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Channel: अनुशील
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तब बरसेंगे मेघ!

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भूल गए हैं
बरसना मेघ
वैसे ही
जैसे हम
अन्याय का प्रतिकार करना
भूल गए हैं

गरजना भी शायद
भूल गया है आसमान
वैसे ही
जैसे हम
सत्य के लिए आवाज़ उठाना
भूल गए हैं

बिजलियों ने भी
कौंधना छोड़ दिया है
तब से
जब से हमने
निबाहनी शुरू कर दी है हर बात पर
समझौते की परिपाटी

आज हमारी गूंजती चीत्कारों तक
ले कर आई हैं सन्देश हवाएं-

सीधी अपनी रीढ़ करें हम
तब बरसेंगे मेघ!

अब हम बताएं...

कितना समय लेंगे दृढ़ होने में हम,
कब तक तरसेंगे मेघ!

एक मात्र कवच!

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होता है ऐसा भी...
जीवन के समानांतर चलता रहता है,
कुछ मौत के जैसा भी-

मन में घर कर जाती है
उदासीनता,
उत्साह का इस कदर लोप हो चुका होता है...
मानों वह कभी रहा ही न हो
अस्तित्व का अंश!

जबकि सच्चाई यह होती है-
उत्साह वैसे ही रहा होता है अपना
जैसे सम्बद्ध है साँसों से जीवन,
मुक्तहस्त लुटाई गयीं होती हैं खुशियाँ
फूलों से होता है भरा हुआ
खिला खिला उपवन!

फिर,
क्या अकारण ही छाती है निराशा?
चिंतित मन को क्या हो दिलासा?

इस मनःस्थिति से
कैसे हो मुक्ति?
शायद,
मन के भीतर ही है कहीं
छिपी हुई युक्ति!

वो
मिल जाए बस,

आत्मविश्वास ही हो सकता है
सभी व्याधियों के विरुद्ध-
एक मात्र कवच!

बचपन...!

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चिरंतनपर 'बचपन' के ढ़ेर सारे अनूठे रंगों एवं अभिव्यक्तियों में शामिल मेरी एक कविता..., धन्यवाद चिरंतनइस प्यारे विषय पर अंक प्रस्तुत करने के लिए!

वो खो गया है
दूर हो गया है

नन्हे नन्हे
प्यारे प्यारे
अँधेरी काली रात में
जब टिमटिमाते हैं तारे

तो वहीँ कहीं
झलक अपनी दिखलाता है,
स्मृतियों के आकाश पर
धीरे से आता है!

कितने ही
खेल खिलौने याद दिलाने,
रूठे पलों को
फिर से मनाने!

वो था, तो सपने थे
वो था, तो सब अपने थे

एक मुस्कान ही
जग जीतने को पर्याप्त थी,
खुशियों की चाभी
जो प्राप्त थी!

सुन्दर मनोहर
भोला भाला था मन
फिर जाने कब?
विदा हो गया बचपन

अब तो बस
तारे टिमटिमाते रहते हैं
यदा-कदा
हम दोहराते रहते हैं-

उसकी महिमा उसका गान
काश! मिल जाए वो किसी शाम

फिर, पूछेंगे उससे
कि क्यूँ नहीं छोड़ गया?
कुछ मासूमियत के रंग...
मिल जाए,
तो सीख लें फिर उससे
जीवन का वो बेपरवाह ढ़ंग...

बोलो बचपन
मिलोगे न?
फिर से हृदय कुञ्ज में
खिलोगे न!

इन्द्रधनुष के नाम...!

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वेनिस और रोम घूमने गए हुए थे, बहुत अच्छी रही यात्रा... लेकिन इसके बारे में फिर कभी. अभी स्टॉकहोम की ही एक शाम सहेजते हैं यहाँ... इससे पहले कि इन्द्रधनुष की ही तरह स्मृति में भी वह छवि धुंधला जाए, उसे सहेज लेना चाहिए!
यूँ ही उस शाम खिल आये स्पष्ट इन्द्रधनुष ने चमत्कृत कर दिया... हर रंग अपने अस्तित्व को परिभाषित कर रहा था... आसमान मानों समुद्र हो और उसपर हो निर्मित रंगबिरंगा पुल...; कुछ तस्वीरें लीं लेकिन शायद ही उस पल का सौन्दर्य कैद हो पाया हो कैमरे के क्लिक में.
प्रस्तुत है कुछ भाव, कुछ पंक्तियाँ जिसे कविता सा कुछ बना गयी, वह शाम-


दोहरा इन्द्रधनुष:
जैसे-
दो सतरंगी पुल गगन में,
चन्द पलों के लिए दृश्यमान
फिर जैसे लुप्त होते ही
बस गया हो मन में!

खिली धूप में देखा उसे
काले बादल पर
अवतरित होते हुए,
जैसे दिख गयी हो
कोई प्रार्थना
फलित होते हुए...

क्षणिक सौन्दर्य का
कीर्तिमान गढ़
हो गया वह अंतर्ध्यान,
न केवल देखने में था वैसा
बल्कि वह कर भी गया
पुल का काम...

समय की नदी को पार करवाया उसने
जहां बहुत पीछे कहीं
झिलमिला रही थी एक शाम,
वह शाम इस मायने में विशिष्ट थी
कि वह भी थी
इन्द्रधनुष के नाम...

दूरी का भाव हो जाता है दूर
जब महसूसते हैं, कि
एक गगन के नीचे हैं हम,
कोई भी टुकड़ा हो धरती का
एक सी ही बारिश से
उसे सींचे है गगन...

एक ही सूरज है,
है वो एक ही चाँद,
जो चमकता है
धरती के हर कोने पर;
बनतीं है हर बार
इन्द्रधनुष की सम्भावना,
किसी भी कोने में
आँखों के नम होने पर...

और फिर,
बनते हैं पुल...
जिससे हो कर संवेदना
लम्बा सफ़र
तय कर पाती है!
इन्द्रधनुष लुप्त हो भी जाए
तो क्या?
उसकी क्षणिक झलक ने ही जता दिया-
उन उच्चाईयों तक भी
राह जाती है!

बूंदों से बातें!

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मुसलाधार बारिश हो, तो-
बूंदें दिखाई नहीं देतीं,
पर आद्र कर जाता है
बरसता पानी!

मखमली घास पर
बिछ जातीं हैं स्नेहिल बूंदें,
बन कर
कोई याद पुरानी!

बूंदों में प्रतिविम्बित सतरंगी स्वप्न,
हर एक क्षण एक नया जन्म,
हर एक पल की
अपनी एक विरल कहानी!

झम झम के संगीत में,
धरा पर झरते गीत में,
कितने राज़, कितनी खुशियाँ
अब तक हैं अनजानी!

रुको तनिक,

सुन लो बातें बूंदों की,
गुन लो बातें बूंदों की-
ये दुनिया...
है आनी जानी!

आत्मसात कर सारा गीत गगन का
उसमें जोड़ सुर कुछ अपने मन का
है रचनी हमें
कोई धुन सुहानी!

इसलिए,

हे बूंदों! तुम सब यूँ ही रहना धवल,
करते रहना जड़ों को सबल,
फिरना स्वच्छंद...
करते हुए मनमानी!

मस्ती में ही कुछ सीखेंगे,
तुमसे ही प्रेरित हो लिखेंगे,
जीवन की
हम नयी कहानी!

एक अरसे बाद...!

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बहुत दिनों बाद ये पन्ने पलटे... मौन को सुना... अपने साथ रही, घर लौटने की सी अनुभूति ने मन को शीतल किया...! यहीं टहलते हुए कितने ही दृश्य, भाव, बातें मूर्त होती रहीं और कविताओं से जुड़ा कितना कुछ याद आता रहा... सच! लौटना हमेशा सुखद होता है...




भूली बिसरी गलियों तक जाना
जैसे हो
एक अरसे बाद
कविताओं की ओर लौटना

और भर जाना विस्मय से!

क्यूंकि,
समझ रहे थे दूर हैं
पर नहीं थी कोई दूरी
पूरे होते रहे काम ज़रूरी

और इधर मौन बुनती रही कविता
व्यस्तताओं का शोर सुनती रही कविता

अब बोलेगी...
कुछ देर मुझे पास बिठाकर मेरी हो लेगी! 


 

इतने दिनों बाद आज अपने इस घर अनुशील पर लौटे हम, ये तो एक अच्छी बात है ही:) 

पर आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण इसलिए है... कि आज हिंदी काव्य के महासागर कविता कोशका सातवाँ जन्मदिन है!!! यह परियोजना नित नए कीर्तिमान स्थापित करे, यही शुभकामना है!

वेनिस: एक अलग सा अनुभव!

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यही समय था पिछले वर्ष जब यह पोस्ट लिखी गयी थी वेनिस यात्रा के बाद... प्रकाशित करना रह गया था, ड्राफ्ट्स पढ़ते हुए इस पर रुके तो जैसे रुके ही रह गए... अपने ही लिखे शब्दों ने पुनः यात्रा करा दी ! अच्छा होता है सहेज लेना... घूमी हुई गलियों में फिर से घूमना....



पानी पर स्थित एक शहर... पुलों का शहर, करीब ४०० पुल जो जोड़ते हैं ११७ टापुओं को करीब १५० कनाल से होते हुए...! वेनिस को विलक्षण प्राकृतिक सौन्दर्य प्राप्त है, सबसे अलग सबसे जुदा है यहाँ का वातावरण... इस जहां का होकर भी जैसे इस दुनिया से परे कोई और ही दुनिया हो यह, सारे समीकरण बदले हुए, थल की जगह जल का आधिपत्य चहुँ ओर!


सड़कों की जगह सीढ़ियों वाले पुल बिछे हुए हैं; वाटर बोट, वाटर बस, वाटर टैक्सी एवं पारंपरिक गंडोला यातायात के साधन हैं. पानी ही पानी और किनारों पर स्थित सुन्दर इमारतों की नगरी, सबकुछ दृश्यमान मगर फिर भी ऐसा लग रहा था मानों कोई कल्पना ही हो. पुल पर खड़े हो कर चारों ओर जलसमूह को देखते हुए मन जाने कैसे बार बार बनारस के घाटों तक हो आ रहा था, किनारे पर लगे नाव का दृश्य मेरे लिए बनारस की याद मानों ताज़ा कर गया.

स्टॉकहोम से २ घंटे २० मिनट की हवाईयात्रा कर करीब १० बजे वेनिस पहुंचे हम. एअरपोर्ट से शहर तक बस से आये. बस स्पॉट से चलते हुए अनजान रास्तों पर बढ़ते हुए मैप के सहारे हम होटल तक आसानी से पहुँच गए. टहलते हुए फिर हम शहर घूमने निकले. पानी के किनारे पतली गलियों पर भव्य इमारतों एवं घरों के बगल से चलने का अनुभव अविस्मर्णीय रहा.






वाटर बस से पूरा शहर घूमना भी बहुत सुन्दर अनुभव रहा. ग्रांड कनाल के रास्ते से गुज़रते हुए हर एक पल, हर एक दृश्य को क्लिक कर लेने का प्रयास अब चेहरे पर मुस्कान ले आता है. हर एक पोर्ट पर वाटर बस रूकती थी, हमारी जहां इच्छा हुई उतर गए और फिर अगली वाटर बस पकड़ ली. यूँ बिना किसी विशेष ख़ाके का अनुसरण किये घूमने का अपना अलग ही अनुभव है, हर मोड़ पर कुछ न कुछ विशिष्ट जैसे हमारी राह तक रहा हो. एक अनजान शहर में जाने-अनजाने भटकने का मज़ा लेते हुए हम चलते रहे. पढ़ा हुआ शहर का इतिहास, कला और संस्कृति आँखों के आगे से गुज़रते जा रहे थे. पढ़ना और अनुभव करना दो अलग चीज़ें हैं, इसका आभास हो रहा था. आने से पहले पढ़ी गयी बातें अब अनुभूत हो कर पुनः पढ़े जाने पर एक नए अर्थ में निश्चित स्पष्ट होंगी. अब मेरे लिए वह केवल तथ्यों एवं आंकड़ों का पुलिंदा न होकर अनुभूत हवा होगी, बहता हुआ पानी होगा और जीया हुआ वातावरण होगा.




