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Channel: अनुशील
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सुन रही हो न, ज़िन्दगी!

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यादों के पथ पर चलते हुएबहुत कुछ समेटा था मन में, उन्हें लिख जाने की इच्छा तो थी पर लिख पाना इतने समय तक संभव न हो सका. अब जैसे कलम को कोई जल्दी है, वह मन से अपने तार जोड़ कर अपना काम करने में व्यस्त है, उसे इससे कोई मतलब नहीं कि अभी मेरी परीक्षा नजदीक है और जो लिखा पढ़ा जाना चाहिए वह हो केवल "सीखने के सिद्धांत और परिपेक्ष्य" (Teorier om Lärande). बेहद दिलचस्प है यह छोटा सा मनोविज्ञान से सम्बंधित कोर्स भी, पर इसके बारे में फिर कभी! अभी तो मन ने जो तार जोड़ लिए हैं कलम से तो लिख ही जायेगी यादों के आरामगाह की दास्तान…
नोर्रा बेग्राव्निंगप्लात्सेन (उत्तरी कब्रिस्तान) स्वीडन के सबसे बड़े कब्रिस्तानों में से एक है. यह स्टॉकहोम नगरपालिका द्वारा प्रबंधित है व सोलना नगरपालिका में स्थित साठ एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है. वर्ष १८१५ में स्टॉकहोम वासियों के लिए सार्वजनिक कब्रिस्तान का भूक्षेत्र आवंटित किया गया जिसे  बिशप योहान ओलोफ वैलिन द्वारा ९ जून १८२७ को खोला गया. जिनके द्वारा उद्घाटन हुआ, कालांतर में वह बिशप भी यहीं विश्रामरत हुए! आखिर एक दिन तो सबको छोड़ कर जाना ही है यह जग, अतिथि ही तो हैं हम इस संसार में, आतिथ्य पूरा हुआ नहीं कि यह संसार विदा कर देगा हमें, पथिक के हाथ में कुछ नहीं, बस सामान बाँधने की सहूलियत दे दे ज़िन्दगी यही बहुत है, जाते हुए शांति हो चेहरे पर… कठिन कितना भी हो, अलविदा कह दिया हो कायदे से अपने अपनों को फिर उड़े प्राण पखेरू! सुन रही हो न ज़िन्दगी… कहो तो इतना तो करोगी न? पूछ रहे हैं बड़े स्नेह से, ये जानते हुए भी कि अक्सर ऐसा नहीं ही करती हो तुम, यूँ ही उड़ जाना बिना किसी पूर्व नोटिस के… यही है पंछी की फितरत, यही है जीवन का सच!
ओह! फिर भावुक हो कर तथ्यों से भटक गये हम. हाँ, तो अब बात करते हैं ऊपर लगी तस्वीर में दिख रही कलाकृति की और ऐसी ही कई अन्य कलाकृतियों की जिनसे आबाद है यह आरामगाह! कई वास्तुकारों ने मिलकर इस कब्रिस्तान को डिजाईन किया है, कुछ नाम यूँ हैं: गुस्ताफ लिंड्ग्रेन, गुन्नार अस्प्लुन्द, सिगुर्द लेवेरेंत्ज़ और लार्स इसराइल वह्लमन. साथ मिलकर सभी वास्तुकारों ने इस कब्रगाह को अत्यंत प्रभावशाली एवं व्यापक सुविधाओं से लैस देश के महत्वपूर्ण कब्रगाह के रूप में विकसित किया. यहाँ कई मूर्तियाँ, नक्काशियां एवं अन्य अनन्य कलात्मक अलंकरण देखे जा सकते हैं, जिन्हें स्वीडन के प्रमुख शिल्पकारों ने बड़ी श्रद्धा से बनाया है. कार्ल एल्धऔर कार्ल मिल्ल्सप्रमुख शिल्पकारों में से थे.
वृहद् क्षेत्र में फैला कब्रिस्तान अपने आप में एक शहर है, कई गलियों मुहल्लों वाला एक छोटा शहर. नए क्षेत्र और पुराने क्षेत्र आसानी से अलग दिख जाते हैं, काल के बदलते चक्र में स्थान का चरित्र भी तो बदलता है… जैसा एक सदी पूर्व था, उससे बहुत भिन्न है नवीन सन्दर्भ तो वैसा ही अंतर विश्रामगाह में भी दिख पड़ता है. कब्रिस्तान में  एक यहूदी और एक कैथोलिक कब्रिस्तान भी है.
