पुरानी डायरी से एक और पन्ना... जाने किन मनःस्थितियों में कभी लिखी गयीं होंगी ये बातें किसी कागज़ के टुकड़े पर, फिर उतारी गयीं होंगी किसी शाम डायरी के पन्नों पर... आज यहाँ भी लिख जाए कि मन का मौसम फिर फिर वही होता है... जो कभी बहुत पहले कई बार जिया जा चुका है...
हम रूंधे हुए गले से
कह रहे हों...
और तुम्हारी आँखों से
अविरल आंसू बह रहे हों...
इससे आदर्श
कोई स्थिति हो,
तो बताओ...
स्मृति कुंजों से,
हो तो,
कोई ऐसी छवि ढूंढ लाओ!
धारा के समान
बह रहे हों...
शब्द तरंगों को
तह रहे हों,
इस तरह
पर्वत के चरणों पर
लहराओ...
सतह से परे
जरा गहराई तक
हो आओ!
प्रभु
हृदय में
सप्रेम साकार
रह रहे हों...
मन वीणा से
हम
नाम उन्हीं का
कह रहे हों,
इस तरह का
कोई स्वप्न तो सजाओ...
क्षितिज की सुषमा को
अपने आँगन में बुलाओ!
कब हमारी रचनाशीलता का प्रभाव
इतना सबल होगा...?
कब कविता के आँगन में
तेरी हर विपदा का हल होगा...?
यही सोच कर लिखते हैं!
जो हैं... हम वैसे ही दीखते हैं!
***
बिछड़े हुए किसी बेहद अपने मित्र सी मिल जाए जो पन्नों में कविता, तो एक बार उसे पढ़ना और फिर पुनः लिख जाना- ये तो होना ही चाहिए...कि पढ़ना है अपना ही मन हमें बार बार, अपने शब्दों में जो है किसी की प्रेरणा साकार, उसे जीना है पुनः पुनः ... ... ... !!
शीर्षक तो कुछ लिखते नहीं थे पहले, अभी कुछ सूझ भी नहीं रहा तो रहने दिया जाए इन बिखरे कच्चे भावों को अनाम... शीर्षकविहीन... कि "शीर्षकविहीन"भी तो एक शीर्षक ही है न!
शीर्षक तो कुछ लिखते नहीं थे पहले, अभी कुछ सूझ भी नहीं रहा तो रहने दिया जाए इन बिखरे कच्चे भावों को अनाम... शीर्षकविहीन... कि