूँ ही कुछ उकेर दिया जाता था... स्कूल के दिनों की तारीखें हैं इस डायरी में, डायरी की अवस्था ठीक नहीं है... कि संभाल कर रखी ही नहीं गयी, पर यादें और अक्षर पूर्ववत हैं... यादों को पुनः जी लेते हैं और पंक्तियों को यहाँ उतार लेते हैं... कि यादें और कवितायेँ... जो भी हों, जैसी भी हों, सहेजी तो जानी ही चाहिए...
उदीयमान सूरज की
झलक पाने को,
आया समग्र संसार
शीश नवाने को...
सूर्योदय के बाद
शुरू होता है संघर्ष,
उषा काल के माधुर्य में
किसने जाना अभावों का चरमोत्कर्ष...!
क्षण प्रतिक्षण
बढ़ता जाता ताप,
तिस पर प्रपंचों की
गहराती पदचाप...
तमतमाता हुआ
सूरज का रूप,
भरी दुपहरी की
प्रचंड धूप...
और इन सबके बीच
अपना अपना सत्य तलाशते हम सब,
धूप में छाँव तलाशते
अब तब...
बीतती हुई बेला में
सूरज का ठंडाता कोप,
और हमारा हर पल देना
अपनी जिम्मेदारियां औरों पर थोप-
यह सब
दिन भर के व्यापार में है शामिल,
कभी कभी करनी नहीं रहने देती
सर उठाने के भी काबिल...
भाग दौड़ में भले-बुरे का चिंतन
विस्मृत हो चला,
जीवन का दिवालियापन
हमें अंतिम बेला में खूब खला...
सूरज अपना सामान बाँध
करने लगा कूच करने की तैयारी,
बस दिवस भर की ही
तो है उसकी पहरेदारी...!
दोपहर का ताप
अब इतिहास हो चला,
बूढा दिवस
सांझ की चादर ओढ़ ढला...!
दिनभर की कमाई
समेटते हुए फुटपाथी,
जीवन की पाठशाला के
सभी जिज्ञासु सहपाठी...
घोंसले को लौटता
परिंदों का समूह,
अन्धकार का
फैलता ही जाता व्यूह...
बेजान सी सड़कें
हो कर कोलाहल से हीन,
एक खालीपन से
बुरी तरह हो क्षीण...
ढ़लते सूरज को
विदा करती है,
अनवरत कर्मरत रहने का
दम भारती है...
अब दिया सलाई की ओर
हो लिया जाए मुखातिब,
सूरज की विदाई के बाद भी
अँधेरे को गले लगाना तो नहीं ही है न वाजिब!
बस दिन भर की दौड़ भाग के बाद
अब मिटाई जाए थकान,
दिन भर भागना और सांझ ढले सिमटना...
यही तो है किस्सा-ए-सुबहो शाम!
फुर्सत कहाँ कि
चाँद का नज़ारा करें,
अवकाश कहाँ कि
खुले गगन के विस्तार को निहारा करें...
सिमटना-कटना ही
आज दस्तूर है,
सुबहो शाम ये हश्र देख
रोने को मजबूर हैं!
कल फिर
सूरज निकलेगा,
लेकिन कल भी क्या
किस्सा रुख बदलेगा...???
यह सवाल ही
बेमानी है,
आखिर गंगाजल को भी तो लोग
कहने लगे आज पानी है!
पतनोन्मुख परिवर्तन की
परंपरा अब आम हो गयी,
नवनिर्माण का विगुल नहीं बजा
और आज फिर शाम हो गयी!
फिर भी हमें लगता है
कल का सूरज
निराला होगा,
तमाम वीराने के बावजूद...
हमें विश्वास है
कल उजाला होगा!
↧
↧
हां ज़िन्दगी!
हर कविता की एक कहानी होती है... जैसे हम में से हर एक की एक कहानी होती है... अलग सी और फिर भी कुछ कुछ एक ही... अब ज़िन्दगी तो हममें से हर एक के लिए एक पहेली ही है न... और इस पहेली से जूझते इसे सुलझाने के उपक्रम में चलते हुए हम सब सहयात्री ही तो हैं न... तो एक ही हमारा मन, जुदा जुदा फिर भी एक ही है हमारा... हम सबका भाव संसार...!!! वही इंसानियत और प्यार की कहानी... ज़िन्दगी यही तो होनी चाहिए... और क्या!ये फिर उसी डायरी का एक पन्ना, ९६ में लिखी गयी कभी... तब हम नाइन्थ में थे... वो समय यूँ ही याद है, कि यादें भी तो सभी स्कूल से ही सम्बंधित है... किस क्लास में थे उस वर्ष, यही तो है तब की यादों का पारावार!
श्वेताव्यस्त हो तुम, नहीं तो आज फिर सुनाते तुम्हें यह कविता... याद तो होगी ही तुम्हें ये कुछ कुछ धुंधली सी...!
श्वेताव्यस्त हो तुम, नहीं तो आज फिर सुनाते तुम्हें यह कविता... याद तो होगी ही तुम्हें ये कुछ कुछ धुंधली सी...!
हमें किस्मत ने बार बार मारा
हाशिये पर लटकाए रहा समाज का अखाड़ा
अधमरे हो कर पड़े रहे
फिर भी तेरी आस में खड़े रहे
क्यूंकि हम तुम्हें प्यार करते हैं
हां ज़िन्दगी!
फूटते बुलबुलों में भी हम
तेरे अक्स का ही दीदार करते हैं!
बाढ़ अकाल अशांति सम विरोधियों से लड़ाईयां लड़ी
घोर निराशा के क्षणों में भी सूने आँचल में मोतियाँ जड़ी
अभाव का दंश झेल कंकाल बने रहे
फिर भी हम साँसों पर मेहरबान ही रहे
क्यूंकि हम तुम्हें प्यार करते हैं
हां ज़िन्दगी!
साँसों की डोर को हम
अपना इकलौता यार कहते हैं!
जान पर खेल... खेला करते हैं मौत का खेल हम
कठिनाईयों को हँसते हुए गए झेल हम
कोल्हू के बैल सम जुते रहे
फिर भी लगाते रहे कहकहे
क्यूंकि हम तुम्हें प्यार करते हैं
हां ज़िन्दगी!
