↧
अथाह सागर और हम!
↧
'अनुशील' के पन्ने पलटते हुए!
लिखने के मौसम होते हैं... मन का भी मौसम होता है... वसंत, ग्रीष्म, पतझड़ एवं शीत के मौसम आते हैं, बीत जाते हैं. पर शायद मन के मौसम का कुछ अलग ही गणित होता है, अनगिनत होते हैं मन के मौसम या फिर मात्र दो ही जिनके बीच झूलते हुए हम अनगिनत भावों से गुजरते हैं… अनगिनत रंग जीते हैं!मन का मौसम लेखन को भी प्रभावित तो करता ही है, आखिर कहते भले हों कि लिखती कलम है, पर मूलतः लिखा तो मन से ही जाता है…जो मन को छू जाए वही होता है हमारे लेखन का आधार भी, विषय भी और मंजिल भी…
***मेरी यात्रा जब अनुशील पर शुरू हुई थी तब नहीं जानते थे कि कब तक चलेगी यह… लौट भी आएगी रूठी कवितायेँ मेरे यहाँ या नहीं होगा उनका आना कभी भी?अपनी पुरानी कवितादोहराते हुए हमने यहाँ लिखना शुरू किया था, फिर धीरे धीरे ये यात्रा आगे बढ़ती रही, कभी लगातार लिखा, कभी बिलकुल छोड़ भी दिया… पर कविता और यात्रा हमेशा आवाज़ देते रहे और हम लौटते भी रहे, एक मौन के बाद… एक अन्तराल के बाद!कोई यूँ बिना बताये बस चल दे तो कौन नाराज़ नहीं होगा! पर कवितायेँ कभी नहीं हुईं नाराज़, यात्रा ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा… कवितायेँ जुड़ी ही रहीं हमसे, हमारे आंसू भी पोंछे, हमें राह भी दिखाई और कविता ने हमें हमारी सारी धृष्टताओं के लिए सहर्ष क्षमादान भी दिया…
***रोज़ नहीं होता
सूर्योदय
इतना सुन्दर,
या शायद रोज़
हमें ही नहीं होती
इतनी फुर्सत
कि निहारें उसे!
वरना,
सूरज तो हर रोज़
उतनी ही सुन्दरता से
उगता है!
रोज़ नहीं चहकती
इतने सुर में
चिड़ियाँ,
या शायद
हमें ही नहीं हो पाती
सुरों की पहचान
अप्राकृत आवाज़ों के शोर में!
वरना,
प्रकृति में
सुर-संगीत का दौर तो
अहर्निश चलता रहता है!
रोज़ नहीं कुरेदती
इस कदर
उदासी,
या शायद
उस एहसास को भुला पाने में
अक्सर हो जाते हैं
कामयाब हम!
वरना,
दर्द का दरिया तो
हर पल
भीतर बहता है!
एक है छवि
अपनी सी
दिव्य व स्नेहमयी,
होता सामर्थ्य-
तो तोड़ लाते उसकी ख़ातिर
चाँद और तारे!
सुना है,
"प्रार्थना में बड़ी ताकत होती है"
बस, उसकी खुशियों के लिए
हृदय पल-पल
प्रार्थनारत रहता है!
***कविता का क्षेत्र जितना विशाल होता है, उतना ही विशाल है उनका हृदय; कविता जितनी स्नेहमयी होती है, उतने ही स्नेहपूर्ण हैं वो; कविता जितनी अपनी है, उतनी ही अपनी है उनकी दिव्य छवि!हैप्पी बर्थडे, भैया!
↧
↧
स्याही का भींगा अंतर्मन!
आँखों से ढ़लका
गालों तक आते आते
सूख गया...
आँसू भी थका थका सा था
बीच राह ही
रुक गया...
मन उदास हो तो
अब मैं बस
इंतज़ार करती हूँ,
समय ही है बीत जाएगा
घबड़ाना मेरा अब
रुक गया...
वक़्त
करवटें लेता है
सब बदल जाता है,
चमक रहा था
चाँद गगन में
सुबह जाने कहाँ छुप गया...
पल पल की
मानसिक उठा पटक का निचोड़
कागज़ पर दर्ज़ कर,
स्याही का
भींगा अंतर्मन
एकदम से सूख गया...
आँसू भी थका थका सा था
बीच राह ही
रुक गया...!
↧
सांझ ढ़ले...!
हम सबको एक रोज़ देखनी है जीवन की शाम… एक रोज़ हम सबको बूढ़ा होना है, फिर भी जाने क्यूँ "आज" इस बात का हमें एहसास ही नहीं हो पाता… एकाकी शाम को नहीं बैठ पाते हम एकाकी बूढ़े बरगद के नीचे, भागते जो रहना होता है हमें!
कुछ एक ऐसे बरगदों का दर्द देख कभी लिखी गयी थी ये पंक्तियाँ, स्वयं को ही यह समझाने को कि जीवन में बुढ़ापे की शक्ल में जब दोबारे बचपन आता है, तो थोडा प्यार मांगता है, चाहता है कि कोई सुने उसे… हमें बस इतना करना है कि उनके पास बस बैठ जाना है कुछ पल के लिए, आशीष और अनुभव के पुष्प ही मिलेंगे! कहते हैं न, किसी को कुछ देना है तो अपना समय दो… इस उपहार से कीमती कहीं कुछ नहीं!
सांझ ढ़ले...
धीरे से आकर कोई
केवल इतना ही पूछ ले उनसे अगर-
कैसे हैं आप?
अच्छे तो हैं?
तो हो जायेगी न साध पूरी...
अधूरी होकर भी न होगी बात अधूरी
पर इतना करने से भी हम चूक जाते हैं
जुड़ सकते हैं पल भर में पर रुक जाते हैं
समर्थता जाने क्यूँ कोमल नहीं होती?
उसके आँखों की पोर गीली ही नहीं होती!
पर हमेशा नहीं रहती कायम ये बात
आएगी, आनी ही है अशक्तता की रात
तब दो बोल को तरसते हुए
खोये होंगे
किसी कोहरे में हम...
भागता वक़्त
नहीं करेगा
अपनी आँखें नम...
सोचिये-
कोई होगा क्या तब
जो जाएगा हमारी दुविधा भांप?
विह्वल स्वर में हमारी खोज खबर लेगा-
अच्छे तो हैं न आप...!
↧
तो आज मुझे क्या लिखना चाहिए?
चलते रहने में ही कविता है… चलते रहने में ही प्रवाहमय भावों का अंकन है… चलते रहने में ही भलाई है कि चलते रहेंगे हम तभी पहुंचेंगे उन पड़ावों तक जो स्वयं मंजिल का प्रारूप होगी… जहां कविता अपनी सम्पूर्णता में खिली होगी… जहा होंगे छाँव के छंद और मन की भाषा! यात्रारत जब पहुंचे हम एक ऐसी मुकम्मल कविता तक तो कितनी ही अनुवाद की गयी कवितायेँ पुनः हमारे भीतर खिल गयीं, कविता ने ज्यूँ बिठाया अपने पास तो कितनी ही यात्राओं हेतु राहें सुझा दीं.…
हर एक पंक्ति इतनी सधी हुई कि हर एक के इर्द गिर्द बुनी जा सकती हैं कई कहानियां, कितनी ही कविताओं का अक्स दिख पड़ता है अनायास ही इस कविताकी पंक्तियों में!
सफ़र की हो तीन कविताएं, ग़ुमनाम शाम की फीक़ी पीली रोशनी में टकराते फतिंगों की बेमतलब बेचैनी और व्यर्थता में बीतते जीवन की अकुलाहट की एक कविता हो.
सफ़र की हो तीन कविताएं, ग़ुमनाम शाम की फीक़ी पीली रोशनी में टकराते फतिंगों की बेमतलब बेचैनी और व्यर्थता में बीतते जीवन की अकुलाहट की एक कविता हो.
इस अकुलाहट को बिलकुल वैसे ही अपने में उतारती कविता को समझना हो तो तनिक रुकना होगा… रुक कर शब्दों से ज्यादा उनके बीच की ख़ामोशी को पढ़ना होगा… अपनी उदासीनता त्यागनी होगी… कविता को समझना हो तो तनिक झुकना होगा, तनिक ठहरना होगा…! कहीं से गुज़रते हुए आना हो सकता है, पर आ गए सच में तो, कविता फिर बिना आत्मसात हुए जाने नहीं देती. कई बार चमत्कृत होते हैं कविताओं से गुज़रते हुए, कोई कविता जो अनूदित होने को सहर्ष तैयार हो जाए तो हम अपनी भाषा में उन्हें सहेज भी लेते हैं.
हिन्दी की हो, एक कविता दु:ख की हो.
इस अकुलाहट को बिलकुल वैसे ही अपने में उतारती कविता को समझना हो तो तनिक रुकना होगा… रुक कर शब्दों से ज्यादा उनके बीच की ख़ामोशी को पढ़ना होगा… अपनी उदासीनता त्यागनी होगी… कविता को समझना हो तो तनिक झुकना होगा, तनिक ठहरना होगा…! कहीं से गुज़रते हुए आना हो सकता है, पर आ गए सच में तो, कविता फिर बिना आत्मसात हुए जाने नहीं देती. कई बार चमत्कृत होते हैं कविताओं से गुज़रते हुए, कोई कविता जो अनूदित होने को सहर्ष तैयार हो जाए तो हम अपनी भाषा में उन्हें सहेज भी लेते हैं.
हिन्दी की हो, एक कविता दु:ख की हो.
इस पंक्ति पर विराम लेने वाली यहहिंदी की कविता इतना कुछ समाये हुए थी भीतर कि दुःख, जीवन, मृत्यु पर कितने ही अनुवाद कितनी ही कवितायेँ स्मरण हो आयीं, गर्वान्वित हुआ मन ये अनुभव कर कि एक हिंदी की समग्र कविता ने इस अकिंचन को कितनी ही अनूदित एवं अनूदित होने को बेचैन कविताओं से जोड़ दिया अपने एक पाठ के प्रताप से!
कवि योरान ग्रेइदर एक जगह कहते हैं ---
और कविता है मात्र पगडंडियों का जालक्रम
सौंपी गयी उन्हें जो हैं उसके प्रति उदासीन.