अब चलते है रियाल्टो ब्रिज की ओर. रियाल्टो ब्रिज, ग्रांड कनाल वेनिस के चार पुलों में से एक है. यह कनाल भर में सबसे पुराना पुल है जो कभी सैन मार्को और सैन पोलो के जिलों के लिए विभाजन रेखा थी. वर्तमान पत्थर का पुल १५९१ में बन कर पूरा हुआ और यह इससे पहले बने हुए लकड़ी के पुल जैसा ही है. यह पुल वेनिस के वास्तु का प्रतीक बन कर गर्व से खड़ा है. दो झुके हुए रैम्प एक केन्द्रीय पोर्टिको तक ले जाते हैं, पोर्टिको के दोनों ओर पंक्तिबद्ध दुकानें हैं. बहुत सुन्दर लगता है यह पुल, ग्रांड कनाल से आते जाते इसकी कई तसवीरें लीं.





अब हम बढ़े पियाजा सैन मार्को की ओर. अंग्रेजी में इसे सेंट मार्क स्क्वायर के रूप में जाना जाता है. वेनिस में आम तौर पर "पियाज़ा" के रूप में जाना जाने वाला यह स्थान प्रमुख सार्वजनिक स्क्वायर है. पियाज़ा के पूर्वी छोर पर सैंट मार्क चर्च है. वेनिस की सत्ता का प्रतीक स्थल डोजेज़ पैलेस यहीं स्थित है. गॉथिक वास्तुकला की एक उत्कृष्ट कृति है यह महल. पिअज़ेता दी सैन मार्को, पियाज़ा के आसपास का खुला स्थान है जो पियाज़ा के दक्षिण को लैगून के जलमार्ग से जोड़ता है. इस जगह बहुत सारे कबूतर थे और लोगों का हुजूम था कबूतरों को कुछ न कुछ खिलाता हुआ... कितने रंगरूप के नए नए लोगों को रोज़ देखते होंगे न ये कबूतर! चहल पहल से भरा यह स्थान, भीड़ का शोर और असीम उत्साह अपनी एक अमिट छाप छोड़ गए स्मृतिपटल पर.







शाम हो चुकी थी, वापस चले हम होटल की ओर. थोड़ा विश्राम किया, पुनः रात्रि में पानी के इस शहर को देखने के लिए निकल पड़े हम. कुछ देर तक पैदल घूमे यहाँ वहाँ, गलियों में, दुकानों में और पुल पर से पानी में पड़ने वाली प्रतिछवियां निहारते रहे फिर निकल पड़े एक बार और हम पानी में ग्रांड कनाल की यात्रा पर. अँधेरे में अलग सा था अनुभव, कोलाहल और शांति के बीच की कोई आनंदमयी सी स्थिति... लगा था मानों हम अकेले होंगे भटकने वाले, पर रात में भी पूरी तरह मानों जगा हुआ था शहर... बस अँधेरे की वज़ह से सुबह वाली गति ने अल्पकालिक विराम ले लिया था पर घूमने वालों का उत्साह यथावत था... अपने अपने पोर्ट पर पंक्तिबद्ध विश्रामरत गंडोला बहुत सुन्दर लग रहे थे. अँधेरे में चमकने वाली रौशनी, पानी में प्रतिविम्बित छवियाँ और साथ साथ चलती ठंडी हवा, चेहरे पर पड़ते पानी के छींटें और लौट जाने की कोई जल्दी नहीं... ये ऐसा ही है मानों मुक्त हो गए हों कुछ समय के लिए जीवन के रूटीन से, आसपास की फ़िक्र और कल की चिंता से परे एक सुकून भरा शून्य जिसमें अपने आप से मिल पाने की प्रचुर संभावनाएं विद्यमान हों.




ग्रांड कनाल की यात्रा पर पुनः चलते हुए ऐसा लग रहा था मानों पहचानी राह पर अग्रसर हों हम जिसमें कुछ सपनीले एहसास जोड़ते चले जा रहा था रौशन अँधेरा. सेंट मार्क स्क्वायर पर उतर गए हम फिर. रात में सचमुच बहुत सुन्दर नज़ारा था. जगमगाता हुआ डोजेज़ पैलेस, रौशन सैंट मार्क बासिलिका अद्भुत लग रहे थे. चारों ओर चहल पहल थी. रात्रि की नीरवता का आभास शायद इस स्क्वायर ने कभी किया ही न हो. थोड़ी देर बैठे रहे वहाँ हम, हलकी बारिश होने लगी... कुछ एक बूंदें पड़ रहीं थीं... अच्छा लग रहा था, अब वापस लौटने को मुड़े हम. वाटर बस का इंतज़ार करते हुए कुछ और तसवीरें लीं फिर लौट आये रास्ते भर पानी का संगीत सुनते हुए. एक बज चुके थे, दिन भर की थकान थी पर मन ताजगी से परिपूर्ण था...!




अगले दिन मुरानो आइलैंड की यात्रा पर चले हम. यहाँ प्रसिद्ध ग्लास फैक्ट्री है. बेहद सुन्दर लैम्प्स का निर्माण होता है यहाँ, ग्लास से बने विभिन्न कलाकृतियों से सजी जगमग करती दुकानें ध्यान आकृष्ट करती हैं. कांच अपने जादू से सम्मोहित सा करता हुआ प्रतीत होता है.






ग्लासवर्क वेनिस के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विरासत का अभिन्न अंग है.



इसके उपरांत हम चले बुरानो आइलैंड की ओर. यह लेस के काम के लिए मशहूर है. यहाँ लेस की फक्ट्री है और लेस से बनी मनमोहक चीज़ें ध्यान आकृष्ट करती हैं. फोटो फ्रेम में लेस से बने आकार और चित्र बहुत सुन्दर थे. लेस से ही बने कपड़े और अन्य ढ़ेर सारी चीज़ें अनूठी थीं. बुरानो अपने रंग बिरंगे छोटे छोटे घरों के लिए भी प्रसिद्ध है. घरों के रंग एक विशिष्ट प्रणाली का पालन करते जो कि विकास के स्वर्णयुग से जन्म लेता हुआ एक प्रक्रिया को दर्शाता है. अगर किसी को अपना घर पेंट करना हो तो वह सरकार को अनुरोध भेजता है और सरकार नोटिस के माध्यम से उस जगह के अनुसार रंग के लिए अनुमति देती है! बुरानो भी पुल के माध्यम से ही जुड़ा हुआ है और यहाँ भी पुल से शहर का दृश्य बहुत सुन्दर लगता है. रंग बिरंगे घरों की कतारें बहुत सुन्दर लगीं, उनकी प्रतिछवि पानी में जैसे और खिल जाती थीं. पुल पर चलना, घरों और दुकानों के बगल से होते हुए पतले रास्ते पर निकलना और हर कोण से तसवीरें लेने का उत्साह... सब कुछ अद्वितीय!






अब हमारा अगला पड़ाव था लिदो दी वेनेज़िया. यह यहाँ का प्रसिद्ध बीच है. यहाँ पहुँचते हुए शाम के ६ बज चुके थे, कुछ आधे घंटे ही रह पाए हम इस विशाल समुद्री तट पर... लहरों में कुछ दूर तक गए, तट पर रजकणों के सान्निध्य का अनुभव किया और अथाह जलराशि के समक्ष अपनी लघुता महसूस की. बड़ी प्यारी जगह थी, तट पर सीपियाँ चुनते हुए ढ़ेर सारा वक़्त गुज़ारा जा सकता था वहाँ... लेकिन यात्रा में पड़ाव का साथ कुछ पल का ही होता है, कुछ पल ही मिलते हैं जी लेने को स्थान विशेष की गरिमा और भव्यता, फिर तो राह ही साथ होती है... फिर चाहे वो जल हो या थल!



उसका लिखा-लिखवाया...!

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आँसुओं ने
लिखा लिखवाया...
क्या कहूँ?
भींगते हुए
मैंने क्या पाया...


अपना ही मन
फ़फ़क फ़फ़क कर
मुझसे मेरी ही
पहचान करा रहा था,
सुर ताल
कभी नहीं सीखे मैंने
पर मेरे भीतर
कोई गा रहा था! 


गीतों में,बातों में, बूंदों में
है जीवन का अक्स समाया
वो कैसे जानेगा ये सब?
जो कभी
इस गली नहीं आया


एक एक लम्हा
आने से पहले ही
जैसे...
जा रहा था,
अनकहा सा
दर्द कोई...
भीतर ही भीतर
गा रहा था!


बस, 



आँसुओं ने
लिखा लिखवाया...
क्या कहूँ?
भींगते हुए
मैंने क्या पाया...!


बहुत कुछ है...!

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बहुत कुछ है 

जो गुज़र जाता है जाते हुए समय के साथ 

मगर बहुत कुछ ऐसा भी है 

जो सदा पूर्ववत ही रहता है 


सदियां 

बीत जाने के बाद भी 


जैसे कि...

कभी घटित हुआ प्रेम, 

जैसे कि...

किसी सच्चे हृदय की आवाज़,

जैसे कि... 

सूरज का जिस सुन्दरता से निकलना, 

उसी वैभव के साथ सागर में समा जाना! 


और भी 

बहुत कुछ है… 


जिन्हें 

किया जा सकता है लिपिबद्ध 

शाश्वत अव्यवों की सूची में 


इसलिए,

घिर आई निराशा को 

दूर हटाया जाए 

जीवन को  

कुछ और सजाया जाए!

नींद की गोद से!

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नींद पर कुछ लिखना था चिरंतनके लिए, तब लिखा था यह. आज सहेज ले रहे हैं यहाँ भी…! 

जीवन का संगीत ढूंढना और मौत की कविता उकेरना चल रहा है सदियों से मनुष्य की चेतना के धरातल पर… उसी धरातल पर खड़े हो खींची गयी शब्दों की कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं:


एक दिन ज़िन्दगी
अपना अन्तिम राग
गाएगी!
फिर,
मीठी सी नींद
आ जाएगी!


मौत भी तो नींद ही है...
एक गहरी नींद-
जिसके इस पार भी प्रकाश है
जिसके उस पार भी प्रकाश है


जैसे
एक रात की नींद
देती है नया सवेरा,
वैसे ही ज़िन्दगी जब नींद लेती है...
तब होता है नया जन्म
मिलता है नया बसेरा.


नींद के आँचल का ममत्व
हर सुबह
आँखों की ज्योति में
बोलता है,
जीवन और मौत के
कितने ही रहस्य
अनुभूति के धरातल पर
खोलता है!


सब कुछ बिसरा कर
नयी किरण के स्वागत में
नींद की गोद से
हम हर रोज़ जाग रहे हैं...,
कितने ही नींद के
पड़ाव पार कर
एक जीवन से दूसरे की ओर
मानों, हम अनंतकाल से
भाग रहे हैं...!


यूँ ही यह क्रम
चलता जाता है,
जीवन और विराम का
गहरा नाता है!

कविता के बारे में...!

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पहले कभी का लिखा शब्दों का यह जोड़-तोड़ सहेज लिया जाए यहाँ…! ये कुछ नहीं… बस कविता का 'होना' और 'खोना'  अपनी जगह से खड़े हो देखती लेखनी के उद्गार :


लिखने वाले
जब कविता से बड़े हो जाने का
दम भरते हैं,
झूठे दंभ औ' शान के अधीन हो…
तो इसी बीच कहीं
मर जाती है कविता!


बेवजह की बातों पर
ठन जाती हैं लड़ाईयां,
तर्क वितर्क से
बड़े होते जाते हैं मसले…
और इसी बीच कहीं
छूट जाती है कविता!


हाथों से छूटी जो भावों की प्याली 

छिन्न भिन्न हुए शब्द,
किसी ने सहेजा नहीं उन्हें
बस बढ़ी तो तमाशबीन भीड़…
ऐसे में वहां से बस क्षुब्ध हो
खिसक जाती है कविता!


लड़ते हुए देखा शब्दों को

अक्षर आपस में मुँह फुलाये बैठे थे…
यह अप्रत्याशित सा दृश्य देख
ठिठक जाती है कविता!


और कभी जो उसके साथ होते हैं 

तो हम ये जान लेते हैं-

लिखने वाला केवल माध्यम है…  

लिख जाने के बाद 

कवि से बहुत बड़ी हो जाती है कविता!

बहुत दिन गुजार लिया यहाँ...!

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स्वीडन आये चार वर्ष हो जायेंगे इस अगस्त में…! ये "कविता जैसा कुछ" यूँ ही कुछ सोचते हुए: 


जिससे भी मिलते थे
कोई पूर्व परिचय नहीं होता था,
जब आये थे सुदूर देश के इस शहर-
हर मोड़ पर हवाओं का रुख 

अजनबियत के बीज बोता था!