मुस्कराते हुए सब कुछ सहते जाने को ही हम
सार कहते हैं!
चाहे-अनचाहे दुःख दर्द हृदय से लगाया
गाहे-बगाहे त्रासदियों का जमघट भी खूब रुलाया
घटना दुर्घटना से दिल बहुत दहला
फिर भी लेते ही हैं हम मृगतृष्णा से खुद को बहला
क्यूंकि हम तुम्हें प्यार करते हैं
हां ज़िन्दगी!
मृग मरीचिकाओं से बस हम
तुम्हारी ही खातिर लाड़ करते हैं!
घोर व्याधियों ने आकर घेरा
ईश तत्व हो गया विदा... शरीर प्राण हुए दुःख अशांति का डेरा
बहने को बह रहे हैं सब आसुरी झोंकों संग
फिर भी अचेतन रूप से संघर्षरत है सहेजने को अपनी मिट्टी का उड़ता रंग
क्यूंकि हम तुम्हें (तुम्हारे तत्व सहित...?) प्यार करते हैं
हां ज़िन्दगी!
लाख पतन के बावजूद अंतस से हम
मानवता को ही अपना सहज श्रृंगार कहते हैं!
भले तत्व विस्मृत हो जाएँ... पर मिटा नहीं करते
यदि वक़्त के वीराने देते हमें मोहलत,
तो शान में तेरे ऐ ज़िन्दगी!
हम बेहतर छवि गढ़ते...!
काश! होते जो तुमसे कुछ और जुड़े हम...
तो ज़िन्दगी!
हम तुम्हें तुम्हारी नज़र से पढ़ते...!!
↧
अपने लिए... अपने अपनों के लिए!
अपने आप को समझाने के लिए ही लिखते हैं हम, किसी हताश क्षण में ये भी अपने लिए ही लिखा होगा तब... उस वक़्त शीर्षक नहीं लिखते थे पर तारीखें हैं लिखी हुई... २६.३.१९९८ को लिखित यह रचना जिस मनःस्थिति में लिखी गयी होगी, उस मनःस्थिति का सामना तो हम सब ही करते हैं... जीवन है तो हताशाएं भी हैं... निराशा भी है... और कविता इन्हीं विडम्बनाओं के बीच से जीवन खोज निकालने का भोला भाला सा प्रयास ही तो है... तब की उकेरी कुछ पंक्तियाँ वैसे ही उतार ले रहे हैं यहाँ... अपने लिए... अपने अपनों के लिए!
एक रौशनी... एक किरण
कहीं दूर हुआ उसका अवतरण
मन उल्लासित हो उठा
आगे बढ़ने की उत्कंठा से मचल उठा
रौशनी ने जो स्फूर्ति का संचार किया
विश्रामरत क़दमों ने आगे बढ़ने पर विचार किया
अन्धकार के भय से रूकने वालों... पंछियों को उड़ते देखो
तम का सीना चीरते देखो
अरे! तुम तो मनु की संतान हो
प्रभु की अनंत कृतियों में सबसे महान हो
यूँ हताश हो महफ़िल से उठ गए
ज़िन्दगी से यूँ रूठ गए
मानों जीवन एक अभिशाप हो
जीना दुष्कर हो... दुराग्रहपूर्ण ताप हो
ठोकर खाने में बुराई नहीं है
पर गिर कर गिरे रहना कोई चतुराई नहीं है...
याद है...
कुछ समय पहले की ही बात है
नन्हे कदम डगमग कर चलते थे
हज़ार फूल राहों में खिलते थे
तुम्हें ठुमक ठुमक कर चलता देख
मात पिता के प्राण खिलते थे
तुम अनायास गिर जाते थे
मगर फिर उठकर दूनी गति से भाग पाते थे
चाहत ही कुछ ऐसी थी कि नाप लें ज़मीं
नया नया चलना सीखा था... अच्छी लगती थी घास की नमीं
दिमाग पर जोर डालो
और उस भावना को खोज निकालो
जो वर्षों पहले दफ़न हो गयी
तुम्हारे भोले भाले बाल मन की कफ़न हो गयी
सरल मधुर सा था स्वभाव
दौड़ने की चाह में विश्रामगृह बने कई पड़ाव
पर याद करो... तुम बढ़ जाते थे
गिरने के बाद स्वयं संभल जाते थे
कुछ पल के लिए दर्द रुलाता ज़रूर था
पर तुम्हारे अन्दर सीखने का कुछ ऐसा सुरूर था
कि चोटों पर ध्यान ही गया कहाँ
लगता था जैसे अपना हो सारा जहां
माँ की ऊँगली पकड़ चलते थे
आत्मनिर्भर होने को मचलते थे
क्या स्मरण नहीं तुम्हें तुम्हारा वह अतीत
जब तन्मयता थी तुममें आशातीत
निर्मल निश्चल थी तुम्हारी काया
तुमने स्वयं रघुनन्दन का रूप था पाया
उन मधुर क्षणों को याद कर
जरा सा बस प्रयास कर
आज भी तो सुख दुःख की ऊँगली थामे ही चलना है
नन्हे बालक की तरह गिरकर पुनः संभलना है
जो भोला भाला मनु स्वरुप
आज कहता है जीवन को कुरूप
उसे ज़िन्दगी के करीब ले जाना है
निराश हताश मन को तुम्हें अमृतपान कराना है...!!!
↧
भींगना क्या होता है...?
भींगना क्या होता है... ? क्या बारिशों में भींग कर भींगा जा सकता है... या फिर एक सहज सुन्दर और सचमुच का भींगना वो भी होता है जब खिली धूप में उदासी ओढ़े हम दूर किसी आहट... किसी आवाज़ या फिर किसी अनकही बात से भींग जाते हैं...