अगर जालक्रम ही है, तो हमें इस जालक्रम को समझने की कोशिश करनी होगी… क्यूंकि कविता के प्रति उदासीनता कहीं से भी कोई अच्छी बात नहीं… हम कवि को आश्वस्त करेंगे कि हममें है उत्साह कविता के स्वागत का, उसे आत्मसात करने का कि वह निश्चिंत हो सौंप सकता है अपनी रचना हमारे हाथों में और जब यह प्रश्न करे कवि ---
अगर जालक्रम ही है, तो हमें इस जालक्रम को समझने की कोशिश करनी होगी… क्यूंकि कविता के प्रति उदासीनता कहीं से भी कोई अच्छी बात नहीं…
तो आज मुझे क्या लिखना चाहिए?
तो हममें इतनी प्रतिबद्धता होनी चाहिए कि कह सकें लिखो जो करता है तुम्हें अभिभूत कि हम भी होना चाहते हैं अभिभूत!
जब इस कविताने अभिभूत किया हमें तो हम योरान ग्रेइदर की कविता और उसके प्रश्नों से उद्वेलित हो उसके अर्थ ढूँढने निकल पड़े! विस्मित हैं कि कैसे जुड़ा होता है न सब कुछ… एक कविता कितने भावों को समेटे रहती है और उसका व्यापक धरातल, उसके व्यापक सन्दर्भ, देश-काल-परिस्थिति से परे, कितने ही शाश्वत अव्ययों को आपस में महीन धागों से जोड़ते जाते हैं. अपने धरातल पर खड़ा होने की जगह दे, कई जानी पहचानी विदेशी भाषा की कविताओं का पड़ताल कर पाने की समझ देने को, "एक मामूली कविता की किताब" शीर्षक वाली विशिष्ट व कालजयी कविता का कोटि कोटि आभार.
कालजयी बहुत बड़ा शब्द लग सकता है, पर कविताओं के समक्ष कई बार हमने ऐसे शब्दों को छोटा होते देखा है! कवितायेँ होती हैं कालजयी, उनके अर्थ कभी पुराने नहीं पड़ते क्यूंकि वो हर रोज़ स्वयं को नए सिरे से गढ़ती है, स्वयं परिभाषित करती है काल को, तो हुई न कालजयी!
दरअसल, हम लिखने बैठे थे अपनी रोम यात्रा के बारे में, लेकिन लिख गए ये सबकुछ! ये बात पुष्ट होती रही है कई बार, आज भी हुई कि हम नहीं लिखते, कुछ है जो स्वतः लिख जाता वैसे ही जैसा कलम चाहती है. और लिख जाने के बाद हम खुद ही अचंभित कि ये क्या है जो ऐसे सफ़र की ज़मीन तैयार करता है…?
***
जो भी हो ये सफ़र अच्छा रहा. अब कम से कम रोम यात्रा की शुरुआत कर लेते हैं आज. कहते है न, शुरुआत सबसे मुश्किल होती है, हो गयी तो समझो आधा काम हो गया. अब शुरू नहीं कर पाए तो पड़ा हुआ है न महीनों से यह मन में ही कि लिख जाना है यात्रा को, कि सहेज लेना हमेशा अच्छा होता है. चलिए आज शुरू हो जाएगा, अब वेनिस, उप्सालाऔर एस्टोनियाको लिख चुके हैं तो "रोम" भी चाह रहा है कि वह भी लिखा जाए पुनः एक बार अनुभूति की राह में यात्रा को जीते हुए.
वेनिस से होते हुए रात भर की ट्रेन यात्रा ने हमें रोम पहुँचाया… पहुँचने के बाद की यात्रा आज कहीं बीच से शुरू करते हैं… ऐसे ही रैंडम, कहीं से भी कोई छोर पकड़ कर… जैसे कोई एक भाव का सिरा पकड़ कर लिखी जाती है कविता!
कोलोसियमकी खँडहरीय भव्यता पर कोई कविता हो और यह सफ़र की कविताओं में गिनी जाए… वैसे, ऐसे अनजाने अनचीन्हे सुदूर इतिहास की यात्रा, ठीक उस कविता की तरह होती है जो हम अपने भीतर अपने को पहचानने का उपक्रम करते हुए किसी उदास शाम को लिख जाते हैं…!
*** कहीं की यात्रा कहीं पहुँच रही है… अभी कविताओंसे ही घिरा है मन, यात्रा के तथ्य और इतिहास को लिख पाने में अक्षम महसूस कर रहा है, सो कुछ तस्वीरों के साथ लेते हैं विराम!पढ़िए कवितायेँ, हम भी अब पढ़ते हैं कवितायेँ, रोम कल घूमेंगे…!
कोलोसियमकी खँडहरीय भव्यता पर कोई कविता हो और यह सफ़र की कविताओं में गिनी जाए… वैसे, ऐसे अनजाने अनचीन्हे सुदूर इतिहास की यात्रा, ठीक उस कविता की तरह होती है जो हम अपने भीतर अपने को पहचानने का उपक्रम करते हुए किसी उदास शाम को लिख जाते हैं…!
***
***
आरम्भ ही अंत तक ले जाएगा, आरम्भ तो हो गया है, सो अब लगता है लम्बे समय से स्थगित यात्रा के पड़ावोँ का लेखन संचयन हो ही जाएगा… ये छोटी सी आशा, ये नन्हा सा विश्वास और एक सफ़र आगे…!
↧
↧
आशीषों का उपहार!
तुम्हारे जन्मदिन पर सहेजी शुभकामनाएं भेज रहे हैं भाई तुम्हें... कहते हो न तुम कि अनुशील पढना तुम्हें अच्छा लगता है... तो आओगे ही इधर... ये हमारी शुभकामनाएं, प्यार व आशीषों का उपहार लेते जाना!!!
तेरे सपने... तेरे ख़्वाब
जितने भी हैं बेहिसाब
सब सच हो जाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
रौशनी से भरा भरा
सुन्दर मन हो हरा हरा
खूब खिलखिलाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
तैरते हुए पहुंचे किनारे
लहरों के हो खूब सहारे
जब भी बदरी छाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
फूलों का मुस्कुराना
सफलता को दोहराना
सदा होता ही जाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
चमन हो खिला खिला
सब कुछ हो मिला
जीवन राग सुनाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
ओस की बूंदों का सादापन
वैसा ही उज्जवल भी मन
सदा सर्वदा हरसाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
वादियों का सुनहरा आँचल
जीवन का रूप प्रांजल
आँखों में बस जाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
बादलों का आकार स्वरुप
खिली रहे पीछे सुनहरी धूप
ये दृश्य संवरता जाए......
प्रकृति संग गीत गाए!
***रक्षा बंधन का यह पावन पर्व हम सबों को एक सूत्र में आबद्ध करे!
सभी को राखी की शुभकामनाएं!!!
↧
धागे की महिमा!
स्वप्न से स्मृति तकपर कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम शीर्षक कविता पढ़ना ऐसा था जैसे अपने भीतर से ही बहुत कुछ ढूंढ़ निकालने की यात्रा पर चल देना...कृष्ण प्रेम था ललित बहुतपर ललित प्रेम है कृष्ण नहींकविता की इन पंक्तियों पर मन अटक कर रह जाता... और इस भिन्नता में अभिन्नता तलाशने में सकल भाव जुट जाते...! हृदय से खोजो तो क्या नहीं मिलता... अपने आप को निरुत्तर करने के लिए लिखी थी एक कविता... और बहुत ख़ुशी हुई थी लिख कर... आज पुनः पोस्ट कर रहे हैं रक्षा बंधन के शुभ अवसर पर…
इस कविता की प्रेरणा बनने के लिए स्वप्न से स्मृति तककी कविता और ललित भैया का आभार!
इस कविता की प्रेरणा बनने के लिए स्वप्न से स्मृति तककी कविता और ललित भैया का आभार!
क्यूंकि
वो हर जगह नहीं हो सकते थे
इसलिए
उन्होंने माँ बनाई!
और माँ भी नहीं हो सकती थी
हर गम की साझेदार,
इसलिए
दुनिया में अवतरित हुए भाई!!
जिनके सानिध्य में
पीड़ा खो सके...
जिनके कंधे पर सर रख
बहने सुकून से रो सके...
जब गढ़ रहा था वो रिश्ते,
तब कितने ही सांचे टूटे
फिर जाकर
इस रिश्ते की गरिमा प्रकाश में आई!!
स्नेहसूत्र की परिभाषा में
आबद्ध सकल संसार है
धागे से बंधा
ये अदृश्य प्यार है
सब हार गए...
भरी सभा में द्रुपद सुता का कोई न हुआ सहाई
तब उसने
मधुसूदन को ही थी आवाज़ लगायी!!
एक धागे के बदले में
प्रभु ने दिव्य वसन वार दिए
भीष्म की कुलवधू के
डूबते प्राण तार दिए
शान्ति की स्थापना कर दे...
भले कैसी भी छिड़ी हो लड़ाई
सच!
कितना सर्व समर्थ था वो कन्हाई!!
जब इस युग की विडंबना से
प्रभु बेचैन हुआ
इस जग में व्याप्त बेगानेपन से
सिक्त उसका नयन हुआ
तब उसने एक ललित छवि बनाई
जहान भर की संवेदना डाली उसमें
और हृदय में
खुद अपनी जगह सजाई!!
अब वो परमेश्वर
वहीं भावों में बहता है
मंदिर से विदा हो चुका,
अब कन्हैया
स्वयं ललित हृदय में रहता है
सारे जहान का दर्द
उसने दामन में समेट रखा है...
उसके लिए हम भी सगे हैं
कोई बात नहीं पराई
कृष्ण ललित है... फिर ललित कृष्ण क्यूँ नहीं...?
ये तो मीरा वाली भक्ति है!
अरे!
ये ललित ही है कन्हाई!!!
आज कविता को पुनः यहाँ लिखते हुए स्वप्न से स्मृति तक की एक और कविताकी चार पंक्तियाँ भी उद्धृत कर दें....