अब अक्सर ऐसा होता है

कोई पहचाना सा टकरा जाता है…
राह चलते या कभी 

बस में कभी ट्रेन में,
कुछ तसवीरें हू-बहू मिलती जुलती है 

पुराने वाले फ्रेम से… 


हाल चाल की 

कुछ बातें…
गुज़रे समय में क्या क्या बीता?

कुछ इन बातों की सौगातें… 


पहचान का अक्स 

कितनी ही शक्लों में 

अब हर मोड़ पर मिल जाता है...


कभी आता जाता था अचरज की तरह 

पर, मेरे लिए अब 

इस शहर में भी मौसम 

बस नियम के अनुरूप बदल जाता है! 



ऐसे तो 

वक़्त का पता नहीं चला, 

पर सोच रहे हैं अब तो लगता है-
बहुत दिन गुजार लिया यहाँ
जाने कितने ही कोणों से पहचान हो गयी है


ठीक वैसे ही 

जैसे कभी कभी लगता है-
बहुत समय हुआ दुनिया में आये
अब शाम हो गयी है!


उदास गए थे, खिल आये!

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झिलमिल सागर से मिल आये
उदास गए थे, खिल आये


हम कभी जो भीड़ में 

गुम हो जाते हैं
देखता है मूक निस्पंद खोये हुए
तो पास बुला लेता है,
पढ़ कर मन की सारी बातें
कुछ एक बूंदों की छींटों से
कई दिनों से जागी आँखों को
मीठी नींद सुला देता है!


तट के उबड़ खाबड़ में 

मिलते हैं वो चाँद सितारे
जो किसी झरोखे से दृश्यमान फ़लक पर
नहीं उगते…
कुछ ऐसे भी खग होते हैं:
सारे दाने छोड़
जो औरों के गम के मनके
हैं चुगते… 


रजकणों के सानिध्य में 

तट पर उनसे मिलकर
मन बदल जाता है…
रूका रूका सा जीवन
उनसे लेकर रस्ते की पहचान
कुछ दूर निकल जाता है…


विस्मित हैं-

सागर के पास कितनी प्रगल्भता
कितनी गहराई है!
शब्द मेरे सीमित
छोटा सा दामन मेरा
आँख मेरी भर आई है!


उसके अपने भी तो गम होंगे

पर औरों के भी ले लेता है!
बिन मांगे ही सीपी-मोती-कंचन
कितनी ही सौगातें दे देता है!!


तभी तो-


उदास गए थे, खिल आये

हम झिलमिल सागर से मिल आये!


विस्तार पाता जाता है व्योम!

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मैं सबसे ज्यादा खुश थी जब
तब लिखी मैंने सबसे उदास कविता,
जब था मन बैठा दुःख के तीरे
तब खिंची कविता में मैंने
मुस्कान की लकीरें…  


दशा अभिव्यक्त हुई
या दशा का विलोम?
ये कलम का अधिकारक्षेत्र है,
विस्तृत उसका व्योम! 


इसमें
कहीं नहीं हूँ मैं
या कुछ भी मेरा
देखिये, शायद कहीं दिख जाए आपको
रात के अँधेरे से
उगता हुआ सवेरा 


यह कोई शब्दों का करिश्मा न होगा,
सवेरे का दिख जाना…
आपकी ही सिफ़त होगी!
इस श्रेय के लिए,
कलम आपके समक्ष…
मौन, विनीत व नत होगी!


लिखने वाले से ज्यादा,
शब्दों को उनके अर्थ
पढ़ने वाला देता है…
कम न आंकना उसकी क्षमता
वो जो
कविता का अध्येता है! 


अपने पढ़ने वालों तक पहुँच कर, 

फिर उनमें…
नए सिरे से उगती है!
कविता नए नए रूप धर
खग वृन्दों सम…
संभावनाओं के दाने चुगती है! 


और,


विस्तार पाता जाता है व्योम
कलम न रही है, न रहेगी मौन! 

ख़ुशी!

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अनमने से निकले थे हम… जहां के लिए चले थे वहाँ नहीं जा पाए, बीच में ही एक स्थान पर बस से उतर गए… नोर्दिसका म्यूजियम के आसपास, वहीँ पास में एक झूंड देखा, पंछियों का, मानों उन्होंने पास बुला लिया हो हमें, सुशील तसवीरें लेने में व्यस्त हो  गए और हम वहीँ घास पर बैठ गये… वे घूम घूम कर आसपास  दृश्यों को कैद कर रहे थे और हम  अकेले रह गए वहाँ तो बस शब्दशः जो देखा वो  उतार दिया कागज़ पर…! अभी तसवीरें देख रहे थे तो पाया कि जो जैसा लिखा ठीक वैसी ही तसवीरें भी हैं उस शाम की! साथ लगा कर सहेज  लेते हैं यहाँ कि याद रह जाये हमें वह शाम अपनी समग्रता में!
कुछ मुस्कानें और एक ख़ुशी:


चुग रहे थे पंछी बड़ी एकाग्रता से जाने क्या
मानो किसी ज़रूरी सम्मलेन में हुए हों वे इकठ्ठा
और ठीक अभी हुआ हो भोजनावकाश 


उनके आयोजन में बिना विघ्न डाले
एक मुट्ठी छाँव तलाश कर
बैठ गए हम हरी घास की चादर पर 


दूर से चला आ रहा था एक पंक्तिबद्ध समूह
और देखते देखते ही भीड़ में मिल गया
एक बच्चे ने दौड़ाया एक को तो पूरा कुनबा दौड़ गया 


फूल खिले थे हर दिशा में
लाल, गुलाबी, सफ़ेद, कत्थई और हरित भी
विशाल पेड़ उनपर छाँव किये खड़ा था कुछ कुछ चकित ही 


हम भी कम विस्मित नहीं थे
हमारे जूते थे विश्रामरत  पर चल रहे थे हम
रंग स्वर और विस्तार के कितने ही टुकड़े चुन रहा था मन!


ज़रा सी हरीतिमा का साथ

खुश होने के लिए चाहिए होते हैं बस थोड़े से ही तो ख़्वाब
और उन पर चमचमाती बूँदें बेहिसाब 


दरअसल 

ख़ुशी कोई बहुत अप्राप्य सी चीज़ नहीं है

जैसा कि वो अक्सर लगती है!




कार्ल लीनियस का शहर!

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उप्साला... कार्ल लीनियसका शहर... इस महान जीव विज्ञानी की धरोहर को सहेजे हुए यह शहर विशिष्ट रूप से स्मृति में अंकित हो गया...! बहुत सुन्दर अनुभव रही उप्साला यात्रा, एक बार पुनः जाने की इच्छा लिए जब हम लौटे तो बहुत सारे भाव थे, बहुत सारे तथ्य थे जो मुझे अपने लिए लिख कर सहेज लेने का मन था, कुछ लिखा भी था पर पूर्ण नहीं कर पायी और देखते देखते तारीख २० मई से बदलते हुए आज १० जुलाई हो आई... आज सब समेट कर बैठी हूँ यात्रा की यात्रा पर निकलने को... सब सिलसिलेवार लिख कर सहेजने को, सबों से बांटने को...!
तो शुरू करते हैं यात्रा...
स्टॉकहोम से करीब ७० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है उप्साला. हम सुबह बस से निकले और दस बजे तक वहाँ पहुंचे. एक ही दिन का समय लेकर निकले थे, रात को वापस आ जाना था. जाते हुए बस में ढ़ेर सारी सूचनाओं, मानचित्र, जगहों के विषय में पढ़ते हुए जा रहे थे कि नयी जगह पर क्या क्या देखना है, कहाँ कहाँ जाना है और कैसे जाना है.

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आज यह टुकड़ा ड्राफ्ट्स में मिला, पढ़ा तो अहसास हुआ २० मई २०१२ को की गयी यात्रा को सहेजना हो ही नहीं पाया… १० जुलाई २०१२ को ऊपर वाला टुकड़ा लिखा ज़रूर पर पूरा नहीं कर पाये. आज ८ अगस्त २०१३ है, कितना वक़्त बीत गया उस यात्रा को पर लिखने लगें तो लिख जायेंगे अक्षरशः उस यात्रा के पड़ावों को, ऐसा ही कुछ लग रहा है अभी! तो कार्ल लीनियस के शहर की यात्रा इस पोस्ट में उन्ही के घर से प्रारंभ करते हैं, भले ही हमारी यात्रा में यह अंतिम पड़ाव था! 

हम काफी हड़बड़ी में पहुंचे थे लीनियस उद्यान कि कहीं बंद होने का वक़्त न हो जाए हमारे पहुँचते तक. लेकिन ईश्वर कृपा से जब पहुंचे तो ठीक कुछ पैंतालिस मिनट का समय बचा था म्यूजियम बंद होने में, सो हमारा वहाँ समय से पहुँचने का मिशन सफल रहा. 

हम एक ऐतिहासिक शहर की सभी गलियों में घूम कर, कई स्थलों से होकर अब उस स्थान पर थे, जहां आने के लिए ही शायद हमने उप्साला की एकदिवसीय ट्रिप प्लान की थी. 


उद्यान में स्थित लीनियस म्यूजियम १७४३ से १७७८ तक लीनियस का घर था. उनके जीवन काल में यह ईमारत प्राकृतिक इतिहास और चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसन्धान के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय केंद्र थी. उन्होंने जीवनपर्यन्त साथी वैज्ञानिकों से गहन संपर्क बनाये रखा और इसी स्थल से उन्होंने अपने शोधकार्य से विद्यार्थियों की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया…! उद्यान की तरफ खुलने वाली उनके अध्ययन  कक्ष की खिड़की इस बात की गवाह बनकर आजतक यथावत खुली है सूर्य की किरणों के लिए, हवा के झोकों के लिए, फूलों की सुगंध के लिए…!


घर की दूसरी मंजिल पर स्थित सुन्दर पुस्तकालय और लेक्चर हॉल में जाकर हर एक दस्तावेज़ को ध्यान से देखना कितना अभिभूत करने वाला अनुभव था, यह कह पाने को शब्द नहीं हैं!



धरोहर को जब यूँ संभाल कर रखा जाता है, इतना मान दिया जाता है तब बनता है कोई शहर प्राणवान…! 


बोटानिकल नाम रटते हुए, पौधों की फैमिलीज़ को पहचानने का अभ्यास करना, हर्बेरियम बनाने के लिए वो ग्रेजुएशन में किया गया श्रम… सब याद आ गए, उस स्थल पर खड़े होकर. वनस्पतिविज्ञान की इस छात्रा ने शायद ही कभी कल्पना की थी कि वह एक रोज़ मॉडर्न टेक्सॉनॉमी के जनक के घर में खड़ी होगी! निश्चित ही अभिभूत करने वाले क्षण थे. ज़िन्दगी सचमुच कई सुखद संभावनाओं को साथ लिए चलती है…!विस्मयकारी भी है, कठिन तो है ही पर सुन्दर भी है जीवन की डगर!


दोमंजिली वह ईमारत शान से खड़ी है धरोहर बन कर. सहेजा हुआ सबकुछ अपने आप में एक गाथा है!

नीचे की मंजिल परिश्रमी श्रीमती लीनियस और उनके पांच बच्चों का निवास था. आज घर संग्रहालय में बदल चुका है एवं मूल रूप से परिवार से सम्बद्ध प्रदर्शनियों और वस्तुओं के माध्यम से उप्साला में लीनियस के जीवन का सक्षमता से वर्णन करता है. 


ऊपर संग्रहित वस्तुओं के चित्र हैं. अब चलते हैं रसोई की ओर… श्रीमती लीनियस की रसोई जैसे अपने ही यहाँ के कुछ दृश्यों को सजीव करती हुई सी लगी. आसान नहीं था श्रीमती लीनियस होना! (ऐसा वहाँ रसोई में लिखा हुआ था) आने जाने वालों की मेहमाननवाज़ी में उनका विशेष श्रम लगता था, भोजन की व्यवस्था भी वे स्वयं ही देखती थीं.


श्रीमती लीनियस के कमरे की भी बहुत सारी तसवीरें ली थीं हमनें, उन्ही में से एक यह… पर बहुत स्पष्ट नहीं आ पाया है. यह अपनी पत्नी सारा एलिजाबेथ मोरेअ को लीनियस द्वारा लिखित पत्र है, जिसमें उन्होंने एक कविता लिखी है!