और हाँ, ये "किसी"की परिभाषा नहीं हो सकती.. ये "किसी"कोई किसी होता ही नहीं ... ये होता है कोई ख़ास जिसकी नमी आपको भीतर तक नम कर जाती है... ऐसे में फिर बारिशों में चलते हुए भी हम आप नहीं भींगते कि पहले से ही जो सराबोर भींगा हुआ हो वो और क्या भींगेगा...!भींगे मन को भींगाती बारिश भली लग रही थी... ३ डिग्री टेम्परेचर, बादलों से पटा अम्बर, बूँदें, प्लेटफार्म... और इंतज़ार ट्रेन के आने का... यही कुछ तो था... यही कुछ तो होता है हमेशा जीवन में भी... ज़िन्दगी का इंतज़ार करते हुए खड़े रहते हैं हम इस संसार के प्लेटफार्म पर... लेट-सबेर ट्रेन को तो आना ही है... आएगी ही... जायेगी कहाँ...
***
क्लास से लौटते समय ट्रेन का इंतज़ार करते हुए यूँ ही कुछ उकेर रहे थे... कुछ बूंदें... कुछ प्रश्न और उन प्रश्नों के जवाब में फिर गढ़ रहे थे कुछ प्रश्न... उत्तर होना हमें कहाँ आता है... सो हमारे प्रश्नों का उत्तर भी एक प्रश्न ही तो होता है न...
प्रश्नों की एक लम्बी श्रृंखला हैऔर असंख्य दुविधाओं के बीच उत्तर पा जाने...
उत्तर हो जाने की...असीम आस है...!
जीवन, टूट रही टहनियों का तरु के प्रति अप्रतिम विश्वास है...!
हम ढूंढ रहे हैं यहाँ वहाँ और वो हरदम हमारे करीब है... पास है...!
जीवन, एक दूसरे की नमी से
भींगने का नाम है...
भींगना और क्या होता है?
ये तुम्हारे हमारे मन को मिला विधाता का अनूठा वरदान है...!
और हाँ, ये "किसी"की परिभाषा नहीं हो सकती.. ये "किसी"कोई किसी होता ही नहीं ... ये होता है कोई ख़ास जिसकी नमी आपको भीतर तक नम कर जाती है... ऐसे में फिर बारिशों में चलते हुए भी हम आप नहीं भींगते कि पहले से ही जो सराबोर भींगा हुआ हो वो और क्या भींगेगा...!
***
क्लास से लौटते समय ट्रेन का इंतज़ार करते हुए यूँ ही कुछ उकेर रहे थे... कुछ बूंदें... कुछ प्रश्न और उन प्रश्नों के जवाब में फिर गढ़ रहे थे कुछ प्रश्न... उत्तर होना हमें कहाँ आता है... सो हमारे प्रश्नों का उत्तर भी एक प्रश्न ही तो होता है न...
प्रश्नों की
उत्तर हो जाने की...
जीवन,
जीवन,
भींगने का नाम है...
भींगना और क्या होता है?
ये तुम्हारे हमारे मन को मिला
↧
↧
शब्दों की प्रेरणा, प्रेरणा से उपजे शब्द!
"अपना ख्याल रखना"... आत्मीयता से पगे आपकेये स्नेहपूर्ण शब्द प्रेरणा बन कर बहुत कुछ लिखवाना चाहते हैं... पर कलम चुप सी है...! अचानक अभी आधी नींद में लिखा गया यह... कविता तो नहीं है... यूँ ही कुछ है, आधी जागी आँखों द्वारा बुना गया ताना बाना!
इस ताने बाने में... उन शब्दों भावों की भी प्रेरणा है... "स्नेह-आशीष सहित... शुभ... मंगल... सर्वदा... ... ... !!"आपने हमें हमारे जन्मदिन पर ये शब्दाशीश दिए थे, याद तो होगा ही न...!
शब्द जब भाव से बंधे हों तो भाषा से परे हो जाते हैं... फिर वो हो जाते हैं साक्षात प्रेरणा... पढ़िए अब जो लिखवा गयी आपके शब्दों और आशीषों की प्रेरणा...
इस ताने बाने में... उन शब्दों भावों की भी प्रेरणा है... "स्नेह-आशीष सहित... शुभ... मंगल... सर्वदा... ... ... !!"आपने हमें हमारे जन्मदिन पर ये शब्दाशीश दिए थे, याद तो होगा ही न...!
शब्द जब भाव से बंधे हों तो भाषा से परे हो जाते हैं... फिर वो हो जाते हैं साक्षात प्रेरणा... पढ़िए अब जो लिखवा गयी आपके शब्दों और आशीषों की प्रेरणा...
यूँ ही कुछ कहना है हमें...
बेचैन सा है मन
पर फिर कहीं चुप चुप सा
खामोश भी...
लगा कि
पहला अवकाश मिलते ही लिख जायेंगे
वह सब जो लिखा जाना शेष है
कह जाने को
मन में कितने ही
स्मृतियों के अवशेष हैं
पर
अवकाश है कहाँ
और अब तो शब्द भी नहीं है
हम हैं कहीं
और आजकल
हमारी कलम और कहीं है
बड़ी आत्मीयता से
कह जाता है कोई
"अपना ख्याल रखना"
तो बस मन भर आता है
हो न हो
ये आवाज़ हमारी अपनी है
इस आत्मीयता से हमारा
सदियों पुराना नाता है
वो नाता जो साथ रोती आँखें
पल में बना लेती हैं
यूँ ही घट जाता है अँधेरा
सांझ यादों के दीप जला लेती है
बातें हो... या कि हों रहस्य...
सब कहाँ हमें ज्ञात हैं
मन के आकाश पर उगने वाले चन्द्र अरुण
सदियों से अज्ञात हैं
उन्हें जान लेने के उपक्रम में
सदियाँ खोती हैं
पहेलियाँ गढ़ती भी वही है सुलझाये भी वही
सुख दुःख की गति नियति के हाथों होती है
राह बड़ी संकरी भी है
और जीवन
बहुत छोटा है
कहीं कुछ भी पूर्णरूपेण निर्दोष नहीं
हम सबकी जेब में
कोई एक न एक सिक्का तो है ही जो खोटा है
इसमें बेवजह
तर्क वितर्क को
क्यूँ जगह दी जाए
आईये आज धूप में हो रही
इस बारिश में भींगें हम
और भींगते हुए बात कोई अनूठी की जाए... !!
↧
मनें दीपावली... दीपों वाली!
स्वप्न में,
स्वप्न सा...