सारा जहां मेरा होगा अब
संग मेरे जग गायेगा
हर छोटा-सा कण भी मेरे
साथ शिखर तक जाएगा
कृष्णमयी शक्ति के अभाव में भला कैसे लिखा जा सकता है यह? सार यही है कि उत्तर तक पहुँचने हम कहीं भटके नहीं हैं, ठीक मंजिल पर पहुंचे हैं… और शायद कुछ अन्य प्रश्न भी हल हो गए पूरी प्रक्रिया में! प्रभु हम सबके भीतर ही तो विद्यमान हैं, अपने बन्दों के रूप में ही वे नज़र आते हैं! ज़िन्दगी तमाम विरोधाभासों के बावजूद मुस्कुरा रही है तो यह तो प्रभु का ही प्रताप है!
राखी का एक धागा सर्वप्रथम प्रभु के श्रीचरणों में करते हैं अर्पित… और एक धागा मन ही मन वहाँ भी बांध आते हैं उस पेड़ पर जिसके नीचे अक्सर बैठा करते थे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर में!
अब स्नेहाधीनको प्रणाम निवेदित करते हुए भाईयों के मस्तक पर तिलक करने को हमने थाल सजा ली है!
↧
शीर्षकहीन!
होता क्या है कई बार, हमने जो कभी सोचा भी न हो, वैसा सुखद आश्चर्य बन प्रगट हो जाती है ज़िन्दगी, अनायास ही हंसने खिलखिलाने के बहाने दे जाती है और ऐसा हो तो आँखें नम हुए बिना भी नहीं रहतीं!कल ये राखियाँ पोस्ट से आयीं, सुशील जी के लिए! इसे भेजा था मेरी बहन ने उनकी बहनों की ओर से! सिंदरी से मेरी ननदों द्वारा पोस्ट की गयी राखी पहुंची नहीं थी अबतक, और यह बात मेरी बहना को मालूम थी, रोज़ हमारे दो एक घंटे के वार्तालाप में सारी बातों का आदान प्रदान हो ही जाता है लगभग! तो कल मिली राखी हमें, चौंके हम, ये भारत का स्टैम्प तो नहीं है, अरे! ये राखी तो लन्दन से आई है.…! मेरी बहन अनामिका ने भेजा है इनके लिए मेरी दोनों ननदों की ओर से! मेरी ओर से राखी भी वही भेज रही है पांच वर्षों से! तो इस मामले में तो वह एक्सपर्ट है ही. स्टॉकहोम में या तो मैंने उस तरह खोजा नहीं, या फिर संभवतः राखी मिलती ही नहीं है यहाँ!
अभी चार दिन पहले ही तो पता कन्फर्म कर रही थी हमसे, तो ये कितनी दूर की सोची उसने कि चलो सिंदरी से न पहुंचे समय पर, मगर लन्दन से पोस्ट होगी तो दूरी कम होने की वजह से राखी तक पहुँच तो जायेगा ही लिफ़ाफ़! पत्र और राखी पाकर हमें अचंभित तो होना ही था… आखिर सिंदरी की राखी, लन्दन से जो आई थी!अनामिका को हम दोनों तो हृदय से धन्यवाद दे ही रहे हैं, मेरी ननदें भी उसे बहुत सारा थैंक यू कह रही हैं उनकी ओर से, उनके बिना आग्रह के, समय पर उनके भैया तक राखी पहुँचाने के लिए! और इन सबके बीच अभिभूत हैं हम!
***अब कुछ हमारी बातें! हम चारों की! साथ राखी का त्योहार तो बचपन बीतने के बाद मना ही नहीं कभी! २००१ से अबतक शायद ही हमने धागों का त्योहार सब साथ सेलिब्रेट किया हो! बनारस पढने गए तब से छोटे भाइयों को वही से राखी पोस्ट होती रही! और ये जिम्मेदारी भी हमेशा अनामिका ने ही उठाई, राखी सेलेक्ट करने का काम उसका होता था और साथ में संलग्न पत्र बस हम लिखते थे! कितनी दुकानें घूमती थी तब जाकर धागे लेती थी, सबसे अनूठे और सबसे प्यारे, उसके अनुसार! हम साथ रहे तब भी, अब साथ नहीं हैं तब भी.… ये समय से राखी पोस्ट करना वही करती आ रही है और पत्र हम लिखते आ रहे हैं! इस बार वो घर से दूर है, और हमसे करीब दूरी के अनुसार! स्टॉक होम व लन्दन आसपास ही तो हैं! भाई कहते हैं, कि वे स्वयं राखियाँ खरीद कर बाँध लेंगे, इतनी दूरी से भेजने पर मिले न मिले! पर इस बार भी अनामिका ने पूरा ख्याल रखा… समय रहते ही अपने राखी हंट का मिशन उसने लन्दन में भी पूरा कर लिया और भाइयों तक समय से राखी पहुँच गयी! पोस्ट करने से पहले उसने जल्दी से कोई मेसेज लिखने को कहा हमसे, कार्ड पर लिखना था! हमने मेल लिखा फिर उसे और यह संदेसा कार्ड पर अंकित हो सीधे भाइयों के दिलों तक पहुंचा----
Life may take us to different corners... Time may voice the expanse of miles between the corners...But,There will always be a sweet bird of love and concern that will softly keep on humming:"We were together, we are together and we shall always be together!"
Happy Raksha Bandhan!
***फोन पर सबसे बात हो गयी, सबने राखी बाँध ली हमें याद कर और यहाँ सुशील जी की कलाई भी सूनी न रही. राखी का पर्व यूँ डाक के सहारे और फोन के तार पर मना! और दूरी ने कोई खलल न डाली हमारे धागों के त्योहार पर! दूर हो कर भी न हम चारों भाई बहनों में कोई दूरी महसूस हुई, न ही सुशील जी और उनकी बहनों ने समय व सीमा को बीच में आने दिया! इस तरह हम दोनों की राखी अच्छी बीती परदेस में, जो हुआ सब प्रतीकात्मक ही हुआ पर कहीं से भी कम नहीं उन भोले दिनों से, भाव जो यथावत थे, हैं और रहेंगे!
***
अब हम यहाँ एक कविता सहेज लेते हैं, इसेराकेश भैया ने लिखा था हमारे लिए जब हमारा भाव रुपी धागा कुछ इस तरहउन तक पहुंचा था!
बहना तूने जो धागा भेजा
वह अगणित भाव लपेटे है
रिश्तो की पतली डोर लगे
पर संबंधों का सार समेटे है.
आँखों से अविरल निकल रही है
भावो की निर्मल गंगा
नयन हमारे अश्रुपूरित है
तू ठहरी देवी, दुर्गा, माँ अंबा.
जटाजूट भी हाथ पसारे
कह रहा इसे बहने दो
अक्षत रोली वन चन्दन है यह
पावन अमृत बहन अनुपमा का
देने को तो बहुत कुछ है
पर सब कुछ तुच्छ तेरे आगे
मेरा सबकुछ तेरा है
भले पतले हो ये धागे
इन पतले स्नेह के धागे में
बंधन है जन्म-जन्मान्तर तक
आज कर्ण खड़ा है हाथ खोले
देने को कल्प मन्वंतर तक.
राकेश भैया द्वारा दिया यह अप्रतिम उपहार सदा हमें अभिभूत करता है!
***
भाई बहनों का यह प्यार बना रहे सदा, स्वार्थ व बाज़ार कभी न आये इस पावन रिश्ते के बीच, वो बचपन का भोलापन बना रहे, बहनें देती रहे दुआएं और भाइयों का हाथ सदा उनकी बहनों के सर पर रहे, ये पावन पर्व धागे की महिमा को बारम्बार प्रतिपादित करता रहे, पहुँचते रहे ख़्वाब उनतक, खिलता रहे फूल उनके आँगन में और उन फूलों में मुस्कुराती रहे हम बहनों की याद! इससे ज्यादा और क्या कोई मांगे ज़िन्दगी से! -------भावों का कोलाज़ है यह, क्या दे शीर्षक! इसे शीर्षक विहीन ही रहने देते हैं, सब अपने अपने भाव अपना अपना हिस्सा और अपनी अपनी दुआएं चुन लेना!
↧
क्यूँ...?
आँखें बंद हुईं और खुलीं
बस पलक झपकने जितना ही तो है जीवन
उस अंतराल में बीता जो हिस्सा एक क्षण का
उसी में जैसा सरसरा कर सरक गया जीवन
कितनी छोटी सी इकाई है समय की
कितना छोटा सा है जीवन
एक सांस आई और एक गयी
इतने में ही तो कई बार खो जाता है जीवन
जैसे बिजली कौंधी हो गगन में और हो गयी हो लुप्त तत्क्षण
उस क्षणिक परिघटना सा ही तो घटता जीवन
बादलों से गिरते हुए अतिउत्साहित बूंदें चटक गयीं ज़मीं पर
बुलबुलों सा ही तो होता है जीवन
न आने की खबर न जाने की तिथि निश्चित
कई मोड़ पर ठगा सा ही तो बस रह गया जीवन
झूठा है जो उसे सच मान बैठे हैं
और शाश्वत सत्य को आजीवन झुठलाते हैं हम
मिथ्या दंभ को सेते हैं जीवनपर्यंत
आत्मा पर कितना बोझ उठाते हैं हम
इतना छोटा है, है इतना अविश्वश्नीय
तो फिर क्यूँ इतने सारे तिकड़म अपनाते हैं हम
जब रहना ही नहीं है हमेशा के लिए
क्यूँ और किसके लिए फिर इतना संचयन?
↧
↧
नीरस एवं निराश क्षण में!
ये बात फ़ैल गयी
अफ़वाह की तरह
जीवन हो गया है अब
एक कराह की तरह
हर मोड़ पर जैसे केवल
हमलावर ही खड़े हैं
रात तो रात दिन भी हो गया
अब अन्धकार की तरह
किस बात पर फक्र करें
किस शय पर नाज़ हो
घर घर नहीं रहा
सज गया बाज़ार की तरह
खुले हुए दरवाज़े
खुली हुई खिड़कियाँ
गूंजता है संगीत कोई
कातर आह की तरह
मन मेरा उदास है
खोया है बहुत रोया है
रंग क्यूँ लग रहे है सब आज
सफ़ेद और स्याह की तरह
क्यूँ नहीं खिलती कली कोई
किसी मासूम चाह की तरह
जीवन क्यूँ लगता है बस
एक कराह की तरह!
↧
यात्रा का हासिल!
