हम अब उप्साला के नवीन शहर में थे. स्टॉकहोम के मुकाबले काफी छोटी जगह है, पैदल ही तय किया जा सकता है सफ़र. यहाँ स्टॉकहोम की अपेक्षा खूब साईकिलें चलती देखीं…! जगह छोटी है शायद इसलिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट की वैसी बहुलता भी नहीं है और उस सुविधा का इस्तमाल करना अवश्यम्भावी भी नहीं है जिसके हम आदी हैं स्टॉकहोम में!
हर शहर की अपनी पहचान होती है, अपना ढंग होता है, अपने सपने होते हैं, अपनी जीवन शैली होती है जो उसे अन्य शहरों से एकदम अलग करती है… उप्साला भी अपने आप में अलग है, छोटा है, प्राचीन है एवं स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम का पड़ोसी है!
न्यू टाउन के केंद्र में पहुंच चुके थे हम. शहर के इस हृदय क्षेत्र में स्कांडेनेविया का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय स्थित है. उप्साला यूनिवर्सिटी की स्थापना १४७७ में हुई थी और पूरे स्कांडेनेविया में यह उच्च शिक्षा का विशालतम एवं प्राचीनतम केंद्र बन कर अब तक खड़ा है! फ़िरिस नदी के पश्चिमी भाग में स्थित विश्वविद्यालय की सशक्त उपस्थिति है गिरिजाघर के आसपास के क्षेत्र में! यहीं पर मशहूर महल व किला भी है. यहाँ स्थित गिरिजाघर की विशेष महत्ता है! १३ वीं शताब्दी का यह कैथेड्रल ११८.७ मीटर ऊँचा है एवं इसे स्कांडेनेविया के सबसे बड़े चर्च होने का गौरव प्राप्त है.
कैमरे के फ्रेम में इसे कैद कर पाना बेहद मुश्किल था, वैसे दूर से इसकी तस्वीर कहीं से भी से भी ली जा सकती थी! इतना ऊँचा है कि काफी दूर से दृश्यमान है. इस ऐतिहासिक महत्त्व के केंद्र में विश्वविद्यालय का अच्छा खासा वर्चस्व है! विश्वविद्यालय का विशाल बोटानिकल गार्डन तो हम देख ही चुके हैं!
इस ऐतिहासिक शहर का शाही महल (उप्साला स्लॉत) १६ वीं शताब्दी का है, इस पुरातन महल ने स्वीडन के प्रारंभिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, महल की दीवारों ने कई निर्णायक ऐतिहासिक क्षण देखे होंगे!
महल का निर्माण उस काल में हुआ था जब स्वीडन यूरोप की महाशक्ति बनने की राह में अग्रसर था. १५४९ में राजा गुस्ताव वासा ने महल का निर्माण कार्य शुरू किया था! १७०२ में आग के कारण क्षतिग्रस्त शाही महल बहुत समय तक अपनी दुरवस्था में पड़ा रहा. स्टॉकहोम पैलेस के निर्माण में इस महल के अवशेषों को खदान की तरह इस्तमाल किया जाना इस महल के पुनर्निर्माण में बाधा उत्पन्न करता रहा!
ये तो हुई इतिहास की बातें, अभी तो जो नज़रों ने देखा वह भव्य था, क्षति के सकल चिन्ह लुप्त थे कहीं इतिहास में ही!
वर्तमान में यह महल उप्साला काउंटी के गवर्नर का निवास है एवं एक भाग कला संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव डैग हैमरस्क्जोल्ड का बचपन इसी महल में बीता था जब उनके पिता ह्याल्मर हैमरस्क्जोंल्ड उप्साला काउंटी के गवर्नर थे!
महल का दृश्य हमने कैमरे में बोटानिकल गार्डन से भी कैद किया था और अब यहाँ से खड़े होकर हम गार्डन की तसवीरें निकाल रहे थे!
महल के एक ओर स्थित है प्रसिद्ध गुणिला क्लॉक! यह घड़ी बेल टावर के शीर्ष पर लटकी हुई उप्साला शहर एवं विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह बन कर विद्यमान है!
बेल टावर १५८८ में रानी गुणिला द्वारा वित्तपोषित किया गया था, शायद इसे शाही महल के चर्च हेतु बनाया गया था पर कालांतर में यह पूर्वी टावर पर बूम से लटकता हुआ समय के संकेत के रूप में क्लॉकवर्क की तरह इस्तमाल किया जाने लगा. १७०२ की भयानक आग में शहर के जलने के उपरान्त इसकी भूमिका शहर की सुरक्षा घड़ी की हो गयी और तब से यह प्रतिदिन दो बार क्रमशः सुबह और शाम के वक़्त बजता आ रहा है! शाम का घंटा इस बात का संकेत है कि सभी नागरिक अपने घर लौट जाएँ और विश्राम करें वहीँ सुरक्षाकर्मियों के लिए यह अपने काम पर तैनात हो जाने का संकेत है. सुबह के समय बजने वाला घंटा इस बात की ओर इंगित करता है कि रात बीत गयी है और नए दिन ने दस्तक दे दी है. यह घंटे की ध्वनि मानों अपने सुरक्षा कवच में रखे हुए है शहर को, सुबह होगी इस बात का आश्वासन भी है घंटा और रात की गोद में सुला देने की निश्चिंतता भी है घंटे की आवाज़!