दीखता है जगमग
एक दीप उम्मीदों का
एक ज्योति खुशियों की
स्वप्न के धरातल से
वास्तविकता की ठोस ज़मीन तक का सफ़र
इसी क्षण तय हो
और दिखे दीप
जगमगाता
मन की देहरी पर
बस इतनी सी ही
प्रार्थना है...
दीप का जलना मात्र जलना ही नहीं है
यह एक साधना है...
विपरीत हवाओं के विरुद्ध
मौन संघर्ष...
जलती लौ की दिव्यता
विशुद्ध भावों का चरमोत्कर्ष...
चलती रहे यात्रा अनंत
लौ को कोटि कोटि प्रणाम है
जीवन कुछ और नहीं
सत्य का संधान है !!!
***
मनें दीपावली... दीपों वाली!
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया !
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख:भाग भवेत् !!
↧
हम भूल गए बंदगी...?
पुरानी डायरी से १९९८ में लिखी गयी रचना::
अगर न होते नैन, जिह्वा और श्रवण शक्ति...
तो, निर्विघ्न चल सकती थी भक्ति...
दरवाज़े सब होते बंद... बस खुला रहता मन का द्वार
शांत हृदय से जुटते हम करने आत्मा का जीर्णोद्धार
भटकाव से परे आत्मलीन होता चिंतन
मन ही मन बस चलता रहता हरिनाम का संकीर्तन
जुटा दिए क्रोध, मद, मोह, लोभ के सारे सामान
और हो गए वो दूर क्षितिज पर अंतर्ध्यान...?
जिससे कोई बिरला ही शान्ति पा सके
करे ठोस प्रयास तब अमृतकलश तक जा सके
यूँ तो बस लहरों में खो जाते हैं
आने वाले जीव यहाँ बस माया के होकर रह जाते हैं!
खूब बनायी दुनिया उसने
मोह ममत्व की खूबियाँ उसमें
दीं चरम शक्तियां इंसानों को
अपनी आसक्तियों की खातिर जलते परवानों को
देने को तो उसने दिया ज्ञान विवेक
पर अविवेकी होने के संबल भी जुटा दिए अनेक....
दिए उसने दो नेत्र ललाम
चहुँ ओर भागे, जो होकर बेलगाम
यही सत्य है...
ये आँखें खूब नाच नचाती हैं
बाह्य सौन्दर्य के आगे-पीछे दीवानों की तरह मंडराती हैं...
श्रवण शक्ति भी है कम बैरन नहीं
जो अशांत किये रहती है हर पल, ये है वही...
भला बुरा सुन सुन कर आक्रोश जगेगा
इधर उधर व्यस्त रहेगा... मन की बातें यह नहीं सुनेगा
जिह्वा सारी पशुता की होती है जड़
स्वाद पर पक्की उसकी पकड़
कटु वचन कहवा कर कई पाप करवाती है
भाषा के चक्रव्यूह में आत्मा को फंसाती है
यही होता है... यही होता रहेगा
सब अपना अपना राग अलापेंगे
अपनी अपनी ही ऐषणा के मन्त्र जापेंगे
घाटे में आखिर कौन रहेगा..?
अरे! इस संसार के फेरे में अन्दर का इंसान ही मरेगा!
फंसा कर ज्योति, ध्वनि और स्वाद के जाल में
ढलते देखती है इंसानों को भेड़ियों की खाल में
कैसी अद्भुत ये सत्ता तेरी ईश्वर...?
भ्रम यथावत बना रहता है, इंसान है कितना विवश नश्वर...??
भ्रामक शक्तियों को इतना स्पष्ट सजाया
फिर क्यूँ आत्मा को इतना सूक्ष्म अस्पष्ट बनाया...?
कि बिना दिव्य प्रयास के, साधारण जन
पहचान सके नहीं, अपना ही अंतर्मन
काहे इतनी क्लिष्ट बनायी ज़िन्दगी
कि अहम् मोह के फेरे में हम भूल गए बंदगी...!!
↧
कल ये हमारा नहीं रहेगा...!
तुम्हारे लिए ही
अस्त हो रहा है...
कल तुम्हारे लिए ही
पुनः उदित होगा...
बस रात भर रखना धैर्य
ये जो अँधेरा है न...
बीतते पहर के साथ
यही उजाला पुनीत होगा...
ये जो डूबती हुई
लग रही है न नैया...
रखना विश्वास,
किनारे लगेगी...
सोयी हुई जो
लग रही है न किस्मत...
वह तुम्हारे पुरुषार्थ से
निश्चित जगेगी...
अपने लिए जितने दुःख दर्द
लिखवा लाये हैं हम विधाता से...
वह सब हमें
परिमार्जित ही करेगा...
बीत रहा है हर क्षण जीवन
समय रहते समझें, इसका महत्व हम...
ये आज है...
कल ये हमारा नहीं रहेगा!!!
↧
↧
हृदय से बहता निर्झर!
बह रहे हैं अविरल आंसू
उद्विग्न है मन...
कहीं न कहीं
खुद से ही नाराज़ हैं हम...
भींगते हुए बारिश में
बस यूँ ही दूर निकल जाना है कहीं...
यूँ भींग जाएँ-
आँखों से बहता आंसू दिखे ही नहीं...
आसमान से गिरती बूंदों में
समा जाएँ अश्रुकण...
और ये भ्रम सच हो जाए-
रोते हुए चुप हो गए हैं हम...
आंसू में ही है कोई कविता
या है कविता में आंसू का होना...
उधेड़बुन में है मन, जाने क्या क्या खो दिया-
जाने कितना अभी और है खोना...
ज़िन्दगी! जितना रुलाना है
आज जी भर कर रुला ही ले...
कितनी रातों के जागे हैं
अब गहरी नींद हमें सुला ही ले...
ज़िन्दगी! तेरा कोई दोष नहीं है
कोई-कोई सुबह ही ऐसी होती है...
तेरे अपने कितने सरोकार हैं
हमारे लिए तू सदा आशीष ही तो पिरोती है...
अब कभी-कभी क्या बरसेगा नहीं अम्बर
आँखें हैं तो, आंसू भी तो होने हैं न...
इसमें ऐसी कौन सी बड़ी बात है?
बादलों को धरती के सारे कष्ट धोने हैं न...
तो बरसो, जितना है तुम्हें बरसना
बादलों! उपस्थिति तुम्हारी प्रीतिकर है...