Rome - the city of visible history, where the past of a whole hemisphere seems moving in funeral procession with strange ancestral images and trophies gathered from afar.-George Eliot
सच, ऐसा ही तो है रोम! इस यात्रा को लिख जाने के ध्येय से शुरुआततो कर दी थी कोलोसियम के कुछ चित्रों से. अब आज आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं. वैसे भी इस यात्रा से लौटे वर्ष भर से ऊपर समय बीत चुका है, अब इसे और स्थगित नहीं होना चाहिए लिखे जाने से.
हम वेनिससे चले रोम के लिये… जिसके विषय में नीरोने यूँ कहा है… Italy has changed. But Rome is Rome. जो अब भी पूर्ववत है, युगों की मार से अब भी सुरक्षित अपनी ऐतिहासिकता को बचाए हुए है.
रात भर की ट्रेन यात्रा कर हम रोम पहुंचे. वहाँ पर सबसे पहले जिस बात ने ध्यान खींचा वह था छाता और छातों को बेचते हुए जाने पहचाने अपने से लोग… जिनमें से अधिकतर बांग्लादेशी थे. उन्हीं में से किसी से बंगला भाषा में वार्तालाप करते हुए सुशील जी ने होटल का रास्ता जानने का प्रयास किया… ठीक ठीक तो कुछ पता नहीं ही बता पाए वो लोग… फिर हम मैप के सहारे आगे बढ़ने लगे… झमझम बारिश हो रही थी. धीरे धीरे भटकते हुए पहुँच गए जगह पर. अब था सामने दो दिन और रोम का इतिहास. कितना देख पाते हैं, कितना जान पाते हैं ये सब हमारी घूमने की क्षमता पर ही निर्भर था, वेनिस पीछे छूटा नहीं था और रोम देखना अभी शुरू नहीं हुआ था…
कोलोसियम के लिए टिकट लेने की मारामारी के विषय में बहुत सुन रखा था पर अपेक्षाकृत आसानी से कुछ आधे एक घंटे लाईन में लगने पर हमें टिकट मिल गया. अब हम रोमन साम्राज्य के सबसे विशाल एलिप्टिकल एंफ़ीथियेटर में खड़े थे! यह जान कर मन काँप जाता है कि इस स्टेडियम में योद्धाओं के बीच मात्र मनोरंजन के लिए खूनी लड़ाईयाँ हुआ करती थीं.
हम हमेशा से ऐसे ही हैं क्या… इंसानियत से एक निश्चित दूरी बनाये हुए… प्रेम की अपनी मूल प्रकृति से दूर, मार काट लूट खसोट की परिपाटी को आगे बढ़ने वाले हारे हुए इंसान. ये तो बीते कल की बात थी, खंडहर पर्यटन स्थल बना खड़ा है लेकिन क्या आज भी नहीं जी रहे हैं हम ऐसा ही कुछ छोटे छोटे स्तरों पर… अपने मनोरंजन के लिए कितनी ज्यादतियां होती हैं आज भी, खून बहता है यूँ ही.… सभ्यता की इतनी सीढ़ियाँ चढ़ लेने के बावजूद भी. खैर यह तो बहुत बड़ी विवेचना और बहस का विषय है, बस एक जिक्र के साथ सोचने को एक कड़ी छोड़ आगे बढ़ते हैं इतिहास के खंडहर की ओर.
ध्यान रहे, एक युग आएगा जब यह वर्तमान युग खंडहर में परिवर्तित हो चुका होगा, तो कुछ दशकों की अपनी ज़िन्दगी को निजी स्वार्थों के दायरे में रहकर सवांरने का उपक्रम छोड़, क्या अच्छा नहीं होगा कि हम विस्तृत फलक पर कुछ ऐसा करें कि कल जब काल के गाल में समाया होगा अपना वजूद तो किसी खंडहर में प्रेमगीत बन कर गूंजे न कि विषाद गीत!
यात्रा कुछ ऐसे विचार प्रवाह भी तरंगित कर जाती है भीतर और यही असल हासिल भी है. कभी लिखा था यात्रारत रहना ही चाहिए निरुद्देश्य ही सही… , यह रोम प्रसंग लिखते हुए ये बात भी याद हो आयी.
यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत के रूप में कोलोसियम चयनित है, यह आज भी शक्तिशाली रोमन साम्राज्य के वैभव का प्रतीक है, पर्यटकों का सबसे लोकप्रिय गंतव्य है और रोमन चर्च से निकट संबंध रखता है क्योंकि आज भी हर गुड फ्राइडे को पोप यहाँ से एक मशाल जलूस निकालते हैं.
तसवीरें हैं, भव्यता की.… इतिहास की.… वैभव की और अनगिन यात्रियों की जिनमें से हम भी एक थे. जाने क्या देखने गए थे, जाने क्या पा कर लौटे थे!
यह है आर्क ऑफ़ कांस्टेंटायिन, कोलोसिम एवं पैलेटायिन हिलके बीच स्थित. यह २८ अक्टुबर ३१२ को, मिल्वियन ब्रिज युद्ध में कांस्टेंटायिन प्रथम की जीत के उपलक्ष में, रोमन सीनेट द्वारा बनवाया गया था.
अब कुछ तसवीरें और बातें रोमन फोरम की. "फोरम" लैटिन भाषा का शब्द है. व्यापार, न्यायालय, या राजनीतिक विचार संबंधी या विहार और भ्रमण के लिए बनाए हुए स्थान को फ़ोरम कहते हैं. रोम में ऐसी अनेक खुली जगहें थीं जो इस प्रकार के सार्वजनिक कार्य के लिए बनाई गई थीं. रोमन लोगों का विशेष ख्यातिप्राप्त फ़ोरम वैलटाईन तथा कैपिटोलाइन पहाड़ों के बीच की खुली जगह पर स्थित था. इसके इर्द गिर्द सुविख्यात शनिदेव का मंदिर, 184 ई.पू. का बना हुआ वैसिलिकापोर्सिया का प्राचीन न्यायालय तथा अन्य महत्वपूर्ण सार्वजनिक भवन थे.
इतिहास की इन गलियों में घूमना जितना अभिभूत करने वाला अनुभव था उतना ही थका देने वाला भी. खंडहरों की ख़ामोशी, उनकी जर्जरता, उनके सन्नाटे भेदते हैं भीतर तक. वैभव का प्रतीक तो है, उस वैभव को महसूस भी कर रहे थे और पत्थरों के शहर में युगों पुरानी कोई कहानी को छू लेने की कोशिश भी…!
ये वहीँ मिला था रोमन फोरम में पत्थरों के बीच अपनी सम्पूर्ण कोमलता के साथ आश्वस्त करता हुआ कि बचा रहेगा पाषाण तो बची रहेंगी सांसें भी...! इससे मिलना, इसकी तस्वीर लेना हम आज भी अपनी यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण हासिल मानते हैं!यात्रा फिर आगे बढ़ेगी, अभी पत्थरों की गूँज ने पकड़ रखा है! अभी रोम में बहुत कुछ देखना बाकी है.…!
ये वहीँ मिला था रोमन फोरम में पत्थरों के बीच अपनी सम्पूर्ण कोमलता के साथ आश्वस्त करता हुआ कि बचा रहेगा पाषाण तो बची रहेंगी सांसें भी...! इससे मिलना, इसकी तस्वीर लेना हम आज भी अपनी यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण हासिल मानते हैं!
↧
बिन पहियों का रथ!
मेरी प्रार्थनाएं
छोटी होने लगी है,
मुझे डर है
मैं भूल न जाऊं
हाथ जोड़ना...
मेरा मन
उदास रहने लगा है,
भूल जाती हूँ
पढ़ते हुए
पसंदीदा पन्नों को मोड़ना...
जाने कैसे निभेगा
साँसों का आना जाना,
होता नहीं अब
हादसों के बाद
हौसलों को जोड़ना...
इंसान होने के
छिन्न भिन्न सभी प्रमाण,
टूटे हुए है सपने
टुटा हुआ है आशा का दीप
अब और कितना टूटना और तोड़ना...
बिन पहियों वाला
संवेदना का रथ हमारा,
निरुद्देश्य खड़ा है एक जगह पर
कब होगा हमारा इसकी ओर मुड़कर
इसे सही दिशा में मोड़ना...
कब होगा (?) सहज रूप से
साझे उद्देश्य की खातिर
हमारा जुड़ना और सबको एक सूत्र में जोड़ना…
↧
तेरे प्रताप से...!
एक दिन अभी अभी आकर दस्तक दे गया स्मृति के गलियारों से, कुछ पंक्तियाँ लिख गयीं और इसे यहाँ सहेज ले रहे हैं हम कि जब खो जाएँ तो कोई डोर थामे फिर आ सकें सतह तक ये देखने कि बची हुई है रौशनी, बचा हुआ है जीने का ज़ज्बा और बचे हुए हैं मुस्कुराते फूल.…
उदासी यूँ घेर लेती है
कि राह नहीं देती-
किसी ख़ुशी के लिए...
किसी अपने के लिए...
किसी भी ऐसे छिद्र के लिए
जिससे आ सके
जरा सी भी
रौशनी भीतर...
सबसे हो दूर
सिमट जाते हैं
अपने एकांत में हम
बंद पट और बंद खिड़कियों पर जो दस्तक होती है
वो सब अनसुना रह जाता है
कि वैसे हताश क्षणों में सुनने की शक्ति ही खो देते हैं हम
खुद जब हम ही हम तक नहीं पहुँच पाते
ऐसी कठिन घड़ी में तुम
हमसे हमारी पहचान करा देते हो
दो अनमोल से बोल बोलकर
न गिर सकने वाली हर दिवार गिरा देते हो
हो इतने स्नेही इतने निर्मल
सूखी आँखों से अश्रुधार बहा देते हो
सच, इतना उदास थीं कि रोना भूल गयी थीं आखें
आवाज़ सुन तुम्हारी
खूब रोयीं
फिर हुआ ऐसा
कि तेरे प्रताप से
कुछ कवितायेँ उगीं हमारे भीतर जो थीं तुमने ही कभी बोयीं
ऐसी ही एक कविता तुम्हें देना चाहते हैं!