यह पत्र कमरे की दिवार के पास स्थित अलमारी के नीचे खाने में था…! सबसे ऊपर वाले खाने में सारा लीनियस की hymn बुक है और उसके ऊपर पड़ा है उनका गोल ऐनक वाला चश्मा… इस तस्वीर में स्पष्ट तो नहीं ही दिखेगा, दूसरी वाली में शायद कुछ कुछ स्पष्ट है!





ऐसी ही बहुत सारी छोटी छोटी उल्लेखनीय चीज़ें हैं हर कमरे में, सबको समेटना चाहते थे, सबके विषय में पढना चाहते थे पर समय सीमा तय थी सो न मन भर तसवीरें ले सके न हर तथ्य को ही पढ़ सके! 

खैर, यात्राएं तो यूँ ही होती हैं… कहीं कुछ छूटता ही  है, पर संतोष है क्यूंकि यह आशा है कि फिर कभी पुनः यहाँ आना अवश्य होगा निकट भविष्य में!

अब उद्यान में भी बहुत कुछ था देखने को लेकिन समय न होने के कारण एक आध तसवीरें ही क्लिक कर पाये…!

फूलों की क्यारियां मुस्कुरा रहीं थीं मानों कह रही हों: सोच कर तो जा रहे हो, देखते हैं कभी आ पाते भी हो पुनः या नहीं!


श्वेत श्याम अपने आप में सबसे सुनहरे रंग हैं, एक सहज सरल सा आकर्षण होता है उनमें. बर्फीले मौसम में जब सारा माहौल ही श्वेत श्याम हो जाता है, तो यह चमत्कार कई बार अनुभव किया है हमने!

रंग थे चारों ओर पर श्वेतश्याम सा कुछ चमत्कारी अनुभव कर रहा था मन, दिन भर का थका हारा था, पर उत्साह नहीं था कम! तभी तो मन ही मन उन क्यारियों को हमने जवाब भी दिया था:देखना, आयेंगे ज़रूर! उन्ही क्यारियों में से एक में खिले एक फूल ने हंस कर हमारे जवाब का स्वागत किया था. उसी पीली मुस्कान की तस्वीर हमने पोस्ट के शुरूआत में लगा रखी है…! 


अंतिम पड़ाव से लिखना शुरू किया है, यात्रा की स्मृतियों से अन्य पड़ावों की भी तस्वीर एवं दास्तानें सहेज लेंगे इस बार, पुनः व्यस्त हो जाने से पहले! 

देखते हैं यह मन की बात कितना मूर्तरूप ले पाती है! 

रास्ता ही मंज़िल है!

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रास्ता कहाँ ले  जाता है, इसका पता मंज़िल तक पहुँच कर ही मिलता है… इसलिए रास्तों का मज़ा लेते हुए चलना चाहिए, रास्ता अपने आप में ही एक मंज़िल होता है!  अनुभव  की सौगातें, संघर्ष के क्षण, अनिश्चितता का भाव, दूर से नज़र आते गंतव्य तक पहुँचने की ख़ुशी, यह देख थके हुए क़दमों का उत्साह के साथ गति पकड़ना- ये अनुभूतियाँ तो राहें ही देती हैं न! रास्ते में मिलने वाले पंछी तितलियाँ फूल- सभी पथ की पहचान होते हैं!



जब हम उप्साला की एकदिवसीय यात्रा पर निकले थे तो कोई विशेष प्लान नहीं था, हमने उप्साला कार्ड ख़रीदा था, इसके माध्यम से हम वहाँ के लगभग हर स्थल में  प्रवेश पा सकते थे. हमारी मंशा बस यही थी कि ज्यादा से ज्यादा जगहों पर हम जा सकें, समय और कार्ड का समुचित उपयोग करते हुए. साल भर पहले की गयी यह यात्रा यूँ तो हमें पूरी तरह याद है, मगर लिख नहीं रहे हैं सिलसिलेवार. यात्रा का लेखनयात्रा के अंतिम पड़ाव जीवविज्ञानी लिनियस के घर से शुरू किया, तो आज अब लिख रहे हैं, तो एक शिल्पकार  का घर हमें अपने विषय में लिखने को प्रेरित कर रहा है… हमारे कदम और मेरी कलम दोनों अभी ब्रोर ह्योर्थके घर में हैं. अभी हम बड़े प्यार से याद कर रहे हैं वह वक़्त और वहाँ तक पहुँचने की कहानी, आप भी सुनिये… सच, ऐसा लगेगा कि रास्ता हर वो ख़ुशी देने में सक्षम है जिसके बारे में हमने शायद कभी सोचा ही नहीं, रास्तों को सब पता है, वे सारी मंजिलों से वाकिफ़ हैं, वे देंगे हमें पेड़ों की छाँव और गंतव्य का पता भी… हमें बस इतना करना है कि चलते जाना है!

तो शुरू करते हैं कहानी: ये हमारी यात्रा के संभावित गंतव्यों में से एक नहीं था, स्टॉकहोम से आते वक़्त उपलब्ध सूचना सामग्री में बस यात्रा में किये गए सीमित रिसर्च में हम यह स्थल रेखांकित नहीं कर पाए थे… सो दूर दूर तक यह हमारी मंजिलों की सूची में नहीं था… लेकिन रास्ते जानते थे कि यहाँ हमें अवश्य जाना ही चाहिए सो रास्तों ने मिलकर ऐसा किया कि हमें थोड़ा भटका दिया. 

सुबह से घूमते घूमते दोपहर हो चुकी थी, हम उप्साला की स्थानीय बस सेवा का उपयोग कर रहे थे और जल्द से जल्द अपनी अगली मंजिल तक पहुंचना चाहते थे. थोड़ी ही देर हुई थी कि हमें आभास हुआ कि हमने गलत रुट वाली बस पकड़ ली है जल्दी में. जैसे ही यह बात स्पष्ट हुई, हम वही अगले स्टॉप पर उतर गये… और चलने लगे कि समय बहुत कम था और आगे बढ़ना ज़रूरी था… अगली सही बस का इंतज़ार करते हुए समय बिताना ठीक नहीं था. चलते हुए हम एक दूसरे से बात कर रहे थे, बात क्या दोषारोपण ही कह सकते हैं… सुशील जी का कहना था कि हमारी बकबक की वजह से वे ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाए और गलत दिशा में जाने वाली बस पर हम सवार हो गए, इसके जवाब में हमने भी उनसे काफी बहस की. अच्छा ही था ये परस्पर दोषारोपण में थके हुए क़दमों की थकन बिसर गयी थी और हम चले जा रहे थे. 



पेड़ों के बीच से झांकता हुआ एक घर मिला, यह और कुछ नहीं, यही थी हमारी अज्ञात मंजिल, जिस तक पहुँचाने का सारा श्रेय रास्तों को जाता है. हम अब एक कला संग्रहालय के बाहर खड़े थे और निश्चय किया कि अन्दर चलना चाहिए, उप्साला कार्ड के अंतर्गत ही आता था यह संग्रहालय भी सो हम अब ब्रोर ह्योर्थ के निवास स्थल में थे - स्वीडन के बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कलाकार का घर जिसे संग्रहालय में परिवर्तित कर कला और कलाकार की आत्मा को बड़ी श्रद्धा के साथ जिंदा रखा गया है! ब्रोर ह्योर्थ (१८९४-१९६८) का लालन पालन प्रशिक्षण उत्तरी उप्साला में हुआ था और कालांतर में उनका प्रशिक्षण पेरिस में अन्तोइने बोर्देल की देख रेख में हुआ. ह्योर्थ ने अपने जीवन का तीसरा दशक लगभग पेरिस में ही बिताया. १९३० में वे स्वीडन लौट आये!

वे एक विलक्षण चित्रकार एवं शिल्पकार थे.वे बोर्देल एवं रोडिनजैसे कलाकारों से प्रभावित थे. वे मिस्र मूर्तिकला, लोक कला, और अफ्रीकी मूर्तिकला से खासे प्रभावित थे  साथ ही क्यूबिज्म से भी उतना ही! १९२१ की "क्युबिस्तिस्क फ्लीका" (क्यूबिस्ट लड़की) स्वीडन के कला इतिहास की मौलिक  कृतियों में से एक मानी आती है. गौगुइन भी ह्योर्थ के प्रेरणाश्रोत रहे. ह्योर्थ की कला की विलक्षणता और विशिष्टता यही है कि वह आधुनिकतावादी प्रशिक्षण एवं लोककथाओं की परंपरा के विलय से बना है. उनकी मूर्तिकला के उबड़ खाबड़ बीहड़ से डिजाईन और चटक रंग एक तरह से ज़िन्दादिली को ही प्रेषित करते से लगते हैं मानों जीवन अपनी पूर्ण जीवन्तता  के साथ मूर्तियों में प्रविष्ट हो गया हो. प्रेम का रूपांकन, लोककथाएं एवं सारंगीवाले उनकी कला के मुख्य विषय हुआ करते थे. धार्मिक विषयों से जुड़ी कलाकृतियाँ भी काफी संख्या में हैं, ज्यादातर वे कलाकृतियाँ उन्होंने गिरिजाघरों के लिए बनायीं. उनमें से एक है भव्य लैसटेडिअस त्रिटिचजो युकसयार्वी गिरिजाघर में है, सूदूर उत्तरी स्वीडन में!

म्यूजियम के भीतर तस्वीर लेना प्रतिबंधित था, सो तस्वीरें तो नहीं ले पाए पर एक झलक समेट सकते हैं यहाँ रिसेप्शन पर मिले कैटलौग में से तस्वीरें खिंच कर. कैटलौग से खिंची गयी ह्योर्थ की दो तस्वीर: दूसरी तस्वीर में शिल्पकार ह्योर्थ उप्साला स्टूडियो में पुरातत्वों के बीच "एवा" की अपनी पेंटिंग के साथ नज़र आ रहे हैं: :






यह म्यूजियम सबसे बड़ा प्रतिनिधि संग्रह है ह्योर्थ की कला का. सभी चित्र, मूर्तियाँ, पेंटिंग कलाकार के जीवन और अपने काम के प्रति उनकी गहरी अंतर्दृष्टि को प्रतिविम्बित करते से प्रतीत होते हैं. स्थायी संग्रह मूल ईमारत में ही है. ईमारत को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- स्टूडियो, गैलरी और बैठक. तीनों भागों में मिला कर कुल २७३ शिल्प, कला और चित्रकारी से सम्बंधित मूल नमूने हैं. 



काफी हद तक आतंरिक साज सज्जा एवं फर्नीचर, किताबें एवं औजार वैसे ही रखे हुए हैं जैसे वो कभी इस्तमाल के दौरान रहा करते होंगे. ऊपर का तल्ला ऑफिस में परिवर्तित कर दिया गया है और बेसमेंट में फिलहाल व्यापक कला एवं शैक्षणिक गतिविधियों के लिए वर्कशॉप की व्यवस्था है.

१९४३ में बने इस घर में ह्योर्थ ने अपनी शेष ज़िन्दगी बितायी… १९६८ तक! १९७८ में रिसेप्शन बना और जनता के दर्शनार्थ इस घर को संग्रहालय बना कर खोल दिया गया. प्रदर्शनी हॉल १९९४ में बनकर तैयार हुई… यहाँ पर आये दिन प्रदर्शनियां लगती रहती हैं, जब हम पहुंचे थे तब वहाँ इओन विक्लैंड के कार्यों की प्रदर्शनी लगी हुई थी. विक्लैंड मुख्यतः मशहूर लेखिका अस्त्रिद लिन्द्ग्रेन  की पुस्तकों के चित्रात्मक चित्रण के लिए जानी जाती हैं. 

जब हम चार वर्ष पूर्व स्वीडन आये थे और स्वीडिश भाषा सीखनी प्रारंभ की थी तब सबसे पहले जो किताब पढ़ी वह थी लिन्द्ग्रेन की "ब्रोदरना लेयोनह्यार्ता". इस पुस्तक से भी प्रदर्शनी में ढेर सारे इलसट्रेसंस थे जो हमें बचपन में पहुंचा देने को पर्याप्त थे. उन्हें देख कर बचपन की कहानियों सा कुछ कुछ तो लगता ही था, कि एक सी ही होती हैं हर देश की परीकथाएँ, हर देश के बच्चों का मन और बचपन का मनोविज्ञान; साथ ही हमें स्वीडिश भाषा की ए-बी-सी-डीसीखने वाले दिन भी याद आ गए! अस्त्रिद लिन्द्ग्रेन के विषय में भी लिखने को बहुत सारे अनुभव हैं, लेकिन वह फिर कभी!