इस अजीब से मौसम में-
आंसू हृदय से बहता निर्झर है...
और यही है हमारी
एक मात्र सांत्वना...
जीवन हमेशा से ऐसा ही है-
थोड़ा अजीब... थोड़ा अनमना...!
↧
ललित, आपके लिए...!
पहले भी लिखा है इसी शीर्षकसे आज फिर यूँ ही कुछ लिख जाने का मन है... आपकी प्रेरणा से आपके लिए...
विचलित हो जाता है मन
रो पड़ता है
समस्यायों का एक समूचा व्यूह
मुझे जब तब जकड़ता है
सबसे हो दूर कहीं खो जाने की
इच्छा होती है
वजह बेवजह
आँखें बेतरह रोती हैं
दिशा कोई नज़र नहीं आती
पथ की पहचान नहीं हो पाती
तब, जो
खिल आता है
समाधान बन कर...
गूँज उठता है
स्वयं
हरि नाम बन कर...
वह
पावन प्रभात हैं आप
भईया, नेह आशीषों की
हमको मिली
अनुपम सौगात हैं आप
यूँ ही लिख जाना था
बस शब्दों को आप तक आना था
सो लिख गयी
कविता ओझल ही रहती है हमेशा
बस आज एक झलक सी उसकी दिख गयी
सदा सर्वदा रहें आप
यूँ ही उज्जवल दैदीप्यमान
मिलती रहे दिग दिगंत तक
पथ को आपसे पहचान!
↧
ज़िन्दगी हर कदम एक जंग है...!
ये एक तस्वीर ::नितिन्द्र बड़जात्याजी ने एक दिन यूँ ये तस्वीर हमें दी थी… इस विश्वास के साथ कि हम कुछ लिख पाएंगे इस पर… उनके शब्द::आपके रचनाधर्मिता हेतु एक बहुत संजीदा विषय दे रहा हूँ..... दीपोत्सव के अवसर विद्यालय के विशिष्ट प्रज्ञाचक्षु बच्चों का रंगोली बनाते हुए चित्र…***ये उनका विश्वास ही फलित हुआ कि कुछ पंक्तियाँ यूँ ही आंसुओं की तरह बह आयीं, सोचा था कुछ सजा संवार कर लिखेंगे पर ऐसा कभी हमसे हुआ नहीं, शायद कभी हो भी नहीं.... इसलिए जो जैसे बह गए थे भाव वैसे ही सहेज लें यहाँ… यूँ हमारी नगण्य सी क्षमता पर विश्वास करने के लिए, आभार नितिन्द्र जी!आपकी कर्तव्यनिष्ठा को नमन एवं विद्यालय को अनंत शुभकामनाएँ!
हमारी आँखें
नहीं देख पाएंगी
वो सौन्दर्य कभी
जो मन की आँखें रचती हैं
कितने कोमल हैं ये रंग
कितनी दिव्य है यह रंगोली
इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते हम
हमसे कहीं अधिक रंगीन होती है इनकी दिवाली इनकी होली
आँखें जो भ्रम रचती हैं
उससे कोसों दूर हैं ये
निष्कपट निर्दोष है इनका भाव संसार
स्वयं साक्षात नूर हैं ये
ये रंग
ये रंगोली
ये दिए...
ये रौशनी
ये सब आयोजन
एक शुभ त्योहार के लिए...
राम वनवास पूरा कर लौटे जो हैं घर
क्यूँ न रौशनी में डूबे फिर सारा धाम पूरा शहर
क्यूँ न शोर हो
क्यूँ न फिर जागते हुए ही भोर हो
कि दीपावली है
दीपों की कतार है आत्मा के प्रकाश से झूम रही सारी गली है
और राम
उस रंगोली पर मुग्ध हैं
जो मन की आँखों ने
मन से है बनाया
राम उस दीप पर
अपनी दिव्य मुस्कान बिखेर रहे हैं
जो उन नन्हें हाथों ने
है जलाया
काश देख पातीं
वो आँखें रौशनी की किरण
जो प्रभु की आँखों की ज्योत बन
चमक रही है...!
विडम्बना तो है
पर उसके खेल निराले हैं...
शरणागतवत्सल की करुणा ही तो
रंगोली के रंगों में झलक रही है...!!
ये लिखते हुए
शब्द मेरे मौन हैं...
और आँख मेरी भर आई है...
ज़िन्दगी हर कदम एक जंग है...
ज़िन्दगी हर मोड़ पर तन्हाई है...!
↧
कुछ इस तरह...!
अपनी बेचैनी का
कारण
खोज रही है...
मन के कोने में बैठी
अनचीन्ही
एक भाषा...
वह भाषा
जो शायद कह पाये
सबसे सुन्दर शब्दों में
तुमसे...
सुख दुःख की परिभाषा
कि तुम
बुन सको फिर अक्षरों से शब्द
शब्द से भाव
और भावों में
बह आये समाधान
कुछ इस तरह...
लेते रहते हैं
जीवनपर्यंत
हे जीवन!
हम
तुम्हारा नाम
जिस तरह!
अपने अनमनेपन का
कारण
खोज रही है…
बड़े आस से
भोली भाली
जिज्ञासा...
वह जिज्ञासा
जो अपनी आत्मीयता से
कर भावविभोर तुम्हें
कह जाए तुमसे...
जीवन है आशा
कि तुम
सुन सको फिर
अपने होने का संगीत
खिल जाए मन के क्षितिज तुम्हारे
पावन प्रात औ'प्रीत
कुछ इस तरह...
लेते रहते हैं
जीवनपर्यंत
हे जीवन!
हम
तुम्हारा नाम
जिस तरह!!
↧
↧
भाव भाषा का अद्भुत स्नेहिल नाता...!
सुने, समझे जाने वाले शब्द, आखर के जोड़ भर हैं...