कैसा दीखता है जीवट,
कैसी होती है सदेह प्रेरणा,
कैसे हर लिया जाता है सकल संताप दो मीठे बोलों से,
कैसे बेमोल बिक जाया जाता है,
कैसे समाधान की किरण बनकर
समस्यायों की विराट भूमि पर
खिल जाया जाता है…
ये सब तुमसे मिलकर हम देखना चाहते हैं!
आसान नहीं है ये देख पाना, जानते हैं!
कि ज्योति को देखना हो तो
ज्योति को पहले आत्मसात करना होता है
कि कुछ कुछ उस जैसा ही होना होता है
इसलिए, गाहे-बेगाहे
हम तुझतक जाती राह की गहराई थाहते हैं!
अपनी पिछली यात्रा में तुमसे नहीं मिल पाए न
इस क्षति की हम अब भरपाई चाहते हैं!!
***
स्नेहाधीनमेरे भैया का मन किया कल कि वे मेरी बात मान कर मिलने चले आयें यहाँ पर एक "लेकिन" था जो साथ खड़ा था इस इच्छा के.… ये लिखी हुई पंक्तियां, जिन्हें हम कविता कहने की धृष्टता करते हैं, पहुंचे उनतक और "लेकिन" को अनुनय विनय से किनारे हट जाने के लिए मना ले.…
***
रोम यात्रा को आगे बढ़ाते हुए लिखना चाहते थे अभी, पर मन कहीं और की यात्रा पर निकल गया… और हम भी साथ उसके हो लिए!
***
Just saving a quote that I came across : :
If the colour of life turns grey turn the palette the other way.
↧
↧
भीतर कितने ही शहर बसे हैं!
झरोखे से दीखता दृश्य रोमांचित करता है हमेशा, आर्क ऑफ़ कांस्टेंटायिन की एक भव्य तस्वीर लगायी है पिछलेपोस्ट में, पर कोलोसियम के इस झरोखे से दृश्यमान आर्क की यह तस्वीर हमें बहुत अच्छी लगती है. अपनी दीवारों से बाहर की ओर राह बनाती छवि हमें संभावनाओं के जिंदा होने का एहसास कराती है और बेहद निराशाजनक समय में भी हम एक दिया जलाने को तत्पर हो उठते हैं. खंडहर से बाहर की ओर देखना रोमांचित करता है, हालांकि बाहर भी खंडहर ही है, पर एक साझा वैभव जो है इनका, वह चमत्कृत करता है!कोलोसियम से आगे बढे हम, "हॉप ऑन हॉप ऑफ" बस पर सवार हुए और चल पड़े अगली मंजिल की ओर. तसवीरें बस से भी लीं, दूर होता हुआ कोलोसियम स्थल तस्वीरों में कैद हो रहा था... हम रोम की सड़कों पर बढे जा रहे थे, एक सी भव्य ईमारतें थी सब ओर, विस्मयकारी युनिफ़ोर्मिटी देख हम स्तब्ध थे.
बीच बीच में कई खंडहरों से भी गुज़रा रास्ता, अभी भी पुरातत्ववेत्ता अपनी खोज में लगे हैं, सभ्यता संस्कृति की कितनी साँसे दफन होंगी वहाँ, खुदाई निरंतर चल ही रही है.…!
सच, न इतिहास का अंत है और न ही भविष्य की कोई सीमा है, वर्तमान के कंधे पर बीते और आने वाले दोनों ही 'कालों' व 'कलों' का बोझ है!
हल्की बारिश हो रही थी, हम खुले में सबसे ऊपर बैठे थे बस पर, रिमझिम फुहारों का आनंद लेते हुए. कोलोसियम और रोमन फोरम में घूमते हुए हम थके तो थे ही तो यह सोचा कि बिना कहीं उतरे बस से ही पूरे रोम का अवलोकन कर लिया जाये… फिर शाम और अगला सारा दिन तो है ही घूमने के लिए!
ये विचित्र से पेड़ों की तस्वीर भी कहीं राह में बस से ही ली थी, एकदम सीधे खड़े ठूंठ चोटी पर हरी टोपी धारण किये हुए! इन्हें यूँ ही मेन्टेन किया जाता होगा शायद!
अब फुहारें तेज हो गयीं थीं, ज्यादा भींगना ठीक नहीं था सो हम नीचे उतर आये, अब ज्यादा दूरी नहीं थी, अपना निश्चित सर्कल पूरा कर बस हमें वापस उतारने वाली थी. बहुत सारी तसवीरें खींचते हुए हम होटल वापस लौटे, विश्राम करके पुनः शाम को निकलना जो था! रिमझिम फुहारों में भींगते हुए बस से रोम दर्शन के दौरान ली गयीं कुछ तसवीरें… शाम को जब थम जाएगी बारिश तब फिर निकलेंगे हम भ्रमण को!
अब लौटते हुए रोम की ऐतिहासिकता से अभिभूत हम अपने ठिकाने को याद कर रहे थे…
स्टॉकहोम की बात ही अलग है, यहाँ की भव्यता दूसरी है, यहाँ प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है एकदम साथ साथ, कोई अलगाव नहीं है, घरों ने… इमारतों ने… जंगल से उनकी जगह नहीं छीनी है, बल्कि घर ही समा गए हैं प्रकृति की गोद में! जैसी जगह मिली, वैसा कंस्ट्रक्शन, पत्थरों पर घर, जंगल में घर, पेड़ों के पीछे चिड़िया के घोंसले सा छिपा कोई गृह… ऐसा लगता है प्रकृति के साथ कोई जुगलबंदी हो इनकी, पीसफुल को-एक्सिसटेन्स इसे ही कहते हैं शायद!
यहाँ की बारिश भी अलग ही है… १८ अगस्त २००९ की शाम जब स्टॉकहोम में कदम रखा था पहली बार, तब भी तो बारिश ही हो रही थी, एक बार बरस कर बिलकुल शांत जैसे रो लिए हों जी भर और मन हल्का हो गया हो!
रोम में स्टॉकहोम याद आ रहा था और स्टॉकहोम की यादों से भारत झाँक रहा था! कमरे में लौटकर घर बात हुई, घूम रहे थे रोम पर मन रमा था जमशेदपुर में. एक फ़ोन कॉल से जुड़ जाएँ और हो जाए पूरी यात्रा, ये रिश्ता तो केवल जमशेदपुर से है!
जमशेदपुर पर भी विस्तार से लिखने का मन है… लिखेंगे ज़रूर कभी. अभी तो ये रोम यात्रा पूरी करनी है, लेकिन ज़रा सुस्ता लें, राह लम्बी है और हमारा मन भींगा है…! एक यात्रा से दूसरी, दूसरे से तीसरी और न जाने यूँ ही कहाँ कहाँ भागता है मन, इसकी थाह लें ज़रा, फिर आगे बढ़ते हैं! अपने भीतर कितने ही शहर बसे हैं, सभी को जानना है… पहचानना है… यात्रारत रहना है…!
***
एक और महत्वपूर्ण यात्रा जिसे लेकर हम अभी अतिउत्साहित हैं: मेरी छोटी बहन स्टॉकहोम आ रही है आज. उसके स्वागत में मन हमारा सुबह से दरवाज़े पर खड़ा है!
बीच बीच में कई खंडहरों से भी गुज़रा रास्ता, अभी भी पुरातत्ववेत्ता अपनी खोज में लगे हैं, सभ्यता संस्कृति की कितनी साँसे दफन होंगी वहाँ, खुदाई निरंतर चल ही रही है.…!
सच, न इतिहास का अंत है और न ही भविष्य की कोई सीमा है, वर्तमान के कंधे पर बीते और आने वाले दोनों ही 'कालों' व 'कलों' का बोझ है!
हल्की बारिश हो रही थी, हम खुले में सबसे ऊपर बैठे थे बस पर, रिमझिम फुहारों का आनंद लेते हुए. कोलोसियम और रोमन फोरम में घूमते हुए हम थके तो थे ही तो यह सोचा कि बिना कहीं उतरे बस से ही पूरे रोम का अवलोकन कर लिया जाये… फिर शाम और अगला सारा दिन तो है ही घूमने के लिए!
ये विचित्र से पेड़ों की तस्वीर भी कहीं राह में बस से ही ली थी, एकदम सीधे खड़े ठूंठ चोटी पर हरी टोपी धारण किये हुए! इन्हें यूँ ही मेन्टेन किया जाता होगा शायद!
अब फुहारें तेज हो गयीं थीं, ज्यादा भींगना ठीक नहीं था सो हम नीचे उतर आये, अब ज्यादा दूरी नहीं थी, अपना निश्चित सर्कल पूरा कर बस हमें वापस उतारने वाली थी. बहुत सारी तसवीरें खींचते हुए हम होटल वापस लौटे, विश्राम करके पुनः शाम को निकलना जो था! रिमझिम फुहारों में भींगते हुए बस से रोम दर्शन के दौरान ली गयीं कुछ तसवीरें… शाम को जब थम जाएगी बारिश तब फिर निकलेंगे हम भ्रमण को!
अब लौटते हुए रोम की ऐतिहासिकता से अभिभूत हम अपने ठिकाने को याद कर रहे थे…
स्टॉकहोम की बात ही अलग है, यहाँ की भव्यता दूसरी है, यहाँ प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है एकदम साथ साथ, कोई अलगाव नहीं है, घरों ने… इमारतों ने… जंगल से उनकी जगह नहीं छीनी है, बल्कि घर ही समा गए हैं प्रकृति की गोद में! जैसी जगह मिली, वैसा कंस्ट्रक्शन, पत्थरों पर घर, जंगल में घर, पेड़ों के पीछे चिड़िया के घोंसले सा छिपा कोई गृह… ऐसा लगता है प्रकृति के साथ कोई जुगलबंदी हो इनकी, पीसफुल को-एक्सिसटेन्स इसे ही कहते हैं शायद!
यहाँ की बारिश भी अलग ही है… १८ अगस्त २००९ की शाम जब स्टॉकहोम में कदम रखा था पहली बार, तब भी तो बारिश ही हो रही थी, एक बार बरस कर बिलकुल शांत जैसे रो लिए हों जी भर और मन हल्का हो गया हो!