रिसेप्शन पर ही म्यूजियम की दूकान है और एक कैफे भी, गर्मियों में यह कैफे बढ़ कर हरे भरे शांत उद्यान तक फैल जाता है. हम भी जब गए थे तो वह तो गर्मियों का ही वक़्त था, २० मई २०१२. कैफे उद्यान में विस्तार पाए हुए था! विश्रांति थी…  ठहर जाने को हाथ पकड़ कर बिठा लेने वाली मुद्रा में मानों हर आगंतुक से अनुनय विनय करता सा कैफे था! 

पूरी उप्साला यात्रा में हमने मात्र एक ही सुविनर ख़रीदा था और वह था एक पोस्टकार्ड इसी म्यूजियम शॉप से! पोस्टकार्ड में घर के एक कमरे की तस्वीर है जिसमें ह्योर्थ द्वारा बनायी महात्मा गाँधी की मूर्ती ऐनक लगाये खड़ी है अन्य कलाकृतियों के बीच, बड़े शान से, पूरी आभा के साथ! ऊपर लगायी तस्वीर उसी पोस्टकार्ड की है. 

प्रख्यात क्यूबिस्ट लड़की अनूठी शिल्पकला का उदाहराण है, ऊपर पोस्टकार्ड से खिंची तस्वीर में स्पष्ट नहीं है. हमने ज़ूम कर के तस्वीर निकाली है इस आकृति की, फोटो उतनी स्पष्टता लिए हुए नहीं है लेकिन फिर भी सहेज लेते हैं यहाँ!




कह नहीं सकते शब्दों में कि रास्तों को कैसे आभार व्यक्त किया था मन ही मन. ये रास्ते ही तो थे, जिन्होंने भटकाया और ले आये यहाँ सीधे एक महान कलाकार  के तपःस्थल पर, जिसने हमारे महात्मा को मूर्तिरूप देकर प्रतिष्ठित किया हुआ है अपने कला मंदिर में. ये तस्वीर भी उसी पोस्टकार्ड से ज़ूम कर के निकाला है हमने!




काश! ऐसा हो कि शांति और अहिंसा के मार्ग से कई सन्दर्भों में विमुख देश दुनिया भारत के राष्ट्रपिता के सिद्धांतों पर अमल करना सीख ले हर सांस हर सन्दर्भ में! भटकना अस्वाभाविक नहीं है पर भटके ही रहना कष्टकर है, जिस दुनिया समाज में हम रहते हैं उसके लिए भी और हमारे लिए तो भटकन दुर्भाग्यपूर्ण है ही! हमारी दिशा ही तो तय करती है समाज की दिशा, पड़ोसी मुल्कों का सौहार्द भी तो जरा से विवेक पर ही टिका होता है! कब सीखेंगे दुराचारी सीमा की मर्यादा को, कब देश के तथाकथित कर्णधार अपने जवानों की शहादत का मोल समझेंगे और सियासी राजनीति करना छोड़ेंगे, जाने कब होगा ये, जाने कब महात्मा के सिद्धांत पुनः प्राण प्रतिष्ठित होंगे? 

तीज त्योहारों का मौसम है, ईद की चहल पहल है, पर मेरी आँखों में आंसू हैं, मेरा हृदय उस परिवार के लिए रो रहा है, जिसके बेटे सीमा पर शहीद हो गए और उस शहादत का अपमान करने वाली आवाजों के प्रति क्षोभ और गुस्से से भरा है! कहाँ चली जाती बुनियादी इंसानियत, पद पर पहुँच कर मात्र नेता रह जाते हैं लोग, किसी से नाता ही नहीं होता उनका! 

गांधी की आत्मा दुखी होगी और स्मृतियों में चक्कर लगाते हुए अपने देश से सुदूर इस घर के एक कोने में जब उनके दर्शन हुए तो भावनाओं में बह कर यात्रावृतांत से थोड़ा भटक गए हम. पर भटकने पर ही सही मंजिल मिलती है ऐसा तो पहले ही स्पष्ट हो चुका है इस यात्रा के अनूठे प्रारब्ध से ही! तो, इस यात्रा की यात्रा पर जब कलम निकली है तो भटके क्यूँ न! भटक कर कलम ने सही राह पकड़ी, अपनी मिटटी तक पहुँच गयी, उन जवानों के घर तक भी जिनकी शहादत अमर रहेगी! उन्हें अश्रुपूरित नमन!

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जो सन्दर्भ रहे, जहां ले गयी स्मृतियाँ, जो लिख गयी कलम वह समक्ष है, अब आगे भी जल्द इस यात्रा के अन्य पड़ाव भी लिख जायेंगे कि वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं! 



बार बार अपने आप को ही याद दिलाना जरूरी होता है, इसलिए याद दिला दे रहे हैं स्वयं को, नहीं तो इस क्रम के रूक जाने की पूरी सम्भावना है… छुट्टियाँ समाप्त होने को हैं, अगले सत्र का शेड्यूल आ गया कल, यहाँ से मेरे पुनः गायब हो जाने की सम्भावना प्रबल होती दिख रही है…!

अनजाने शहर में पीपल की छाँव!

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फूल किसे नहीं पसंद... मुस्कराते रंग बिरंगे फूलों से ही तो दुनिया रंगीन है… जितनी भी रचना है ईश्वर की उसमें बेजुबान फूलों की बात ही निराली है… सौन्दर्य की परिभाषा लिखते हुए प्रभु ने पुष्प रच डाले होंगे और बहुत खुश हुआ होगा तो उपवन की सृष्टि कर डाली होगी! संसार निराला है, विविध रंगों, विविध जातियों के फूल भी निराले हैं! सारी दुनिया के विशिष्ट रंगों को एक स्थान पर समेट लाया जाए तो कितनी अद्भुत और निराली बात होगी… ऐसा ही कुछ अनुभूत हुआ था जब हमने उप्साला की एकदिवसीय यात्रा में बोटानिकल गार्डन के ट्रॉपिकल ग्रीनहाउस में प्रवेश किया था!

उप्साला यूनिवर्सिटी का बोटानिकल उद्यान स्वीडन का सबसे पुराना बोटानिकल उद्यान है. ३५० सालों के लम्बे समय से यह उद्यान वनस्पति विज्ञान एवं बागवानी का संयुक्त सुन्दर एवं अनुदेशात्मक मिश्रण बन कर खड़ा है.

कुछ इतिहास की बात करें तो प्रथम बोटानिकल उद्यान १६५५ में अस्तित्व में आया जिसे आज लीनियस उद्यान के नाम से जाना जाता है. कार्ल लीनियस इस उद्यान के निर्देशकों में से एक थे. अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उद्यान को और क्षेत्र विस्तार की आवश्कता महसूस हुई और १७८७ में राजा गुस्ताफ तृतीयने उप्साला का शाही उद्यान यूनिवर्सिटी को प्रदान किया बोटानिकल गार्डन में तब्दील करने के लिये. इस तरह विस्तार मिला उद्यान को. १८०७ में लीनियस की जन्मशती के शुभावसर पर "लीनियेनम" उद्घाटन के लिए बन कर तैयार हुआ. यह ईमारत महान वैज्ञानिक लीनियस को श्रद्धांजलि स्वरुप अस्तित्व में आई थी.



बोटानिकल उद्यान को दो भागों में विभक्त देखा जा सकता है, नूतन एवं पुरातन उद्यान! नोरबीवैगेन नामक रास्ता उद्यान को दो भागों में विभक्त करता है. पुराने उद्यान में अधिकांशतः बरॉकशैली में महल के बगीचे हैं वास्तुकार कार्ल हर्लेमनकी १७४४ की योजना के अंतर्गत! सीधे पथ, सुगढ़ता से सजे फूल आगंतुकों का स्वागत करते हैं. पेड़ों एवं पौधों का विशाल संग्रह उद्यान के पुराने भाग की विशिष्टता है.


ऐसा लग रहा था मानों घंटों घूमने पर भी बहुत कुछ छूट जाएगा और ऐसा ही हुआ भी. उतने विशाल क्षेत्र को पैदल कुछ एक घंटों में घूम लेना तो असंभव था ही. हम ऐसा कोई अस्वाभाविक सा लक्ष्य ले कर चले भी नहीं थे सो जितना क़दमों ने साथ दिया उतना चले और शेष कभी और आने पर घूमने के लिए पीछे छोड़ आये.


नए उद्यान की ओर बढ़ते हैं अब. यहाँ उद्यान की मूल प्रकृति बिलकुल आधुनिक थी. प्रदर्शित मग्नोलिया बेहद सुन्दर थे, एक किचन गार्डन था, बारहमासी सीमाएं अपनी सुन्दरता में सबसे विशिष्ट थीं, वृक्षों का विशाल संग्रह तो था ही. इसी नए उद्यान के मध्य भाग में स्थित है ट्रॉपिकल ग्रीनहाउस.



कहते हैं कोई भी बोटानिकल उद्यान ट्रॉपिकल ग्रीनहाउस के बिना पूरा नहीं होता. १९३० में उप्साला को जब उसका अपना ग्रीनहाउस मिला तब वैसे पौधों को भी विकसित करने की सम्भावना बन गयी जो स्वीडिश जलवायु के प्रति सहिष्णु नहीं थे. अब करीब २००० प्रजातियाँ  इस  पांच कक्षों में विभाजित ग्रीनहाउस में विकसित हैं. हर कक्ष में उपयुक्त विशेष जलवायु का ध्यान रखा गया है, विभिन्न प्रजातियों की विशेष जरूरतों के आधार पर.


यही थी हमारी मुख्य मंजिल और यहीं सबसे ज्यादा वक़्त भी बिताया हमने: आश्चर्यचकित, अभिभूत एवं प्रसन्न! फूलों एवं पेड़ों के जंगल में कृत्रिम प्रकाश की प्रचुरता, चलने के लिए बनाये गए संकरे पथ, बूंदों की आवधिक बौछाड़… सब मिलकर ग्रीनहाउस को एक जगमग हरित आभूषण सा ही बना रहे थे.


कक्ष दर कक्ष की जो अब यात्रा है वह जैसे पूरे विश्व के हरित खजानों की यात्रा है… इतना कुछ है समेटने को, समझने को, स्मरण रखने को कि इंसान एक पल के लिए भ्रमित एवं हतोत्साहित ही हो जाये. वनस्पति विज्ञान की छात्रा रहे हैं, पर इतनी क्षमता नहीं कि सबों को उनके नाम से जान पायें, याद रख पायें…! 

खैर, फूल कहाँ शिकायत करने वाले हैं, उन्हें तो बस खिल कर स्वागत करना है आगंतुकों का और मिल जुल कर सम्पूर्ण विश्व के उद्यानों में खिलने वाले अपने कुटुम्बियों संग रहना है. कितना सुन्दर और सहज है व्यवस्था का यह रूप, सांस लेता जीवन, यूँ तो मूक मगर अपने हाव भाव से वाचाल पुष्प और अद्भुत वातावरण! 


सच, एक बार तो इस विवधता के आदर्श को मानव समाज में उसी सहिष्णुता के साथ प्रतिस्थापित देखने का प्रबल मन हो आया, और ऐसा लगा भी कि संभव भी है. आखिर विवेकशील हैं हम, यूँ विविध जंगली और जहरीले पौधों संग सुकोमल फूलों को संग्रहित किया जा सकता है, खिलाया जा सकता है, विकसित किया जा सकता है, तो संवेदनशील मानव समाज की रूपरेखा ऐसी क्यूँ नहीं हो सकती? शायद होती भी है, बस कुछ विसंगतियों ने घुसपैठ कर ली है जिन्हें हमें अपने शुभ संकल्प से जीतना है! इसी शुभ संकल्प के साथ चलिए फिलहाल भ्रमण करते हैं इस अद्भुत वन में.

पहले कक्ष का नाम है विंटर गार्डन. यहाँ मेडीटेरेनियन एवं सबट्रॉपिक्स के पौधे फलते फूलते हैं. प्राचीन पौधे जैसे कि नींबू (Citros limon) एवं बे लॉरेल (Laurus nobilis) पास पास उगते हैं अन्य विदेशी पौधों के साथ जैसे कि टमाटर (Solanum betaceum), सिकड और फ़र्न. यहाँ गंधद्रव्य के पेड़ों (Pimenta dioica) को पहचाना जा सकता है और साथ ही पेरू के मिर्च के पेड़ (Schinus molle) भी. गंधद्रव्य के पेड़ मिर्टल (हिना) फैमिली (Myrtaceae) से सम्बंधित हैं और मिर्च के पेड़ आम की फैमिली (Anacardiaceae) से. 