जो कह दी जाए, जो कहलवाए कोई, तो कविता हुई... ... ... !! ~ सुरेश चंद्रा ~
कितनी सुन्दर बात कही गयी है इन पंक्तियों में... यही क्यूँ उनकी हर पंक्ति, उनके हर शब्द सटीक और सुन्दर होते हैं... मंत्रमुग्ध कर जाते हैं और हम शब्दों का चमत्कार देख विस्मित हुए बिना नहीं रहते... हर बार, बार बार...!!!इन दो पंक्तियों का आशीष मेरी किसी कविता को टिपण्णी स्वरुप दे गए थे सुरेश जी... ऐसी ही कई अनमोल पंक्तियाँ उनकी मेरे पास सहेजी हुई है... शब्दों की सुन्दरता, भावों के सौन्दर्य ने यूँ बाँधा कि आजीवन इनकी महिमा गाते रहेंगे हम... पढ़ते रहेंगे और उनकी लिखी बातों का सार समझने का प्रयास करते रहेंगे... !!कहते हैं..., मन से लिखे गए भाव मन तक पहुँचते हैं, जो नम आँखों से लिखा गया हो... वो पढने वालों की भी आँखें नम करता है... स्नेह और श्रद्धा से आपके समक्ष झुकी हुई मेरी लेखनी सभी भावों को यथावत प्रगट करने में असमर्थ है... आपकी कलम की तरह प्रतापी जो नहीं है...सुन रहे हैं न, सुरेशजी!
सपने की आँख मे, पलते हुए हम...
मद्धम सी आंच मे, जलते हुए हम...
स्वभाव है, सुनना, बुनना, गुनना...
स्वभाव के साँच मे, ढलते हुए हम...
वो सब जिनके लिए हम मर खपे...
उनकी ही आँख मे, खलते हुए हम... ~ सुरेश चंद्रा ~
आपकी इन पंक्तियों ने आगे कुछ अनायास हमसे भी लिखवाया, जैसे आपने ही कहलवाया हो... देखिये तो कविता घटित हुई क्या...आपकीऔर आपकी पंक्तियों से उत्प्रेरित मेरी कलम की धृष्टता सहेज लेते हैं आज यहाँ एक साथ... अनुशील के पन्नों के अनुपम सौभाग्य स्वरुप अंकित रहेगा यह पड़ाव सदा मन में भी और इन पन्नों में भी...
सपने की आँख मे, पलते हुए हम...
मद्धम सी आंच मे, जलते हुए हम...
स्वभाव है, सुनना, बुनना, गुनना...
स्वभाव के साँच मे, ढलते हुए हम...
वो सब जिनके लिए हम मर खपे...
उनकी ही आँख मे, खलते हुए हम...
कदम बढ़ते नहीं अब विराम चाहिए...
बोझ ये मन में लिए, चलते हुए हम...
धुंधला गयी है नज़र, आंसूओं से...
कुछ तो दिखे, आँख मलते हुए हम...
दर्द जो भी हुआ सह लिया मन पर...
बाग़ की खातिर, फलते फूलते हुए हम...
कितनी देर जब्त रहे, कब तक रुके नीर...
आंच में बर्फ की तरह, पिघलते हुए हम...
वो सब जिनके लिए हम मर खपे...
उनकी ही आँख मे, खलते हुए हम...
***
जीवन बहुत बड़ी पहेली है... और शब्दों का संसार बहुत वृहद् है... अथाह है भावों का सागर... इस सागर के किनारे तक हमारी चेतना को ले जाने के लिए आपका कोटि कोटि आभार प्रिय कवि!!!
प्रेरणा बन प्रभात सा है खिल आता
भाव भाषा का अद्भुत स्नेहिल नाता... ... ... !!
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जीवन की डगर पर...!
रहता है कुछ अँधेरा ही... ठीक ठीक सुबह नहीं कह सकते, हाँ भाग रहा समय निश्चित ही घड़ी की सुईयों को सुबह की दहलीज़ पर ला खड़ा करता है... और घडी की सुईयों से ही तो नियंत्रित हैं हम तो सुबह तो हो ही जाती है भले ही क्षितिज पर सूर्यदेव का नामोनिशान न हो दिन चढ़ आने तक...!आधे अँधेरे में गंतव्य तक की राह पकड़ते हुए जाने क्या क्या सोचते हुए हम चलते हैं... पेड़ों के संग चलते हुए कई बार बी एच यु कैम्पस याद हो आता है... रविन्द्रपूरी से सेंटल लाइब्रेरी तक पैदल ही तो चले जाते थे हम... वो भी क्या दिन थे... हैरान परेशान से... पर कहीं न कहीं सुकून भी तो होता ही था... नम घास पर खाली पाँव चलने का सुकून... घर से दूर तपती धूप से झुलसने का एहसास साथ होता था, तो वहीँ पेड़ के नीचे छांव भी थी... वह छांव जो रास्ते भर मेरे साथ चलती थी... और साथ मेरे बैठ भी जाती थी कभी कभी... उस पेड़ के नीचे जहां बैठ कर कितने ही पाठ पढ़े हमने, बायो-इन्फार्मेटिक्स के भी और जीवन के भी.आज जब यहाँ आधे अँधेरे में सुबह निकलते हैं... घास पर जमी हुई एक परत बर्फ दिखती है तो ओस की बूंदें याद हो आती हैं... आधी राह तय करते हुए किसी किसी रोज़ आसमान पर अद्भुत छटा बिखरी दिख जाती है... सूरज के आने के पूर्व का महात्म्य जो रच रहा होता है अम्बर...! इधर मौसम ऐसा है कि बादल ही बादल हैं... बारिश ही बारिश है तो बादलों से आच्छादित अम्बर ने ये चमत्कार कम ही दिखाए... बरसने में ही व्यस्त है वह तो! पेड़ों पर से पत्ते गायब हो रहे हैं अब... राह में बिछी हुई चादर सी पत्तियां पैर पड़ने पर जैसे कहती है... "जी ली हमने एक पूरी ज़िन्दगी अब अगले मौसम हम फिर लौटेंगे, तब तक के लिए अलविदा... यादों में सहेजे रखना हमें कि हमारी स्मृति बर्फीले माहौल में हरापन बन कर उगी रहे तुम्हारे मन में"...!यूँ ही चलते हुए हम अपने आप से ही, अपने माहौल से ही बात करते हुए चलते हैं... अकेला रास्ता होता है... कोई आगे पीछे नहीं होता तो खुल कर बात हो सकती है... होती भी है... बूंदों से, बिखरे पत्तों से, और उन पत्तों से भी जो अभी तक बचे हुए हैं टहनियों पर... बात बादल से भी होती है... हवा जब तेज़ बहती हुई मेरा छाता उड़ा ले जाने का प्रयास करती है तो उसे भी कुछ कह लेते हैं यूँ ही, भले ही वह सुने, न सुने... मेरी बात माने, न माने...! इन सबसे बात करते हुए अपने अपनों से भी बात होती ही है... जो साथ न होकर भी साथ ही तो चल रहे होते हैं...इतना कुछ होते होते रास्ता तय हो जाता है और हम अपने गंतव्य तक पहुँच जाते हैं... जहां एक व्यस्त और लगभग सुन्दर दिन मेरा इंतज़ार कर रहा होता है!