कितना वृहद् अर्थ है न इस बात का, डूब रहे मनोबल को ये एक आश्वासन ही तो चाहिए होता है कि सुबह होगी… किसी दिन जो उजाला न भी हुआ तो ये घंटा उजाले का प्रतीक बनकर कोई उजाला सृजित ही कर दे, कौन जाने! विश्वास और श्रद्धा लम्बी दूरी तय करते हैं, बुद्धि की अपनी सीमा है… वह थक कर बैठ जाती है!
अब कुछ तथ्य: सुबह ६ बजे और रात ९ बजे घड़ी का घंटा करीब १५० बार बजता है, १९८० से इसे स्वचालित कर दिया गया है! स्वीडन के कई शहरों में ऐसी ही सुरक्षा घड़ी (वार्ड क्लॉक) का कांसेप्ट है!
इस क्लॉक में जैसे एक सम्मोहन था, तथ्य जानने के बाद आस विश्वास से जुड़ गया इसका अस्तित्व, सो यहाँ से हटना नहीं चाह रहा था मन. अभी लिख भी रहे हैं तो काफी समय अटके रहे यहीं पर! लेकिन अब आगे बढ़ना चाहिए, तो चलते हैं कला संग्रहालय की ओर!
हमने महल में प्रवेश किया शाही माहौल में सजे हुए कला संग्रहालय के अवलोकनार्थ! बहुत विशाल संग्रह है. हर एक कमरे में बहुत लम्बा समय व्यतीत करना संभव नहीं था, जितना देखा अच्छा लगा और शेष पढ़ जाने के लिए वहाँ उपलब्ध एक पुस्तिका ले ली! पुस्तिका में कला संग्रहालय को सम्पूर्णता में लिखा गया है! लौट कर पढ़ा तो जितना देखा था उसके विषय में एक अंतर्दृष्टि मिली और जो नहीं देख पाए थे उनके बारे में जाना और देख ही लेने का सा संतोष अनुभूत किया. यह भी जाना कि कुछ छूट जाना भी अच्छा ही होता है, न छूटता तो पढ़ने की जिज्ञासा नहीं बनती और यह पुस्तिका भी अन्य कई पुस्तिकाओं की तरह अनछुई ही रह जाती!
कुछ छूटता है तो कुछ पाते भी हैं हम, दृश्य छूटे तो दृश्य की पहचान मिली! यहाँ तो हमने सरलता से विश्लेषण कर लिया छूटने एवं पाने के सच को पर जीवन में इतना आसान क्यूँ नहीं होता यह करना? ये छूटना मन में यूँ आरोपित कर लेते हैं हम कि जो पाते हैं उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता!
आसमान से बातें करता कैथेड्रल अब हमारे न्यू टाउन के सफ़र का अंतिम पड़ाव था. शाम हो चुकी थी, दिवस अपने अवसान के करीब था. समय ने तेजी से भागना शुरू कर दिया था. स्कांडेनेविया के इस सबसे ऊँचे चर्च में प्रवेश करते हुए हम चमत्कृत थे!
भीतरी छत और दीवारें नवीन गोथिक कला का उत्कृष्ट उदहारण है, साज सज्जा में अनुपम है यह गिरिजाघर! कितनी ही तस्वीरें लीं, सबके विवरण कहाँ याद रहने वाले थे, पर मुख्य कोण एवं सन्दर्भ विस्मृत होने वाले भी नहीं थे सो याद रहे! उन्हें वैसे ही सहेज रहे हैं यहाँ…
मध्ययुग से सत्रहवीं शताब्दी तक यह गिरिजाघर कितने ही राज्याभिषेकों का गवाह रहा. उसके बाद १८७२ तक स्टॉकहोम कैथेड्रल अधिकारिक राज्याभिषेक चर्च रहा! १८७२ में समारोहपूर्वक ताज पहनने वाले अंतिम राजा थे ऑस्कर द्वितीय!
