पिछले वर्ष घर गए तो एक बचपन की डायरी साथ ले आये... इतने दिनों से पलटा नहीं यहाँ ला कर भी. अभी उसके फटे हुए पन्नों को पलटते हुए कितने ही वो पन्ने याद हो आये जो बस किसी को यूँ ही दे दिए... कि उन पन्नों पर लिखी कविता उसे पसंद थी...!!! उन कविताओं की कुछ एक पंक्तियाँ याद हो आती हैं, पर इस तरह नहीं कि उन्हें उनकी समग्रता में पुनः लिखा जा सके...आज इसी डायरी से एक कविता यहाँ लिख लेते हैं कि पन्ने सब अलग अलग हैं, खो जाने की सम्भावना प्रचुर है...
जिंदगी भी तो ऐसी ही है न... हमेशा कुछ न कुछ खो देने के डर से त्रस्त और ये खो देने का सिलसिला ज़िन्दगी के खो जाने तक चलते ही तो रहना है अनवरत...खैर, अब कुछ डायरी की बातें... उन दिनों की बातें जब कुछ कुछ कविता जैसी हो होती थी ज़िन्दगी... दोस्तों के साथ खुशियाँ गम और बचपन की छोटी छोटी चिंताएं बाँट लेने के दिन... पंछियों की तरह मुक्त उड़ने के दिन... जीने के दिन... स्कूल की किताबों में उलझे रहने के दिन... खेलने के दिन... हंसने के दिन... खिलखिलाने के दिन और यूँ ही कविताओं के साथ खेलने के दिन!उन्ही दिनों की लिखी एक कविता... किसी चुटके पूर्जे से इस डायरी में पुनः उतारी गयी २००१ में कभी... काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय में बैठ कर... अपनी पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हुए थकती थी... तो कोई पुराना चुटका पूर्जा निकालती थी अपने झोले से... जिसमें कभी की लिखी कवितायेँ होती थी... उन्हें लिख जाती थी डायरी में और फिर लाईब्रेरी से लौटते वक्त उन चुटकों के छोटे छोटे टुकड़े कर हवाओं में उड़ा देती थी, मिटटी में रोप आती थी... वो कागज़ के टुकड़े अबतक कहाँ बचते मेरे पास, अच्छा हुआ कि उन्हें डायरी में लिख लिया... आज डायरी भी अपने कई पन्नो को खो चुकी है... जर्जर अवस्था में है... तो लगता है वहाँ जो बची हैं कवितायेँ... जो सुखी पंखुडियां अब भी हैं पन्नों के बीच, उन्हें अनुशील पर लिख लिया जाए कि अब तो यही है मेरी डायरी... मेरी यात्रा के विम्बों को सहेजने वाला मेरा पन्ना...!उस वक़्त की कविता है... तो शीर्षक विहीन है... जो है जैसी है लिख जाए और रह जाए यहाँ किसी पड़ाव की पहचान बन कर...!!!
जिंदगी भी तो ऐसी ही है न... हमेशा कुछ न कुछ खो देने के डर से त्रस्त और ये खो देने का सिलसिला ज़िन्दगी के खो जाने तक चलते ही तो रहना है अनवरत...