रास्ते नहीं चलते साथ
चलना तो हमें ही है...
पर राह के दृश्य साथ ही तो चलते हैं
भले ही वे एक स्थान पर थमें ही हैं...
कि राही का सफ़र आसान हो!
कोई न हो तो भी किसी अपने के साथ का ही भान हो!!
एकाकी होते हैं हम सफ़र में
पर कोई है जो सदा हमारे साथ चलता है...
हममें से हर एक के पास एक मन है
वहाँ कितने ही सपनों का स्वप्न पलता है...
उन्हीं में से किसी सपने का रूप अभिराम हो!
साथ चले जो हाथ थामे तो राह कुछ आसान हो!!
जीवन की डगर पर
फूल भी हों, हों कांटे भी...
खुशियाँ दे या दर्द, जो भी दे ज़िन्दगी
उसे हम अपने अपनों संग बांटें भी...
कि कह दी जाए बात और दर्द अंतर्ध्यान हो!
कोई न हो तो भी किसी अपने के साथ का ही भान हो!!
चलते हुए तो साथ चलती ही है कविता, हवाएं ले आती हैं दूर देश से उन्हें और गुन गुन कर उठता है शांत सा वातावरण, अभी जब लिख रहे हैं वृत्तांत तो भी कविता जैसा ही कुछ घटित हो रहा है... कौन जाने!
कुछ देर में पांच बजने को है अब... और दो घंटे में पुनः रास्तों संग हो लेना है हमें... तब तक कितने ही काम निपटाने हैं... कितनी ही बातें करनी हैं अपने आप से और अपने अपनों से...!!!
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श्रद्धा की राह में...!
ये किस द्वन्द में
पड़ गए हम...
कौन भक्त
कौन भगवन...?
श्रद्धा की राह में
होता है...
दो अव्ययों का
एक ही मन...
कभी कृष्ण
पाँव पखारते हैं,
कभी सुदामा की
आँखें नम...
दोनों में
भेद ही नहीं है,
सखा भाव के समक्ष
सारे भाव गौण...
आईये
मन की आँखों से देखते हैं-
ये अद्भुत लीला,
ये दिव्य आयोजन...
और ये सत्य जान कर
मान कर...
इसी क्षण
हो जाएँ अभिभूत हम
कि... ... ...
श्रद्धा की राह में होता है,
दो अव्ययों का एक ही मन... !!
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कुछ एक शब्द... कुछ एक भाव... और वही 'प्रेरणा'जो लिख गयी यह पंक्तियाँ...'प्रेरणा'को नमन करते हुए, कह रहा है मन, भक्त और उनके भगवान की जय...!!!
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कितनी ही बार ऐसा होता होगा...!
कितनी ही बार ऐसा होता होगा...
हंसती हुई डगर पर मन रोता होगा...
मन की अपनी दुनिया है
उसके अपने किस्से हैं...
उसकी अपनी कहानियां है,
वह अपनी मर्जी से
गम के प्याले पीता होगा
कितनी ही बार ऐसा होता होगा...!
संसार के अपने तौर तरीके हैं
मन का संसार निराला है...
कहीं कुछ गहरे तो कहीं रंग कुछ फीके हैं,
उन रंगों में इंतज़ार का अनूठा रंग
बरबस जीता होगा
कितनी ही बार ऐसा होता होगा...!
फूलों का मुरझाना औ'पुनः खिलना
हारे थके मुरझाये हुए मन को जैसे...
साक्षात किसी ज्योत का मिलना
कितने तार-तार अरमानों को वह फिर
अनगढ़ प्रयास से सीता होगा
कितनी ही बार ऐसा होता होगा...!
हंसती हुई डगर पर मन रोता होगा...
कितनी ही बार ऐसा होता होगा...
↧
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कुछ कुछ साकार...!
घाव भर जाते हैं...
समय सब ठीक कर देता है...
जीवन में बस एक मन का रिश्ता हो
तो बदल सकती है दुनिया
इस कदर
कि खुद अपनी नज़र में
हम बदल जाते हैं...
बेहतर हो जाते हैं...
करने लगते हैं खुद से प्यार
जीवन और जिजीविषा जैसे शब्द
हो जाते हैं
कुछ कुछ साकार
झूठी मूठी सी इस दुनिया में
फिर एक कली सा
खिल आता है
स्नेह का संसार
यादों के अमित अतल अनन्य
अनुपम हैं संस्कार
दर्द भरे कुछ गीत हैं गुन गुन करते से
अगाध भावों के सान्निध्य से नम सुर संसार
एक अनूठी शीतलता का भान
और उस क्षण की महिमा अकथ अपार
जब... ... ...
जीवन और जिजीविषा जैसे शब्द
हो जाते हैं
कुछ कुछ साकार!
↧
सदियों का ये नाता है...!
कहने को कितना कुछ है, और नहीं है कुछ भी
कि बिन कहे ही हो जानी हैं
सब बातें संप्रेषित
हम नहीं समझ पाते कभी
उन अदृश्य तारों को
जो जोड़ता है हमें...
अनचीन्हे ही रह जाते हैं
स्नेहिल धागे
जो बांधते हैं हमें...
हम ये नहीं सोच पाते कई बार
कि जिस एक ही चाँद को
निर्निमेष निहार रहे हैं हम
वह सम्प्रेषण का सदियों से अद्भुत माध्यम रहा है
एक मन का विम्ब दूसरे में बो आता है
तेरा मेरा सदियों का नाता है... ... ...