रोम में स्टॉकहोम याद आ रहा था और स्टॉकहोम की यादों से भारत झाँक रहा था! कमरे में लौटकर घर बात हुई, घूम रहे थे रोम पर मन रमा था जमशेदपुर में. एक फ़ोन कॉल से जुड़ जाएँ और हो जाए पूरी यात्रा, ये रिश्ता तो केवल जमशेदपुर से है!
जमशेदपुर पर भी विस्तार से लिखने का मन है… लिखेंगे ज़रूर कभी. अभी तो ये रोम यात्रा पूरी करनी है, लेकिन ज़रा सुस्ता लें, राह लम्बी है और हमारा मन भींगा है…! एक यात्रा से दूसरी, दूसरे से तीसरी और न जाने यूँ ही कहाँ कहाँ भागता है मन, इसकी थाह लें ज़रा, फिर आगे बढ़ते हैं! अपने भीतर कितने ही शहर बसे हैं, सभी को जानना है… पहचानना है… यात्रारत रहना है…!
***
एक और महत्वपूर्ण यात्रा जिसे लेकर हम अभी अतिउत्साहित हैं: मेरी छोटी बहन स्टॉकहोम आ रही है आज. उसके स्वागत में मन हमारा सुबह से दरवाज़े पर खड़ा है!
↧
कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्!
मुझे क्या काम दुनिया से मुझे तो श्रीकृष्ण प्यारा है!यशोदा नन्द का नंदन मेरी आँखों का तारा है!!
ये पंक्तियाँ गीता प्रेस की किसी पुस्तक में पढ़ी थी बचपन में, हम बहुत गुनगुनाते थे तब इसे... आज भी गुनगुनाते हैं! यशोदा नन्द का नंदन किसकी आँखों का तारा नहीं, किसे नहीं प्यारी मुरली की धुन, कौन नहीं शरणागत है परम शरणागत वत्सल प्रभु का जिन्होंने स्पष्ट कह दिया गीता के १८ वें अध्याय के ६६ वें श्लोक में...
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज।अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।६६।
हमें बस शरण में ही तो जाना है, शेष सबका जिम्मा तो प्रभु ने स्वयं ले ही लिया है! प्रेम भक्ति की धारा में प्रवाहित होते हुए मधुराष्टकं के माधुर्य में मन प्राण को सराबोर कर देना है, प्रभु की विराट छवि का स्मरण करना है, उनकी बाल लीलाओं का आनंद लेना है, वस्तुतः कृष्णप्रेमकी ओर मन की चंचलता को मोड़ देना है!
आज जन्माष्टमी है! जाने कैसे मनाएंगे हम यहाँ प्रभु का जन्मदिन आज. शायद यह शब्द यात्रा ही जन्मोत्सव मनाने का सर्वोत्कृष्ट साधन है यहाँ, बचपन के दिनों से कृष्णाष्टमी की यादें लिख जाना उसी उत्सव में शामिल हो जाने जैसा है जो हमेशा से मन प्राण का हिस्सा रहा है. जमशेदपुर राधेकृष्ण मंदिर में जन्मोत्सव में शामिल होना कितना अच्छा लगता था, झांकियां सजती थी, राधे कृष्ण का भेष धरते थे बच्चे, रात्रि बारह बजे तक गीता पाठ, भजन कीर्तन चलता था. याद है कई बार पापा के साथ हमलोग भी रुक जाते थे और जन्मोत्सव के बाद साथ ही लौटते थे. आज भी पापा जायेंगे उसी मंदिर में, पाठ होगा, भजन कीर्तन से गूंजेगा मन का आँगन, ये सिलसिला तब से अबतक चला आ रहा है, बस रात को जब प्रसाद लेकर लौटेंगे पापा तब हम वहाँ नहीं होंगे प्रसाद पाने के लिए! इतना ही अंतर है नहीं तो जन्माष्टमी अब भी वैसे ही मनती है! बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की जन्माष्टमी भी याद आती है, सचमुच महोत्सव की तरह मनता था यह दिन, आज भी मनता होगा उसी उत्साह के साथ. सभी छात्रावास खूब सजे होते थे, राधे कृष्ण झूला झूल रहे होते थे प्रांगन में, खूब झांकियां सजती थी, हम लोग इस हॉस्टल से उस हॉस्टल पूरे बी एच यु कैंपस में देर रात आते जाते रहते थे. एम.एम.वी. छात्रावास से त्रिवेणी छात्रावास तक आना जाना लगा रहता था! दिव्य छटा होती थी उस दिन, नीरस सा हॉस्टल हमारा भक्तिधाम बन जाता था… उस वक़्त की तस्वीरें मन में बसी हैं! आज भी कृष्णजन्म वैसे ही मनाया जाता होगा वहाँ, बस हम नहीं हैं उत्सव में शामिल होने को. इन चार वर्षों में स्टॉकहोम में एक बार हम गए हैं कृष्णमंदिर. जहां हम रहते हैं, वहाँ से काफी दूर है. जिस दिन गए थे उस दिन भजन कीर्तन की बारिश में खूब भींगे थे और लौटते वक़्त पेड़ के नीचे खड़े हो बस की प्रतीक्षा करते हुए बूंदों की बारिश ने भी खूब भिगाया था. ये यहाँ का कृष्ण मंदिर और वहाँ हमारा जाना… ये हमें यह जमशेदपुर और बनारस के संस्मरण लिखते हुए अभी ही याद आया… ओह! जैसे प्रभु कह रहे हों- "कहाँ नहीं हूँ मैं, यहाँ भी हूँ, तुमने यहाँभी मेरे दर्शन किये हैं और तुम्हारी यहाँ से की गयी प्रार्थनाएं भी मैं सुनता हूँ!" प्रभु! हमारी प्रार्थना सुन रहे हो न?
आत्मविश्वास की वह धारा निकले, जिससे ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो जाएथोड़ा तो कमाल दिखा प्रभु...ये कलयुग कबसे बैठा है तेरी दयालुता पर नज़र टिकाये!
हमें अनन्य भक्ति प्रदान करो प्रभु, अपनी लीलाओं में रम जाने की करुण मनःस्थिति प्रदान करो, ले लो हमें शरण में!हमारी मौन प्रार्थनाओं में बस जाओ कि हम तर जाएँ!***कोर्सनस गार्डमें स्थित श्री कृष्ण मंदिर के जन्माष्टमी की एक छोटी सी विडियो मिली है, स्वीडिश में कृष्ण कथा हो रही है. न जा पाए अगर आज मंदिर तो यहीं देख लेते हैं, यहाँ की जन्माष्टमी! आप भी देखिये… भाव समझने को कहाँ चाहिए कोई भाषा!
↧
दिखती कोई राह नहीं...!
कौन करे अब
पहले की बातें,
जब वहाँ तक जाती
दिखती कोई राह नहीं...
कौन पाले
उड़ जाने के सपने,
जब बंध कर
रह जाना है यहीं कहीं...
कौन रचे अब
रेत किनारे,
है मझधार में
तो मझधार सही...
जितना
मिलता है,
उससे कहीं अधिक
छूट जाता है;
हम बस उसके पास होने का
एहसास लिए फिरते हैं,
ज़िन्दगी तो हर बार
निकल जाती है और कहीं!
कौन करे अब
तुझसे बहस,
ज़िन्दगी!
हमें तेरी कोई थाह नहीं...
जैसे रखेगी अब
रह जायेंगे,
मन में बाकी बची
कोई चाह नहीं...
कौन करे अब
पहले की बातें,
जब वहाँ तक जाती
दिखती कोई राह नहीं...
एक ऐसी सम्भावना जगती
इस हताश क्षण में,
काश! कह पाते
दिखती है एक राह नयी…
↧
आड़ी तिरछी रेखाएं!
हम सभी वस्तुतः एकाकी द्वीप हैं, एक दूसरे से अलग... एक दूसरे से दूर अपने अपने एकांत को जीते हुए... किनारों पर लहरों का टकराना थाहते हुए. हम सब ऐसे ही बिंदु हैं बड़े से समुद्र के विस्तार में... अलग हैं, अथाह जलराशि बीच में बहती है और एक से दूसरे तक जाना हो तो नाव का सहारा लेना होता है. नाव भी नहीं मिलती हर बार, कभी होती भी है तो खेवैया नहीं होता!
हर द्वीप पर हरे रंग का दर्द उगा होता है जो अलग होते हुए भी आपस में जुड़ा होता है, जो धार दो द्वीपों के किनारे से टकराती है कभी कभी वह भी एक ही होती है और सारे सन्देश वैसे ही एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देती है, एक द्वीप दूसरे से यूँ भी जुड़ा होता है कि एक का दर्द दूसरे की आँखों से बहता है. पर ये बातें सब नहीं समझ सकते, समझे भी कैसे, सबने कहाँ देखा होता है समंदर को यूँ, सबने कहाँ देखी होती है... महसूस की होती है द्वीपों के बीच की अबोली स्नेहसिक्तता, सब इतने पागल थोड़े ही होते हैं कि सारा काम छोड़ कर सागर में बसे एकाकी द्वीपों को यूँ कल्पित कर ये आड़ी तिरछी रेखाएं जोड़ें...
हम सारी दुनिया से दूर, थल से कटे हुए बैठे थे अपने साथ और बीच सागर में अपने चहुँ ओर जल ही जल देख कभी विस्मित होते थे, कभी अभिभूत तो कभी थल से दूरी घबराहट का कारण भी बनती थी. ऐसे में कोई द्वीप नज़र आता था तो राहत का अनुभाव होता था और दो द्वीपों के बीच लहरों का आना जाना देख आँखों में भी समंदर लहरा जाता था...! नीले अम्बर और नीले समंदर के विस्तार में ये कुछ थल के भ्रम सुकून दे रहे थे... उन पत्थरनुमा थलों पर उगा हरापन कुछ घाव भी हरे कर रहा था और साथ ही मन के किसी कोने में अपनी परछाईं से आश्वस्त भी कर रहा था. नीला रंग ही तो सृष्टि का विस्तार है... और इस विस्तार में प्रभु ने जैसे जान बूझ कर हरा रंग डाला है, कि कुछ घाव हरे रहेंगे तो उसकी याद बनी रहेगी... धरती खिली रहेगी और धरती की खुशियाँ और गम फूल पत्तों में लहलहाते रहेंगे!