कहीं न कहीं समानता होते हुए भी हम अलग तो होते ही हैं देश धर्म के आधार पर तो मौत क्यूँ न दे हमें वो सहूलियत… हमें हमारी पहचान के साथ जीने की और मरने की सहूलियत! कितना व्यवस्थित है यह शहर, सभी अपने अपने कुटुम्बियों के साथ अपने अपने क्षेत्र में विश्रामरत हैं!
सबकी कब्र पर फूल खिले हैं, फूल नहीं तो दूब और हरी घास ने पूरा ख्याल रखा है फूल की कमी को पूरा करने का. ऐसा लग रहा है कि संतुष्ट हैं सभी, सभी बेचैनियों को विराम मिल गया है. एक निर्दोष बच्चे की तरह सो जाने के अप्रतिम सुख का आनंद ले रही हैं अनंत रूहें और काल अपनी गति से बढ़े चला जा रहा है… 
इस गति से उन्हें कोई लेना देना नहीं, वो समयातीत हो चुके हैं, उनकी साँसों ने अलविदा कह दिया है उन्हें उनकी कब्र पर लिखी अंतिम तारीख को… इस गति से हमें सरोकार है इसलिए इसका महत्त्व हमें समय रहते समझना ही होगा, अपने अपने अंतिम तारीखों तक के सफ़र में ये हम ही होंगे जिन्हें अपनी दिशा तय करनी होगी, हमें स्वयं अपना दीपक बनना होगा अन्यथा ज़िन्दगी अपनी गति से चल कर कब भस्म हो जायेगी हमें पता ही कहाँ चलने वाला है!
हम न रहेंगे तब रह जायेंगे अक्षर ही. इन अक्षरों को सँवारने का विवेक दो और जिन कर्मों से अक्षर संवरते हैं उन कर्मों की ओर हमें ले चलो… इतना तो करोगी न, तुम पर लिखी हमारी किसी कविता ने अगर ज़रा सा भी तुम्हें छुआ है तो इतना ज़रूर करना! अपनी हो तुम, तुमसे नहीं तो किससे होगी हमें ऐसे दिव्य श्रेय की अपेक्षा… सुन रही हो न ज़िन्दगी? 
तथ्य लिखते हुए भावों में बह जाती है लेखनी, क्यूँ छोड़े वह ये अवसर… साथ होती है पर ज़िन्दगी से बात करने का अवसर रोज़ कहाँ मिलता है. कैसी अजीब सी बात है न, ज़िन्दगी पूरी सिद्दत के साथ बात करती भी है तो मृत्यु की नीरवता में, यही वो समय होता है जब हम अपने करीब होते हैं, अपने अपनों के करीब होते हैं, शोक में कोई विभेद नहीं होता, सब साथ रोते हैं, सब साथ होते हैं! एक बात कहें ज़िन्दगी? चलो मृत्यु की नीरवता से ये सबको साथ कर देने का ज़रा सा हुनर तुम भी सीख लो, साथ हंसने रोने की जो अकथ कहानी है वह थोड़ा सा तुम भी आत्मसात कर लो, इससे क्या होगा कि हम दुराव-छिपाव से दूर पारदर्शी होंगे, हमारी संवेदनाओं का रथ बिन पहियों का नहीं रह जायेगा. सुन रही हो न ज़िन्दगी, कुछ सीख भी लो अब…! हरी घास की चादर पर लेटे हुए गगन से बात करना तो तुम्हीं ने सीखाया है, तुम अभी हमें और भी कई बातें सीखाने वाली हो… न? हम आशा भरी नज़रों से तुम्हें देख रहे हैं! सुन रही हो न ज़िन्दगी?
ज़िन्दगी को एड्रेस करते हुए सारी बातें स्वयं को ही समझाई जा रही हैं, कलम ये खूब समझती है और स्याही भी खूब पहचानती है हमें, वो हर लिखने वाले को पहचानती है… वो जानती है कि हर लेखन वस्तुतः अपनी बेचैनियों से त्राण पाने के लिए ही होता है, ये और बात है कि अस्तित्व में आने के बाद वो कई और लोगों का भी संबल बन जाए, कोई और भी उनमें अपने मन की बेचैनी देख ले… ऐसा हुआ तो इसका सारा श्रेय शब्दों को जाता है, लिखने वाला केवल माध्यम ही तो है…!
***
अभी भी बहुत सी बातें शेष हैं, कई तसवीरें शेष हैं, फिर लौटते हैं कलम से मौन और मन को जोड़ इधर… कि अभी कुछ ज़िन्दगी भी तो शेष है…!


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