सूरज से रौशनी लेकर चाँद जगमगाता है
धरती की खातिर दोनों का उद्देश्य एक हो जाता है
जीवन के बीज सकल
धरती पर लहलहाये
चाँद सूरज इसी दुआ संग
सदियों से उगते आये
उनको युगों युगों से उगना और डूबना भाता है
ये कोई आज कल की बात नहीं... सदियों का ये नाता है...!!
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काश...!
बहुत अँधेरी है रात... आसमान में एक भी तारा नहीं... चाँद भी नहीं... हो भी तो मेरी धुंधली नज़रों को नहीं दिख रहा... बादल हैं इसलिए नीला अम्बर भी कहीं नहीं है...! दिन भर नहीं रहा उजाला तो रात तो फिर रात ही है... अभी कहाँ से होगी रौशनी...वैसे भी मौसम ही अंधेरों का हैं... सर्दियाँ आ गयीं हैं न... यहाँ सर्दियों में नहीं होती कुछ ख़ास रौशनी... होती भी है तो जैसे छलती हुई प्रतीत होती है... कभी जो उग आये दिनमान तो उग आये नहीं तो घड़ी ही बताती है कि कब हुई सुबह और फिर घड़ी ही बताती है कि कब शाम आई...!शाम होने को थी आज... मन उदास था... कहीं जाना था उसे... सो बस निकल गए हम यूँ ही... बिना किसी उद्देश्य के... कहीं पहुंचना नहीं था... कहीं पहुंचे भी नहीं... पर भटकना भी तो राहों की पहचान देता है... सो भटकते रहे... साथ था रास्ता इसलिए चलना नहीं खला और फिर राह ही तो मंजिल होती है कई बार!
शून्य से नीचे ही रहा होगा कुछ टेम्परेचर... अच्छा लग रहा था चलना... कोई जल्दी जो नहीं थी... कहीं पहुंचना जो नहीं था...! हवा में ठंडक होनी ही थी... थी ठंडक, पर अच्छा लग रहा था जब ठंडी हवा छूती थी... मानों कुछ कह रही हो हमसे... जो जो कहा हवा ने सब सुना हमने... और हवा से ही कहा कि हमें भी ले चले अपने संग कहीं दूर जहां ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में स्वयं विद्यमान हो...! हवा क्या करती... हंसती हुई बढ़ गयी... बढ़ने से पहले कहा:: जहां हो वहीँ रहो और जो क्लिष्ट कर रखा है न... करो उसे सरल... सहज... सफल... ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में तुम्हारे पास ही है, तुमने ही कर रखा है उसे जटिल...!चलते हुए बहुत दूर निकल आये थे... यात्रा में होना अच्छा है पर घर लौटना ज्यादा अच्छा है... यही सोच कर अब वापसी की ट्रेन में बैठ गए थे... अब पूरा अँधेरा हो चुका था... शाम हो चुकी थी समय के हिसाब से और अँधेरा कह रहा था कि रात घिर आई है...
बहुत से अधूरे काम है... घर बिखरा हुआ है मन की ही तरह... जाने कब समेटेंगे... आने वाले मंगलवार की परीक्षा हो जाए तब शायद... या फिर बुधवार को असाईनमेंट सबमिट करने के बाद... क्या पता...? शायद समेट भी लें, पर क्या फायदा... फिर तो बिखर ही जाएगा न...!
काश...
हमारे अनुरूप ही चलती ज़िन्दगी
काश...
हम चाहते
और बदल जाता मौसम
काश...
कोई होता
हर क्षण पास
आंसू चुनने को...जब कभी होती आँखें नम
काश...
हम चुन पाते
अपने अनन्य की आँखों का दर्दतो बिन लेते एक एक कण मेरी विनती सुन दे देते हमें वो अपने सारे गम
काश...
ज़िन्दगी सरल होती यूँ न गरल होती
काश...
ओह! कितने सारे काश...
इससे मिलेगी क्या कभी मुक्ति...?
जीवन हो गया जाने क्या क्या बिसर गयी भक्ति...?
काश...
प्रश्न चिन्हों को मिलता विराम
मन कुछ क्षण तो करता फिर विश्राम
काश...
काश! मिलता कभी अवकाश...!
काश क्षितिज पर सचमुच मिलते धरती और आकाश...!!!
शून्य से नीचे ही रहा होगा कुछ टेम्परेचर... अच्छा लग रहा था चलना... कोई जल्दी जो नहीं थी... कहीं पहुंचना जो नहीं था...! हवा में ठंडक होनी ही थी... थी ठंडक, पर अच्छा लग रहा था जब ठंडी हवा छूती थी... मानों कुछ कह रही हो हमसे... जो जो कहा हवा ने सब सुना हमने... और हवा से ही कहा कि हमें भी ले चले अपने संग कहीं दूर जहां ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में स्वयं विद्यमान हो...! हवा क्या करती... हंसती हुई बढ़ गयी... बढ़ने से पहले कहा:: जहां हो वहीँ रहो और जो क्लिष्ट कर रखा है न... करो उसे सरल... सहज... सफल... ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में तुम्हारे पास ही है, तुमने ही कर रखा है उसे जटिल...!
बहुत से अधूरे काम है... घर बिखरा हुआ है मन की ही तरह... जाने कब समेटेंगे... आने वाले मंगलवार की परीक्षा हो जाए तब शायद... या फिर बुधवार को असाईनमेंट सबमिट करने के बाद... क्या पता...? शायद समेट भी लें, पर क्या फायदा... फिर तो बिखर ही जाएगा न...!
काश...
हमारे अनुरूप ही
काश...
हम चाहते
और
काश...
कोई होता
हर क्षण पास
आंसू चुनने को...
काश...
हम चुन पाते
अपने अनन्य की आँखों का दर्द
काश...
ज़िन्दगी सरल होती
ओह! कितने सारे काश...
इससे मिलेगी क्या कभी मुक्ति...?
जीवन हो गया जाने क्या क्या बिसर गयी भक्ति...?
काश...
प्रश्न चिन्हों को मिलता विराम
मन कुछ क्षण तो करता फिर विश्राम
काश! मिलता कभी अवकाश...!
काश क्षितिज पर सचमुच मिलते धरती और आकाश...!!!
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