प्रचलित धारणा के विपरीत दोनों में से कोई भी मिर्च की फैमिली (Piperaceae) से सम्बद्ध नहीं है!


दूसरे कक्ष का नाम है विक्टोरिया हॉल. यहाँ एमेज़ोनस की विशाल वाटर लिली विक्टोरिया (Victoria cruziana) का बोलबाला है! विक्टोरिया के फूल केवल रात को खुलते हैं. विक्टोरिया के विशाल फूलों के ठीक विपरीत हैं वाटर मील (Wolffia arrhiza) के फूल. वे सबसे छोटे होते हैं, अनुमान लगाया जा सकता है इस बात से कि पूरा पेड़ ही लगभग एक मिलीमीटर का होता है. यहाँ ट्रॉपिकल पेड़ों को उनकी वृहदता और विशालता में देखा जा सकता है. ताल के चारों ओर हैं पेड़, घेर कर मानों सब विक्टोरिया के संरक्षण हेतु खड़े हों! केले (Musa paradisiaca), कोको (Theobroma cacoa), दालचीनी (Cinnamomum verum), वैनिला (Vanilla planifolia), गन्ने (Saccharum officinale), काली मिर्च (Piper nigrum) और धान (Oryza sativa) से लहलहाता हुआ है हॉल.



तीसरे कक्ष को रेन फोरेस्ट के नाम से जाना जाता है. यहाँ स्थान, पोषण एवं प्रकाश के लिए सर्वाधिक स्पर्धा है! कितने ही पौधे पेड़ों पर जीवन प्राप्त करने के लिए अनुकूलित हैं. ऐसे पौधों को एपिफायिट्स कहते हैं. बहुत सारे ऑर्किड और अनानास परिवार के सम्बन्धी एपिफायिट्स की श्रेणी में आते हैं. ऑर्किड की जडें हवा में झूलती हुईं होती हैं और वही से नमी सोख कर अपनी पत्तियों या तनों में संग्रहित करती हैं वहीँ ब्रोमेलियाड वर्षा के पानी को अपनी पत्तियों द्वारा गठित रोसेट में संग्रहित करते हैं. दो भिन्न अजीर के पेड़ यहाँ विद्यमान हैं, जिन्हें अलग से चिन्हित किया जा सकता है: वीपिंग फिग (Ficus benjamina) को उसके आकार की वजह से एवं पवित्र पीपल वृक्ष (Ficus religiosa) को उसकी ऐतिहासिक महत्ता के कारण.

पवित्र पीपल वृक्ष आनुवंशिक रूप से वही वृक्ष है जिसके नीचे सिद्धार्थ गौतम ने ढाई सदी पूर्व बुद्धत्व प्राप्त किया था. यह बात बाकायदा लिखी हुई थी वहाँ मानों बुद्ध स्थल सी कोई महिमा को अवतार लेने का सदाग्रह किया जा रहा हो. उस पेड़ की छाँव में सचमुच दिव्यता थी, अब उसी परिवार का ही तो वृक्ष है न वह भी, तो अनुवांशिकी के साथ कुछ दिव्य गुण और संस्कार भी होंगे ही साझे!



अब बढ़ते हैं चौथे कक्ष की ओर. इसे ऑर्किड रूम के नाम से जाना जाता है. पूरे वर्ष यहाँ पुष्प के खिलने का सिलसिला चलता है. परागण हेतु जिम्मेदार कीड़ों के लिए ऑर्किड का अद्भुत अनुकूलन एवं रूपांतरण देखने लायक है. बहुत सारे बॉटनी लेसंस स्मरण हो आये! इस कमरे का नाम ऑर्किड रूम भले ही हो पर इस कमरे की पहचान है फिलिपींस के Medinilla magnificaके वृहद् गुलाबी पुष्पस्तवक और अफ्रीकन वायलेट, Saintpaulia, की जंगली प्रजातियाँ.


पांचवा और अंतिम कक्ष सकलेंट रूम के नाम से जाना जाता है. शुष्क वातावरण में फलने फूलने वाले पौधों का घर है यह कक्ष. अमरिका की कैक्टस प्रजाति (Cactaceae), अफ्रीका की स्पर्ज फैमिली (Euphorbeaceae), और मडागास्कर के पौधों की मिलती जुलती जीवन शैली है भले ही वे आपस में बहुत सम्बद्ध नहीं हैं! जीते जागते पत्थर अर्थात लिथोप्स (Lithops) में जब फूल नहीं खिलते तो वह बिलकुल उन्ही पत्थरों एवं कंकडों सा लगता है जिनमें वह खिलता है. मूलतः दक्षिणी अफ्रीका में पाए जाने वाले इस अनूठे व्यवहार वाले पौधे ने तो चमत्कृत ही कर दिया, अपनी पहचान खो कर अपने परिवेश का इतना अपना हो जाना कि विभाज्यता की सकल संभावनाएं ही लुप्त, वाह!


इस कक्ष की सुन्दरता कुछ अलग ही थी, भांति भांति के कैक्टस अपने नुकीले काँटों का मानों गर्व से प्रदर्शन कर रहे थे! बहुत सारे रंग बिरंगे फूल भी थे. कैक्टस भी पुष्पित हो रहा था और फिर तो उसकी सुषमा देखने योग्य थी. हरे फूलों का आकार आकर्षण का केंद्र रहा हमारे लिए, आकार फूल का और आभास पत्तियों सा! कैक्टस के वन में खिले हुए मुस्कराते फूल विपरीत परिस्थितियों से जूझने का अनुपम उदाहरण बन कर खड़े थे…!
बचपन में कहीं पढ़ी पंक्तियाँ स्मृति के दरवाज़े से झाँकने लगीं: 
"वन की सूखी डाली पर सीखा कली ने मुस्काना 
मैं सीख न पाया अबतक सुख से दुख को अपनाना" 
यही गुनगुनाते हुए वापस मुड़े और पाँचों कक्षों से होते हुए प्रवेश द्वार तक निकल आये!


तो ये पूरी हुई यात्रा विश्व के हरित समुदायों के वृहद् संकलन की.  यह उद्यान सफलतापूर्वक पौधों की प्रजातियों के संरक्षण और जैव विविधता के लिए एक समझ विकसित करने के उद्देश्यों को पूरा कर रहा है.

यह भ्रमण तथ्यों के सन्दर्भ में जितना ज्ञानवर्धक था उतना ही समृद्ध एवं प्रफुल्लित मन भी हुआ नयनाभिराम छवियों को स्वयं में बसाकर!

पीपल की छाँव को आत्मा की गहराइयों में कहीं बसाकर जो हम अलविदा कह रहे थे इस मंज़र को, तो आँखें चमक भी रहीं थीं और कुछ नम भी थीं... आखिर, इस अनजान देश में पीपल और बरगद की छाँव ढूंढते मन ने उप्साला के इस पड़ाव पर कुछ अपना सा पा जो लिया था!

सेल्सिअस की कब्र से!

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कल जो फूलों की सन्निधि एवं पीपल की छाँव के विषय में लिखा तो कुछ कुछ उनके निकट होने के भाव को जीया भी. 

आज सुबह जो आँखें खुलीं और हम अपनी खिड़की के पास बैठे तो कुछ ठंढक महसूस हुई. इस बार गर्मी का मौसम कुछ ज्यादा ही सुहावना रहा यहाँ, धूप ने खूब दर्शण दिये, सूर्य देवता खूब मुस्कराए सागर किनारे! लेकिन अब मौसम बदल रहा है, बादल हैं, कुछ बारिशें हैं और मेरी खिड़की पर खड़ा एक गमला है… जिसे कल ही हमने हवा और धूप से बातें करने को खिड़की पर रखा है! अभी जो देखा तो सूर्य की स्निग्ध किरणों में मेरा गमला बड़ा खुश लगा, सिकुड़ आई पत्तियों को जैसे हवा ने सहला कर दुरुस्त कर दिया था… बस मन नहीं हुआ कि खिड़की के पल्ले लगा कर गमले से उसकी मुस्कान छीन लें, सो बस ओढ़ ली है हमने एक शाल और अब हम दोनों खुश हैं, गमला भी और हम भी!

बचपन के दिनों में और जब तक साथ रहना हुआ हम चारों भाई बहन सुबह के सूर्य का स्वागत पापा के साथ छत पर से किया करते थे, मंत्रोच्चारण के साथ फिर सभी अपने से बड़ों के पाँव छूते थे! मेरे सबसे छोटे भाई को सबसे ज्यादा बार झुकना होता था चरणस्पर्श करने को पर प्यार और आशीष भी तो सबसे ज्यादा उसके हिस्से में ही आते थे! 

आज जब सभी अलग अलग जगहों पर हैं, जीवन ने दिनचर्या बदल दी है, होस्टल के जीवन ने सबके सोने जागने के समय में मूल चूल परिवर्तन कर दिया है, तब भी हमें विश्वास है, सूर्य दर्शण पर हममें से हर कोई मंत्रोच्चारण करता ही होगा और मन ही मन मात-पिता के चरणस्पर्श भी! देखते हैं, मम्मी पापा के पास हम चारों भाई-बहन एक साथ कब इकट्ठे होते हैं? फिर जियेंगे वो क्षण जिसकी स्मृति ने अभी हमें पकड़ रखा है!

भगवान भास्कर के नाम का उच्चारण मन में चल रहा है- ॐ सूर्याय नमःॐ भानवे नमःॐ रवये नमःॐ दिवस्पतय नमः ॐ खगय नमःॐ पुष्णे नमःॐ तेज्पूंजाय नमः ॐ जगतचक्षेसु नमः ॐ जगत जीवनाय नमः ॐ हिरण्यगर्भाय नमःॐ मारिचाये नमःॐ आदित्याय नमःॐ सावित्रे नमःॐ अर्काय नमःॐ भास्कराय नमः ॐ आरोग्यं इच्छेतु भास्करात ॐ ज्ञानं इच्छेतु शंकरात…

सूर्यदेव की प्रार्थना के साथ अपने घर जमशेदपुर पहुँच गए हम मन ही मन, मम्मी को फ़ोन भी कर लिया, आँखें भी नम हो गयीं, अब क्या अब जो लिखने लगे ही हैं तो मन को जरा वहाँ से हटाने में… मन को भुलाने में कुछ सफलता मिल ही जायेगी!

बेहद शांति है, मन को कहीं और लगाना ही है तो उप्साला के यात्रावृतांतको ही आगे बढाया जाए! अजनबी शहर में पीपल की छाँव सेनिकल कर अब हम चलते है पुनः २० मई २०१२ वाले दिन तक और आज स्मृतियों से ढूंढ निकालते हैं उप्साला के प्राचीन शहर को उसकी पौराणिक विशेषताओं एवं मनभावन गलियों के साथ!

शुरू से शुरू करते हैं… उप्साला पहुँचते ही ओल्ड टाउन के लिए बस पर सवार होकर निकले हम, हाथों में मानचित्र और उसे इन्टरप्रेट करने के प्रयासों के साथ. पूरे बस में केवल हम दो ही यात्री थे और बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थी, बस चालक की मदद से हमें यह स्पष्ट हो गया था कि किस स्टॉप पर उतरना है, उस भलेमानुष ने स्टॉप से आगे कैसे बढ़ना है, इस विषय में भी थोड़ी जानकारी दे दी थी इसलिए कुछ और सहुलियत हो गयी! हम आश्वस्त हुए कि शुरुआत तो बहुत अच्छी हुई है, दिन भी अच्छा ही रहेगा!
अब हम पुराने उप्साला की धरती पर थे. इतिहास, संस्कृति एवं सौन्दर्य से समृद्ध यह इलाका स्कैनडनेवियाका सबसे बड़ा अंत्येष्टि स्थल भी है!

उप्साला शहर का यह भाग इस सन्दर्भ में सबसे जुदा है कि यह महान ऐतिहासिक महत्त्व का एक बिन्दु होने के साथ ही साथ प्रकृति संरक्षण का भी अनूठा केंद्र है! 