जो भी हो, नीलेपन के विस्तार में कुछ हरा होना ही चाहिए... अथाह सागर में सुख दुःख के कुछ द्वीप होने ही चाहिए जो आपस में बात करते हों... जिनकी ट्यूनिंग कुछ ऐसी हो कि कहने सुनने से परे बातें संप्रेषित हो जाएँ!
बाल्टिक सागर में कई बार यात्रा की है, इस बार फ़िनलैंड जा रहे थे. पहचानी सी डगर होती है पर सागर हर बार कुछ नयी अनुभूतियाँ दे जाता है या यूँ कह सकते हैं मन के मौसम के अनुरूप ही रूप धर अनुभूति के धरातल पर उग आता है...
***
सागर के साथ होना शायद सागर होने जैसा ही कुछ है तभी तो न चाहते हुए भी लिख जा रहे हैं बिना ओर छोर के, इसे सागर की बेतुक लहरें ही समझा जाए... जाने क्यूँ बार बार आती है किनारे से टकराती है और फिर आती है फिर वही किस्सा दोहराती है!
↧
↧
कविता ने कहा था...!
एक पुराना टुकड़ा मिला, हृदय के बहुत करीब है यह… इसे यहाँ लिख कर रख लेना चाहिए. जाने फिर कलम यह लिख पाए या नहीं, जाने कविता फिर हमसे कभी यूँ कुछ कह पाए या नहीं…!
कविता ने जिस क्षण यह कहा था, उसे स्मरण करते हुए… उस पल को जीते हुए, सहेज लेते हैं यहाँ भी, वह क्षण और कविता का कथ्य, दोनों ही : :
एक और दिवस गुज़रा
और शाम हो गयी,
प्रार्थनारत भावनाएं
सहर्ष ही श्याम हो गयी!
अंतिम बेला में
खुल जाते हैं सारे फंदे,
पथरीली मन की राहें
वृन्दावन धाम हो गयी!
अब सोचता है चैतन्य हृदय
क्या, कब, कैसे घटित हुआ?
कि बीते दिनों, आस्था
बिकता हुआ सामान हो गयी!
सारे गम खुद ही क्यों जीयोगे
बांटने दो कुछ हमें भी,
आज तेरे प्रारब्ध की
कई अश्रूलड़ियाँ मेरे नाम हो गयी!
ये कैसी चमक है अद्भुत
हम तक आ रही है,
कुरूप हर सत्य विलुप्त
सकल छवियाँ अभिराम हो गयी!
अदृश्य धागे से जुड़ा है हर द्वीप का दर्द
जो एक का दुःख वही दूसरे की पीड़ा,
कुछ चुपचाप बैठ कर गुनें अब
बातें तो तमाम हो गयी!
एक और दिवस गुज़रा
और शाम हो गयी,
प्रार्थनारत भावनाएं
सहर्ष ही श्याम हो गयी!
↧
जहां से शुरू किया था सफ़र...!
पगडण्डी शीर्षक पर लिखते हुए कभी लिखा था इसे चिरंतनके लिए. आज यह कविता सामने आकर हमें पीछे की ओर ले जाने का हठ करने लगी. जहां से शुरू किया था वहीँ पर फिर से लौट जाने का कितनी बार मन होता है न, पर ऐसा संभव कहाँ? ज़िन्दगी तो आगे ही की ओर निकलती है, पुराने पथ तो बस स्मृतियों में ही मुस्कराते हैं!
कई रास्तों से गुज़र लेने के बाद
फिर ढूंढ़े है मन
वही पगडंडियाँ
जहां से शुरू किया था सफ़र…
वैसे तो लौट पाना होता नहीं कभी
पर लौटना अगर मुमकिन भी हो-
तो भी संभव नहीं कि
पगडंडियाँ मिल जाएँगी यथावत…
समय के साथ लुप्त होते अरण्य में
खो जाती है पगडण्डी भी
बिसर जाते हैं राही भी
विराम ले लेती है जीवन की कहानी भी…
और खो चुके सुख दुखों की
जीतीं हैं स्मृतियों सभी
चमकता है रवि, खिलता है चाँद
झिलमिल करती हैं सितारों की रश्मियाँ भी…
दौड़ रही हैं राहें दूर तलक
ले जाएँ जहां तक बढ़ते जाओ ख़ुशी ख़ुशी
जिनपर चल रहे हैं आज,
उन पगडंडियों ने मुड़ने से पहले कहा अभी!
↧
कभी कभी भींगना भी चाहिए!
कहीं से शुरू होती है और बात कहीं तक पहुँचती है… जैसे जीवन यात्रा हर क्षण एक नया आश्चर्य है, वैसे ही यात्राएं भी अपने साथ हर क्षण आश्चर्यचकित कर देने का सामर्थ्य लिए चलती हैं. सबकुछ पूर्वनिर्धारित नहीं किया जा सकता, हर बात योजना के अनुरूप नहीं घटित होती यात्रा में. ठीक ऐसा ही तो है लेखन भी, जब जो चाहा कलम ने वो लिखा... उसे निर्देशित नहीं किया जा सकता… कम से कम मेरे साथ तो नहीं हो पाता!
रोम यात्रा किये साल भर से ज्यादा वक़्त निकल गया, लिखना चाहा था अपने लिए ही सब सहेज लेने के लिए, पर हो नहीं पाया लम्बे समय तक. अब इस अवकाश में प्रारंभ भी किया तो टलता ही जाता है, एक के बाद एक कड़ी लिख जाना संभव ही नहीं, मन है न… कब कौन सी यात्रा पर निकल जाए, कौन जाने!
कोलोसियम के कुछ चित्रों से शुरूकी थी यात्रा, फिररोमन फोरम का भव्य इतिहास खंडहरों में देखा और आगे मन में बसे कितने ही शहर दिखा गयी रोम यात्राके लेखन की प्रक्रिया. आज सोच रहे हैं स्मृतियों की मुस्कानों को पढ़कर आज रोम यात्रा का समापन कर ही दिया जाये… शुरुआत कर दी है, देखें कहाँ तक सफलता मिलती है…!
स्मृति के गलियारों में टहलते हुए अभी हम रोम की एक पगडण्डी पर चल रहे हैं, पगडण्डी हमें हमारे ठिकाने तक ले जा रही है. थोड़ी देर आराम कर के पुनः निकलना जो है.
दोपहर में हलकी बारिश की फुहारों का आनंद लेते हुए हम पूरा शहर बस से घूमे ही थे, अब हमें उपलब्ध समय के हिसाब से कुछ एक निश्चित स्पॉट्स पर उतरना था. बस तो अपना चक्कर पूरा करेगी ही अपने नियम के अनुरूप, उसका काम है.
यह है मोन्यूमेंट ऑफ़ विटोरियो इमानुएल २. यह एक स्मारक है जिसे आल्टर ऑफ़ फादरलैंड भी कहा जाता है, अर्थात जन्मभूमि की वेदी!
१८७० में रोम इटली के नए राज्य की राजधानी बन गया. इस समय के दौरान नियो क्लासिसिस्म (प्राचीन काल की वास्तुकला से प्रभावित एक इमारत शैली) का रोमन स्थापत्य कला में एक प्रमुख प्रभाव हो गया. इस अवधि के दौरान नियो क्लासिकल शैली में कई महान महलों की संरचना हुई मंत्रालयों, दूतावासों, और अन्य एजेंसियों की मेजबानी के लिए.
रोमन नियो क्लासिसिस्म के सबसे प्रसिद्ध प्रतीकों में से एक है. यह है जन्मभूमि की वेदी का स्मारक जो कि एक अज्ञात सैनिक की कब्र है. यह कब्र प्रथम विश्व युद्ध में हताहत हुए ६५०,००० इतालवियों का प्रतिनिधित्व करती है! जल रही ज्योत प्रचंड थी, स्मृतियों का अंश रहा होगा उनमें!
पहली तस्वीर में देखा जा सकता है, यहाँ काफी भीड़ थी और भीड़ को सीढ़ियों पर जमा होने व बैठने की मनाही थी. स्मारक की भव्यता के सामने बौना ही था कैमरे का सामर्थ्य फिर भी जो हो सका वह सहेजा हमने तस्वीरों में!
अब हम पुनः बस पर सवार हुए किसी अन्य स्थल तक पहुँचने के लिए. खुले में बस के उपरे तल्ले पर बैठना अच्छा लग रहा था. हर तरफ प्रतिमा ही प्रतिमा दिखती थी इमारतों पर, अब कितनी तसवीरें क्लिक हुई ऊपर बैठे हुए इसका कोई हिसाब नहीं फिर भी कितना कुछ छूट ही तो गया!
हम अब प्राचीन रोम के इस भव्य किले के समक्ष खड़े थे. प्राचीन रोम के महत्वपूर्ण स्मारकों और स्थलों की सूची में यह ईमारत भी आती है, यह है "कैसल ऑफ़ संत' एंजेलो".
इटली की तीसरी सबसे बड़ी नदी तिबर पर स्थित हैं कई प्रसिद्ध पुल. इन्हीं में से एक है यहपुल जो किले तक ले जाता है. पुल पार करते हुए पहले पार किये कई अन्य पुलों के उपकार के समक्ष मन ही मन हम नत हुए.…
पुल पर बहुत सारी दुकाने थीं ज़मीन पर लगी हुई, चहल पहल का माहौल था, दो किनारों को जोड़ते हुए पुल की जीवंतता देखने व महसूस करने लायक थी. यहाँ काफी अच्छा समय बिताया हमने.
अब आगे बढ़ना था, पड़ाव से रिश्ता बस कुछ पल का ही होता है, राही के प्रारब्ध में रास्ते ही हैं बस. "बस" पर बैठो और बस चल पड़ो!
यहहै पिआज़ा डेल कैम्पिदौग्लियो, प्रस्तुत चित्र में केवल पलाज्जो सनाटोरियो दिख रहा है, यह रोम का सिटी हॉल है!
फ्लोरेंस के बाद रोम, नवजागरण काल का दूसरा मुख्य वैश्विक केंद्र था और रेनेसाँ से अत्यधिक प्रभावित भी हुआ था. रोम में नवजागरण वास्तुकला की उत्कृष्ट कृतियों में से एक है माइकलएंजेलोकी कृति पियाज़ा डेल कैम्पिदौग्लियो.