१७०२ की दुर्घटना में जल कर नष्ट हुए घंटे के स्थान पर आज लटक रहा है "थोर्नन", इस कैथेड्रल के उत्तरी टावर पर! थोर्नन नाम का यह घंटा स्वीडन का सबसे बड़ा घंटा है. इसे उत्तरी युद्ध के दौरान चार्ल्स बारहवीं के सैन्यबलों ने युद्ध लूट के रूप में पोलैंड से प्राप्त किया था.
कैथेड्रल के भीतर कई राजा एवं अन्य गणमान्य व्यक्तियों को दफनाया गया है. उनमें से कुछ चिन्हित किये जा सकते हैं.गुस्ताव वासाअपनी तीन पत्नियों के साथ यहीं दफनाये गए थे, जबकि विलेम बॉयद्वारा डिजाईन किये गए ताबूत में केवल दो ही चित्रित हैं!
गुस्ताव वासा के पुत्र जॉन तृतीय अपनी पत्नी के साथ यहीं विश्रामरत हैं. लीनियस को भी इसी चर्च में दफनाया गया है. प्रसिद्ध स्वीडिश बहुज्ञ ओलयस रुदबेककी भी कब्र यहीं है. वे लसिका प्रणाली के आविष्कारकों में से एक थे. उन्होंने अटलांटिका नाम की एक पुस्तक लिखी थी जिसमें स्वीडन को संसार की उत्पत्ति का केंद्र एवं उप्साला को खोया हुआ अटलांटिस दर्शाने का प्रयास था. आगे बढें तो १८ वीं सदी के वैज्ञानिक एवं रहस्यवादी एमानुएल स्वीडनबोरिकी कब्रगाह है, हालाँकि उन्हें मूलरूप से यहाँ नहीं दफनाया गया था बल्कि उनके अवशेष इंग्लैंड से उप्साला लाये गए थे.
गिरिजाघर में मृत्युपरांत नोबल शांति पुरष्कार पाने वाले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रह चुके डैग हैमरस्क्जोल्डका एक छोटा सा स्मारक भी है, पत्थर पर कुछ यूँ लिखा हुआ है शिलालेख :
Icke jag
utan Gud i mig
Dag Hammarskjöld 1905 – 1961
इसका अनुवाद है: : "मैं नहीं, लेकिन मुझमें है भगवान"
इस शिलालेख को पढ़कर कुछ समय तक स्तब्ध खड़े रहे, कितने गहरे अर्थ हैं इस पंक्ति के…! हम सभी इंसान हैं भगवान नहीं, मगर हममें ही कहीं भगवान है! अलग से शायद कोई अस्तित्व ही नहीं उसका, उसने स्वयं को हमारे भीतर ही प्राण प्रतिष्ठित किया हुआ है तो बाहर उसकी तलाश ही व्यर्थ हुई न. हम उसे बाहर ढूंढते हैं तो कहाँ से मिलेगा वह हमें, कहाँ से उत्तर देगा हमारे प्रश्नों के! अंततः हर प्रश्न का उत्तर तो हमें ही बनना है… प्रश्न बनकर हम गुज़ार देते हैं जीवन जबकि हममें कितनी ही जटिलताओं का उत्तर बनने का सामर्थ्य है! जीवन पहेली है तो पहेली को सुलझाने का दायित्व हमारा ही तो है, जिसने बनाया जीवन वह जब भीतर ही कहीं स्थित है तो क्यूँ न उसे जानकर… उसका ध्यान धर… हम मशाल बनें हर अन्धकार के लिए!
शिलालेख ने स्तब्ध किया था तो इस महिला को देख कर भी हम कम स्तब्ध नहीं हुए थे. यह जीती जागती औरत नहीं है, यह एक मूर्ती है जो ध्यान से ऊपर देख रही है! हम बिलकुल भ्रमित हो गए थे, इसे सच मान लिया था, दोबारे पलट कर इसे छुआ फिर आश्वस्त हुए!
लग रही है न यह आकृति एकदम प्राणवान! शिल्पकार ने हृदय से आकार दिया होगा इसकी भाव भंगिमाओं को, तभी तो इस कदर जीवंत हो उठी है!
चर्च से निकल कर अब हम सेंट्रल स्टेशन पर थे. टाउन स्क्वायर में कुछ तस्वीरें लीं और बस तक पहुँचते हुए करीब नौ बज चुके थे, नौ बजे की बस पकड़ कर वापसी का सफ़र शुरू हुआ और मध्यरात्रि के आसपास हम अपने घर में थे. एक दिन की उप्साला यात्रा तो उसी दिन २० मई २०१२ को पूरी हो गयी थी पर शायद हम सफ़र में ही थे अबतक! आज लिखने के बाद लग रहा है कि अब पूरी हुई है यात्रा.
सच! कुछ यात्राएं अपने ख़त्म होने के बाद ही शुरू होती हैं… या शायद गोलार्ध में चलती ही रहती हैं हमेशा… किसी परिक्रमा की तरह!