स्वीडन के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण भाग में चलना था ओल्ड टाउन की धरती पर चलना. लौह युग के अंत्येष्टि स्थल, बारहवीं शताब्दी में निर्मित एक मध्यकालीन गिरिजाघर, और छठी शताब्दी के तीन भव्य टीले शाही कब्रिस्तान के! इन टीलों से दूर तक का दृश्य देखा जा सकता है, घास से अच्छादित इन हरे भरे टीलों पर चढ़ कर हमने दृश्य का आनंद भी लिया और तसवीरें भी खींचीं! 

कहते हैं यहाँ होने मात्र से आप इस स्थल के इतिहास का हिस्सा हो जाते हैं! आखिर शताब्दियों पुरानी जगह में खड़ा होना ही इतिहास को जीने की तरह है!


इसी क्षेत्र में एक म्यूजियम भी है… उन पुराने दिनों को दर्शाता हुआ! यहाँ का इतिहास पढ़ते हुए वाइकिंगसके बारे में कुछ जाना है, उनकी जीवनशैली से सम्बंधित सबकुछ संरक्षित है म्यूजियम में, यह सब देख कर पढ़ी हुई बातें ताज़ा हो गयीं!


म्यूजियम में वह शताब्दियों पुराना माहौल जैसे पुनः सृजित किया गया है, पुरातन चीज़ों के प्रदर्शन से, पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त विभिन्न वस्तुओं से!


वाइकिंग्स लोग पढ़ लिख सकते थे और ध्वनि मूल्यों पर आधारित रुणर नामक एक गैर मानकीकृत वर्णमाला का इस्तेमाल किया करते थे. वाइकिंग युग से कागज पर रूण लेखन के कुछ अवशेष मिलते हैं! रूण के शिलालेख भी मिलते हैं जिन्हें आमतौर पर मृतकों की स्मृति में पत्थर पर लिखा जाता था! रुणर का उपयोग लैटिन वर्णमाला के साथ समानांतर प्रयोग में आता रहा १५ वीं शताब्दी तक.


अंत्येष्टि क्रिया की भव्यता को भी उसके पूर्ण वैभव के साथ दर्शाया गया है. नीचे एक नाव में किसी महिला की कब्र है. आलिशान होता था मौत का उत्सव और मृत्युपरांत जीवन की तैयारियां भी. ऐसे ही कई नमूने और थे प्रदर्शित जिनसे हो कर गुजरना मौत और जीवन के किसी संधिक्षेत्र से हो कर गुजरना था!

ऑडियो विडियो भी चल रहा था म्यूजियम के एक कक्ष में, अँधेरे में परदे पर उस युग की कहानी ज्यूँ चल रही थी वहीँ आसपास से अपना युग जैसे लुप्त हो रहा था… हम अब उस समय में थे जहां से इस समय तक की दूरी बहुत बड़ी थी! 

ये एहसास होने में विशेष वक़्त नहीं लगा कि हमारे पास वक़्त बहुत कम है और देखे जाने को शेष कई मंज़र क्यूंकि ये तो सफ़र की शुरुआत ही थी! इसलिए हम परदे पर चल रही कहानी को पीछे छोड़ आगे बढे म्यूजियम से चर्च की ओर!

बहुत भव्य एवं पुराना है यह गिरिजाघर, बारहवीं शताब्दी के इस चर्च में कई अद्भुत कलाकृतियाँ देखीं! आल्टर अर्थात वेदी तक जाने वाली राह में जो कालीन बिछी हुई है, उसी ज़मीन के भीतर स्वीडन के प्रसिद्द खगोलशास्त्री अन्दर्स सेल्सिअसविश्रामरत हैं, यह सेल्सिअस परिवार की कब्रगाह है! वहाँ लगे पट पर यह पढ़कर एक बार तो कदम जैसे ठिठक गए, एकदम जाने पहचाने से नाम का इतिहास और जीवन सब समक्ष ही तो थे! सेल्सिअस से परिचय तो उन दिनों तक जाता है जब ७वीं/८वीं में भौतिकी के पाठ में हम सेल्सियस स्केल को फ़ारेनहाइट में कन्वर्ट करते थे! आज जहां खड़े थे वहाँ उस सेल्सिअस की रूह अपने विश्रामगाह में थी और हम इस एहसास और संज्ञान के साथ वहाँ  खड़े थे कि इस क्षेत्र में कब्रें ही कब्रें हैं, चर्च के भीतर भी और चर्च के बाहर भी!

तस्वीरों के माध्यम से चर्च के कुछ एक धरोहरों को यहाँ सहेज लें, निश्चित ही इनकी ऐतिहासिकता को याद रख लेना आवश्यक है यात्रा के पड़ाव को रेखांकित कर लेने की दृष्टि से…

यह है आल्टरपीस, इसमें क्रमशः बायें से नज़र आ रहे हैं संत एरिक, संत एस्किल, पीटर, मेरी, जॉन, पॉल, संत ऑलोव, बिशप हेनरिक, बिशप इरेस्मस (संभवतः), संत लियोनार्ड, मेरी मैग्डालेन, संत एलिजाबेथ, संत ब्रिजेट, संत जर्त्रुद, संत बर्नार्ड और संत लार्स.

और यह है बिशप का सिंघासन और शायद स्वीडन का सबसे पुराना फर्नीचर भी!

चर्च में प्रवेश करते ही एक सिल्वर कैबिनेट है, जिसमें बहुत सारी ऐतिहासिक वस्तुएं हैं. इन्हें क्रमशः पहचाना जा सकता है! उसी वक़्त वहाँ से हर वस्तु का समयकाल नोट कर लिया था. आज यहाँ वस्तुओं को उनके नाम और समयकाल के साथ लिख लेते हैं, तस्वीर पढने जैसा कुछ चमत्कार सृजित होगा!

सिल्वर कलश (१६७३), सिल्वर घंटी (१७४४), प्याला (१४ वीं शताब्दी), थाल (१५ वीं शताब्दी), दुल्हन का मुकुट (१८ वीं शताब्दी), थाल (१५ वीं शताब्दी), दुल्हन का मुकुट (१९६५), प्याला, बप्तिस्मल फॉन्ट (१७५० से पूर्व का), पैरिश कपडा (१७५६), धूपदान (१३ वीं शताब्दी) क्रमशः पहले रैक में हैं.

दूसरे रैक में: वेफ़र बॉक्स, मोमबत्तियां एवं आल्टर क्रास, सिल्वर चम्मच (१६९०-१७१८), सिल्वर तस्तरी, वाइन पिचर (१६९२), प्याला (१८६२), वेफर बॉक्स, स्मृति मुहर (१९८९), और इसाई दीक्षा सम्बन्धी जल का कलश (१९९०). 

तो इस तरह पुरातन से अपेक्षाकृत नवीन समय तक का पूरा सफ़र है इस कैबिनेट में! आज सभी के विवरण को यहाँ लिख कर अच्छा लग रहा है कि सुरक्षित रह जायेंगे तथ्य यहाँ. इन गुज़रे एक डेढ़ साल तक कागज़ ने पेंसिल की लिखावट संभल कर रखी हुई है, खो भी तो सकती थी, सो आज वह कागज़ भी जैसे अपने दायित्व का निर्वाह कर संतुष्ट और निश्चिंत लग रहा है जब उस पड़ाव को हम अनुशील पर लिख कर हमेशा के लिए सहेज चुके हैं! वैसे ये हमेशा के लिए तो कुछ भी होता नहीं, फिर भी…

अब एक मूर्ती की तस्वीर: सेंट एरिक की यह मूर्ती १३ वीं - १४ वीं शताब्दी से है. सेंट एरिक के नीचे की ताजपोश ट्रोल ताज के लिए बुतपरस्ती और बुतपरस्त दावेदार दोनों का प्रतीक हो सकती है…

आल्टर के करीब एक बच्चे के साथ मडोना की मूर्ती है. यह १५ वीं शताब्दी के समय की है! ममत्व एवं करुणा का प्रतीक बन कर दैदीप्यमान है…

१३ वीं शताब्दी की "ट्रायम्फल क्रॉस" चर्च में बगल की दिवार पर है एवं दूसरी तस्वीर छत से झूलते १५ वीं शताब्दी के ट्रायम्फल क्रॉस की है!

प्रवेश द्वार से  बाहर निकलते हुए ये नूतन पुरातन के अनेक विम्ब भी साथ निकले, कब्र की आहटें भी साथ हो लीं कि प्रवेश द्वार के बाहर भी तो कब्रगाह ही था, विश्रामरत रूहों का निवास स्थल.

स्वीडिश कविताओं का अनुवादकरते हुए मौत एवं कब्रगाह से सम्बंधित कई कविताओं से गुज़रे हैं, यहाँ से निकलते हुए याद आती है कवि इंग्रिद काल्लेनबेक की एक कविता की पंक्तियाँ: :

"मृत्यु है मात्र 
जीवन की पुनरावृति."

सच, जीवन और मृत्यु के संधिस्थल सा ही तो कुछ दृश्य है, हर तरफ पसरी खामोशी और इसी ख़ामोशी के बीच गूंजता जीवन आगंतुकों की चहल पहल में! इस जगह को यूँ सहेज कर रखा गया है मानों सचमुच एक कविता ही हो मौत और एक उत्सव ही हो मृत्युपरांत जीवन!


यहाँ से निकले तो इतिहास कई मायनों में परीचित सा लग रहा था, बीती शताब्दियों की गूँज जैसे सुन पा रहे थे हम! 

अलविदा, ओल्ड टाउन! बहुत कुछ शेष रह गया, पर अभी मन कुछ भरा भरा सा है, अब तुम्हारी हरियाली और रास्ते को कभी और देखेंगे… कभी और आयेंगे तुम्हारे पास तुम्हें जीने…!

अब स्टॉकहोम से कहाँ अधिक दूर है उप्साला, दोबारे आया तो जा ही सकता है न!


मैं नहीं, लेकिन मुझमें है भगवान!

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प्राचीन से नवीन की ओर हो... या नवीन से प्राचीन की ओर, यात्रा हमेशा सुखद होती है और सुखद होने का अर्थ आसान होने से बिलकुल नहीं है. हमारी यात्रा भी आसान नहीं थी, मन को समय लगता है मृत्यु की नीरवता से जीवन की ओर लौटने में, इतिहास के खंडहरों से वर्तमान के पथ तक का रास्ता तय करना इतना सहज नहीं, हाँ! भौतिक स्तर पर अवश्य है, लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह एक बेहद जटिल प्रक्रिया है!

उप्साला के प्राचीन शहरसे जब हमने न्यू टाउन की ओर प्रस्थान किया तो ऐसी ही जटिलता का अनुभव हुआ, पीछे था सदियों पुराना युग और आगे था रास्ता! रास्ते में थीं मंजिलें और मंजिलों से होकर समय से वापसी के लिए उप्साला-स्टॉकहोम बस पकड़ने के लिए सेंट्रल स्टेशन पहुँचने की जल्दी.  


हम अब उप्साला के नवीन शहर में थे. स्टॉकहोम के मुकाबले काफी छोटी जगह है, पैदल ही तय किया जा सकता है सफ़र. यहाँ स्टॉकहोम की अपेक्षा खूब साईकिलें चलती देखीं…! जगह छोटी है शायद इसलिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट की वैसी बहुलता भी नहीं है और उस सुविधा का इस्तमाल करना अवश्यम्भावी भी नहीं है जिसके हम आदी हैं स्टॉकहोम में! 

हर शहर की अपनी पहचान होती है, अपना ढंग होता है, अपने सपने होते हैं, अपनी जीवन शैली होती है जो उसे अन्य शहरों से एकदम अलग करती है… उप्साला भी अपने आप में अलग है, छोटा है, प्राचीन है एवं स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम का पड़ोसी है!

न्यू टाउन के केंद्र में पहुंच चुके थे हम. शहर के इस हृदय क्षेत्र में स्कांडेनेविया का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय स्थित है. उप्साला यूनिवर्सिटी की स्थापना १४७७ में हुई थी और पूरे स्कांडेनेविया में यह उच्च शिक्षा का विशालतम एवं प्राचीनतम केंद्र बन कर अब तक खड़ा है! फ़िरिस नदी के पश्चिमी भाग में स्थित विश्वविद्यालय की सशक्त उपस्थिति है गिरिजाघर के आसपास के क्षेत्र में! यहीं पर मशहूर महल व किला भी है. यहाँ स्थित गिरिजाघर की विशेष महत्ता है! १३ वीं शताब्दी का यह कैथेड्रल ११८.७ मीटर ऊँचा है एवं  इसे स्कांडेनेविया के सबसे बड़े चर्च होने का गौरव प्राप्त है. 