अब चलते हैं पीपुल्स स्क्वायरकी ओर. इस स्क्वायर का लेआउट वास्तुकार ग्यूसेप वलादिएरद्वारा १८११ से १८२२ के बीच नियो क्लासिकल शैली में डिजाईन किया गया था.
यहाँ पर कई फाउंटेन व टावर्स थे पर सब की तसवीरें नहीं ले पाए क्यूंकि यहाँ उतरना ही नहीं हुआ, यह तस्वीर बस से ली गयी है. बारिश शुरू हो चुकी थी, इसलिए यहाँ उतरना स्थगित कर हम आगे बढ़ गए. अँधेरा हो रहा था और अब अगले दिन के लिए उर्जा बची रहे इसलिय विश्राम भी आवश्यक था तो हम इस स्क्वायर को अगले दिन के गंतव्य में डाल अपने ठिकाने की ओर बढ़ चले. बस के अंतिम स्टॉप पर उतर कर कुछ दूर के पैदल मार्च पर स्थित था हमारा होटल. भींगते हुए होटल पहुंचना भी अच्छा ही रहा… कभी कभी भींगना भी चाहिए!
लौटते हुए अन्धकार में ली गयी कुछ तसवीरें रात की जगमग कहानी सी है… हर झिलमिल रौशनी का अपना आकार है, अपनी गरिमा है!
तो इस तरह पहले दिन का समापन हो गया. अब एक दिन और था रोम भ्रमण के लिए, इसका विवरण अगली बार.
घूमते हुए तो थकान हुई ही थी, लिखते हुए भी मन खो जाता है और थक भी जाता है, चंचल जो है!
***
और अंत में, हर उस पुल के प्रति कृतज्ञता जिसे पार कर हम आगे निकल पाए हैं, हर उस मील के पत्थर के प्रति आदरभाव जिसने हमें रास्ते का पता दिया, हर उस गुरु के प्रति श्रद्धा जिसने उच्च उद्देश्यों का भान कराया.
हर मार्गदर्शक तारे के प्रति सम्मानभाव से नतमस्तक हम अभी अपने भारत की ओर देख रहे हैं- जहां चरणस्पर्श की परंपरा है, जहां गुरु ईश्वर से भी श्रेष्ठ होता है… जहां गुरुकृपा की छाँव में उच्च उदेश्यों के प्रति आस्था जगती है… सब शुभ ही शुभ होता है!
सीखने सीखाने की प्रक्रिया से जुड़ी हर इकाई को शिक्षक दिवस के पावन अवसर पर नमन!
रोम यात्रा किये साल भर से ज्यादा वक़्त निकल गया, लिखना चाहा था अपने लिए ही सब सहेज लेने के लिए, पर हो नहीं पाया लम्बे समय तक. अब इस अवकाश में प्रारंभ भी किया तो टलता ही जाता है, एक के बाद एक कड़ी लिख जाना संभव ही नहीं, मन है न… कब कौन सी यात्रा पर निकल जाए, कौन जाने!
कोलोसियम के कुछ चित्रों से शुरूकी थी यात्रा, फिररोमन फोरम का भव्य इतिहास खंडहरों में देखा और आगे मन में बसे कितने ही शहर दिखा गयी रोम यात्राके लेखन की प्रक्रिया. आज सोच रहे हैं स्मृतियों की मुस्कानों को पढ़कर आज रोम यात्रा का समापन कर ही दिया जाये… शुरुआत कर दी है, देखें कहाँ तक सफलता मिलती है…!
स्मृति के गलियारों में टहलते हुए अभी हम रोम की एक पगडण्डी पर चल रहे हैं, पगडण्डी हमें हमारे ठिकाने तक ले जा रही है. थोड़ी देर आराम कर के पुनः निकलना जो है.
दोपहर में हलकी बारिश की फुहारों का आनंद लेते हुए हम पूरा शहर बस से घूमे ही थे, अब हमें उपलब्ध समय के हिसाब से कुछ एक निश्चित स्पॉट्स पर उतरना था. बस तो अपना चक्कर पूरा करेगी ही अपने नियम के अनुरूप, उसका काम है.
यह है मोन्यूमेंट ऑफ़ विटोरियो इमानुएल २. यह एक स्मारक है जिसे आल्टर ऑफ़ फादरलैंड भी कहा जाता है, अर्थात जन्मभूमि की वेदी!
१८७० में रोम इटली के नए राज्य की राजधानी बन गया. इस समय के दौरान नियो क्लासिसिस्म (प्राचीन काल की वास्तुकला से प्रभावित एक इमारत शैली) का रोमन स्थापत्य कला में एक प्रमुख प्रभाव हो गया. इस अवधि के दौरान नियो क्लासिकल शैली में कई महान महलों की संरचना हुई मंत्रालयों, दूतावासों, और अन्य एजेंसियों की मेजबानी के लिए.
रोमन नियो क्लासिसिस्म के सबसे प्रसिद्ध प्रतीकों में से एक है. यह है जन्मभूमि की वेदी का स्मारक जो कि एक अज्ञात सैनिक की कब्र है. यह कब्र प्रथम विश्व युद्ध में हताहत हुए ६५०,००० इतालवियों का प्रतिनिधित्व करती है! जल रही ज्योत प्रचंड थी, स्मृतियों का अंश रहा होगा उनमें!
पहली तस्वीर में देखा जा सकता है, यहाँ काफी भीड़ थी और भीड़ को सीढ़ियों पर जमा होने व बैठने की मनाही थी. स्मारक की भव्यता के सामने बौना ही था कैमरे का सामर्थ्य फिर भी जो हो सका वह सहेजा हमने तस्वीरों में!
अब हम पुनः बस पर सवार हुए किसी अन्य स्थल तक पहुँचने के लिए. खुले में बस के उपरे तल्ले पर बैठना अच्छा लग रहा था. हर तरफ प्रतिमा ही प्रतिमा दिखती थी इमारतों पर, अब कितनी तसवीरें क्लिक हुई ऊपर बैठे हुए इसका कोई हिसाब नहीं फिर भी कितना कुछ छूट ही तो गया!
हम अब प्राचीन रोम के इस भव्य किले के समक्ष खड़े थे. प्राचीन रोम के महत्वपूर्ण स्मारकों और स्थलों की सूची में यह ईमारत भी आती है, यह है "कैसल ऑफ़ संत' एंजेलो".
इटली की तीसरी सबसे बड़ी नदी तिबर पर स्थित हैं कई प्रसिद्ध पुल. इन्हीं में से एक है यहपुल जो किले तक ले जाता है. पुल पार करते हुए पहले पार किये कई अन्य पुलों के उपकार के समक्ष मन ही मन हम नत हुए.…
पुल पर बहुत सारी दुकाने थीं ज़मीन पर लगी हुई, चहल पहल का माहौल था, दो किनारों को जोड़ते हुए पुल की जीवंतता देखने व महसूस करने लायक थी. यहाँ काफी अच्छा समय बिताया हमने.
अब आगे बढ़ना था, पड़ाव से रिश्ता बस कुछ पल का ही होता है, राही के प्रारब्ध में रास्ते ही हैं बस. "बस" पर बैठो और बस चल पड़ो!
यहहै पिआज़ा डेल कैम्पिदौग्लियो, प्रस्तुत चित्र में केवल पलाज्जो सनाटोरियो दिख रहा है, यह रोम का सिटी हॉल है!
फ्लोरेंस के बाद रोम, नवजागरण काल का दूसरा मुख्य वैश्विक केंद्र था और रेनेसाँ से अत्यधिक प्रभावित भी हुआ था. रोम में नवजागरण वास्तुकला की उत्कृष्ट कृतियों में से एक है माइकलएंजेलोकी कृति पियाज़ा डेल कैम्पिदौग्लियो.
अब चलते हैं पीपुल्स स्क्वायरकी ओर. इस स्क्वायर का लेआउट वास्तुकार ग्यूसेप वलादिएरद्वारा १८११ से १८२२ के बीच नियो क्लासिकल शैली में डिजाईन किया गया था.
यहाँ पर कई फाउंटेन व टावर्स थे पर सब की तसवीरें नहीं ले पाए क्यूंकि यहाँ उतरना ही नहीं हुआ, यह तस्वीर बस से ली गयी है. बारिश शुरू हो चुकी थी, इसलिए यहाँ उतरना स्थगित कर हम आगे बढ़ गए. अँधेरा हो रहा था और अब अगले दिन के लिए उर्जा बची रहे इसलिय विश्राम भी आवश्यक था तो हम इस स्क्वायर को अगले दिन के गंतव्य में डाल अपने ठिकाने की ओर बढ़ चले. बस के अंतिम स्टॉप पर उतर कर कुछ दूर के पैदल मार्च पर स्थित था हमारा होटल. भींगते हुए होटल पहुंचना भी अच्छा ही रहा… कभी कभी भींगना भी चाहिए!
लौटते हुए अन्धकार में ली गयी कुछ तसवीरें रात की जगमग कहानी सी है… हर झिलमिल रौशनी का अपना आकार है, अपनी गरिमा है!
तो इस तरह पहले दिन का समापन हो गया. अब एक दिन और था रोम भ्रमण के लिए, इसका विवरण अगली बार.
घूमते हुए तो थकान हुई ही थी, लिखते हुए भी मन खो जाता है और थक भी जाता है, चंचल जो है!
***
और अंत में, हर उस पुल के प्रति कृतज्ञता जिसे पार कर हम आगे निकल पाए हैं, हर उस मील के पत्थर के प्रति आदरभाव जिसने हमें रास्ते का पता दिया, हर उस गुरु के प्रति श्रद्धा जिसने उच्च उद्देश्यों का भान कराया.
हर मार्गदर्शक तारे के प्रति सम्मानभाव से नतमस्तक हम अभी अपने भारत की ओर देख रहे हैं- जहां चरणस्पर्श की परंपरा है, जहां गुरु ईश्वर से भी श्रेष्ठ होता है… जहां गुरुकृपा की छाँव में उच्च उदेश्यों के प्रति आस्था जगती है… सब शुभ ही शुभ होता है!
सीखने सीखाने की प्रक्रिया से जुड़ी हर इकाई को शिक्षक दिवस के पावन अवसर पर नमन!
↧