कैमरे के फ्रेम में इसे कैद कर पाना बेहद मुश्किल था, वैसे दूर से इसकी तस्वीर कहीं से भी से भी ली जा सकती थी! इतना ऊँचा है कि काफी दूर से दृश्यमान है. इस ऐतिहासिक महत्त्व के केंद्र में विश्वविद्यालय का अच्छा खासा वर्चस्व है! विश्वविद्यालय का विशाल बोटानिकल गार्डन तो हम देख ही चुके हैं!

इस ऐतिहासिक शहर का शाही महल (उप्साला स्लॉत) १६ वीं शताब्दी का है, इस पुरातन महल ने स्वीडन के प्रारंभिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, महल की दीवारों ने कई निर्णायक ऐतिहासिक क्षण देखे होंगे! 

महल का निर्माण उस काल में हुआ था जब स्वीडन यूरोप की महाशक्ति बनने की राह में अग्रसर था. १५४९ में राजा गुस्ताव वासा ने महल का निर्माण कार्य शुरू किया था! १७०२ में आग के कारण क्षतिग्रस्त शाही महल बहुत समय तक अपनी दुरवस्था में पड़ा रहा. स्टॉकहोम पैलेस के निर्माण में इस महल के अवशेषों को खदान की तरह इस्तमाल किया जाना इस महल के पुनर्निर्माण में बाधा उत्पन्न करता रहा! 

ये तो हुई इतिहास की बातें, अभी तो जो नज़रों ने देखा वह भव्य था, क्षति के सकल चिन्ह लुप्त थे कहीं इतिहास में ही! 


वर्तमान में यह महल उप्साला काउंटी के गवर्नर का निवास है एवं एक भाग कला संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव  डैग हैमरस्क्जोल्ड का बचपन इसी महल में बीता था जब उनके पिता ह्याल्मर हैमरस्क्जोंल्ड उप्साला काउंटी के गवर्नर थे!

महल का दृश्य हमने कैमरे में बोटानिकल गार्डन से भी कैद किया था और अब यहाँ से खड़े होकर हम गार्डन की तसवीरें निकाल रहे थे!

महल के एक ओर स्थित है प्रसिद्ध गुणिला क्लॉक! यह घड़ी बेल टावर के शीर्ष पर लटकी हुई उप्साला शहर एवं विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह बन कर विद्यमान है! 


बेल टावर १५८८ में रानी गुणिला द्वारा वित्तपोषित किया गया था, शायद इसे शाही महल के चर्च हेतु बनाया गया था पर कालांतर में यह पूर्वी टावर पर बूम से लटकता हुआ समय के संकेत के रूप में क्लॉकवर्क की तरह इस्तमाल किया जाने लगा. १७०२ की भयानक आग में शहर के जलने के उपरान्त इसकी भूमिका शहर की सुरक्षा घड़ी की हो गयी और तब से यह प्रतिदिन दो बार क्रमशः सुबह और शाम के वक़्त बजता आ रहा है! शाम का घंटा इस बात का संकेत है कि सभी नागरिक अपने घर लौट जाएँ और विश्राम करें वहीँ सुरक्षाकर्मियों के लिए यह अपने काम पर तैनात हो जाने का संकेत है. सुबह के समय बजने वाला घंटा इस बात की ओर इंगित करता है कि रात बीत गयी है और नए दिन ने दस्तक दे दी है. यह घंटे की ध्वनि मानों अपने सुरक्षा कवच में रखे हुए है शहर को, सुबह होगी इस बात का आश्वासन भी है घंटा और रात की गोद में सुला देने की निश्चिंतता भी है घंटे की आवाज़! 

कितना वृहद् अर्थ है न इस बात का, डूब रहे मनोबल को ये एक आश्वासन ही तो चाहिए होता है कि सुबह होगी… किसी दिन जो उजाला न भी हुआ तो ये घंटा उजाले का प्रतीक बनकर कोई उजाला सृजित ही कर दे, कौन जाने! विश्वास और श्रद्धा लम्बी दूरी तय करते हैं, बुद्धि की अपनी सीमा है… वह थक कर बैठ जाती है!

अब कुछ तथ्य: सुबह ६ बजे और रात ९ बजे घड़ी का घंटा करीब १५० बार बजता है, १९८० से इसे स्वचालित कर दिया गया है! स्वीडन के कई शहरों में ऐसी ही सुरक्षा घड़ी (वार्ड क्लॉक) का कांसेप्ट है!

इस क्लॉक में जैसे एक सम्मोहन था, तथ्य जानने के बाद आस विश्वास से जुड़ गया इसका अस्तित्व, सो यहाँ से हटना नहीं चाह रहा था मन. अभी लिख भी रहे हैं तो काफी समय अटके रहे यहीं पर! लेकिन अब आगे बढ़ना चाहिए, तो चलते हैं कला संग्रहालय की ओर! 

हमने महल में प्रवेश किया शाही माहौल में सजे हुए कला संग्रहालय के अवलोकनार्थ! बहुत विशाल संग्रह है. हर एक कमरे में बहुत लम्बा समय व्यतीत करना संभव नहीं था, जितना देखा अच्छा लगा और शेष पढ़ जाने के लिए वहाँ उपलब्ध एक पुस्तिका ले ली! पुस्तिका में कला संग्रहालय को सम्पूर्णता में लिखा गया है! लौट कर पढ़ा तो जितना देखा था उसके विषय में एक अंतर्दृष्टि मिली और जो नहीं देख पाए थे उनके बारे में जाना और देख ही लेने का सा संतोष अनुभूत किया. यह भी जाना कि कुछ छूट जाना भी अच्छा ही होता है, न छूटता तो पढ़ने की जिज्ञासा नहीं बनती और यह पुस्तिका भी अन्य कई पुस्तिकाओं की तरह अनछुई ही रह जाती! 

कुछ छूटता है तो कुछ पाते भी हैं हम, दृश्य छूटे तो दृश्य की पहचान मिली! यहाँ तो हमने सरलता से विश्लेषण कर लिया छूटने एवं पाने के सच को पर जीवन में इतना आसान क्यूँ नहीं होता यह करना? ये छूटना मन में यूँ आरोपित कर लेते हैं हम कि जो पाते हैं उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता! 

आसमान से बातें करता कैथेड्रल अब हमारे न्यू टाउन के सफ़र का अंतिम पड़ाव था. शाम हो चुकी थी, दिवस अपने अवसान के करीब था. समय ने तेजी से भागना शुरू कर दिया था. स्कांडेनेविया के इस सबसे ऊँचे चर्च में प्रवेश करते हुए हम चमत्कृत थे! 

भीतरी छत और दीवारें नवीन गोथिक कला का उत्कृष्ट उदहारण है, साज सज्जा में अनुपम है यह गिरिजाघर! कितनी ही तस्वीरें लीं, सबके विवरण कहाँ याद रहने वाले थे, पर मुख्य कोण एवं सन्दर्भ विस्मृत होने वाले भी नहीं थे सो याद रहे! उन्हें वैसे ही सहेज रहे हैं यहाँ…

मध्ययुग से सत्रहवीं शताब्दी तक यह गिरिजाघर कितने ही राज्याभिषेकों का गवाह रहा. उसके बाद १८७२ तक स्टॉकहोम कैथेड्रल अधिकारिक राज्याभिषेक चर्च रहा! १८७२ में समारोहपूर्वक ताज पहनने वाले अंतिम राजा थे ऑस्कर द्वितीय!

१७०२ की दुर्घटना में जल कर नष्ट हुए घंटे के स्थान पर आज लटक रहा है "थोर्नन", इस कैथेड्रल के उत्तरी टावर पर! थोर्नन नाम का यह घंटा स्वीडन का सबसे बड़ा घंटा है. इसे उत्तरी युद्ध के दौरान चार्ल्स बारहवीं के सैन्यबलों ने युद्ध लूट के रूप में पोलैंड से प्राप्त किया था. 

कैथेड्रल के भीतर कई राजा एवं अन्य गणमान्य व्यक्तियों को दफनाया गया है. उनमें से कुछ चिन्हित किये जा सकते हैं.गुस्ताव वासाअपनी तीन पत्नियों के साथ यहीं दफनाये गए थे, जबकि विलेम बॉयद्वारा डिजाईन किये गए ताबूत में केवल दो ही चित्रित हैं! 

गुस्ताव वासा के पुत्र जॉन तृतीय अपनी पत्नी के साथ यहीं विश्रामरत हैं. लीनियस को भी इसी चर्च में दफनाया गया है. प्रसिद्ध स्वीडिश बहुज्ञ ओलयस रुदबेककी भी कब्र यहीं है. वे लसिका प्रणाली के आविष्कारकों में से एक थे. उन्होंने अटलांटिका नाम की एक पुस्तक लिखी थी जिसमें स्वीडन को संसार की उत्पत्ति का केंद्र एवं उप्साला को खोया हुआ अटलांटिस दर्शाने का प्रयास था. आगे बढें तो १८ वीं सदी के वैज्ञानिक एवं रहस्यवादी एमानुएल स्वीडनबोरिकी कब्रगाह है, हालाँकि उन्हें मूलरूप से यहाँ नहीं दफनाया गया था बल्कि उनके अवशेष इंग्लैंड से उप्साला लाये गए थे. 

गिरिजाघर में मृत्युपरांत नोबल शांति पुरष्कार पाने वाले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रह चुके डैग हैमरस्क्जोल्डका एक छोटा सा स्मारक भी है, पत्थर पर कुछ यूँ लिखा हुआ है शिलालेख :


Icke jag

utan Gud i mig

Dag Hammarskjöld 1905 – 1961


इसका अनुवाद है: : "मैं नहीं, लेकिन मुझमें है भगवान"

इस शिलालेख को पढ़कर कुछ समय तक स्तब्ध खड़े रहे, कितने गहरे अर्थ हैं इस पंक्ति के…! हम सभी इंसान हैं भगवान नहीं, मगर हममें ही कहीं भगवान है! अलग से शायद कोई अस्तित्व ही नहीं उसका, उसने स्वयं को हमारे भीतर ही प्राण प्रतिष्ठित किया हुआ है तो बाहर उसकी तलाश ही व्यर्थ हुई न. हम उसे बाहर ढूंढते हैं तो कहाँ से मिलेगा वह हमें, कहाँ से उत्तर देगा हमारे प्रश्नों के! अंततः हर प्रश्न का उत्तर तो हमें ही बनना है… प्रश्न बनकर हम गुज़ार देते हैं जीवन जबकि हममें कितनी ही जटिलताओं का उत्तर बनने का सामर्थ्य है! जीवन पहेली है तो पहेली को सुलझाने का दायित्व हमारा ही तो है, जिसने बनाया जीवन वह जब भीतर ही कहीं स्थित है तो क्यूँ न उसे जानकर… उसका ध्यान धर… हम मशाल बनें हर अन्धकार के लिए!

शिलालेख ने स्तब्ध किया था तो इस महिला को देख कर भी हम कम स्तब्ध नहीं हुए थे. यह जीती जागती औरत नहीं है, यह एक मूर्ती है जो ध्यान से ऊपर देख रही है! हम बिलकुल भ्रमित हो गए थे, इसे सच मान लिया था, दोबारे पलट कर इसे छुआ फिर आश्वस्त हुए! 

लग रही है न यह आकृति एकदम प्राणवान! शिल्पकार ने हृदय  से आकार दिया होगा इसकी भाव भंगिमाओं को, तभी तो इस कदर जीवंत हो उठी है!

चर्च से निकल कर अब हम सेंट्रल स्टेशन पर थे. टाउन स्क्वायर में कुछ तस्वीरें लीं और बस तक पहुँचते हुए करीब नौ बज चुके थे, नौ बजे की बस पकड़ कर वापसी का सफ़र शुरू हुआ और मध्यरात्रि के आसपास हम अपने घर में थे. एक दिन की उप्साला यात्रा तो उसी दिन २० मई २०१२ को पूरी हो गयी थी पर शायद हम सफ़र में ही थे अबतक! आज लिखने के बाद लग रहा है कि अब पूरी हुई है यात्रा.

सच! कुछ यात्राएं अपने ख़त्म होने के बाद ही शुरू होती हैं…  या शायद गोलार्ध में चलती ही रहती हैं हमेशा… किसी परिक्रमा की तरह! 

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