नीरव शान्ति है… ये कहाँ हैं हम. दो तारीखें अंकित है हर एक ठौर, एक तारीख है जन्म की और दूसरी तारीख है मृत्यु की... बीच में एक छोटा सी लाईन सी खिंची है… हाँ! हाईफन कहते हैं न इसे. ये दो तारीखों के बीच के अंतराल को इंगित करता है न, दो तारीखों को जोड़ता है न शायद…. पहली तारीख जन्म की दूसरी इस जग से प्रस्थान की और बीच में खिंची लाईन जीवन का ही तो प्रतिनिधित्व करती है न. हर एक कब्र पर दो तारीखों के बीच सिमटे जीवन को पढ़ रहे थे हम. इतनी सी ही तो कहानी है, पहले भी अप्रकट बाद में भी अप्रकट बस बीच में थोड़ा सा प्राकट्य और वही प्राकट्य जीवन की सम्भावना ढूंढती यात्रा या फिर स्वयं जीवन... कौन जाने!एक दिन गए थे वहाँ जहां जीवन विश्रामरत है, चिरनिद्रा में लीन है वातावरण और जाग रहे हैं धरती अम्बर. सूरज का प्रकाश वैसे ही आता है जैसे वह साँस ले रहे जीवन को स्पंदित करने आता, धरती वैसे ही हरी घास की चादर ओढ़े है जैसी वह जीवन से भरी किसी शाम को ओढ़ इठला रही होती…हम बहुत समय से लिखना चाह रहे हैं इस नीरवता को, उस धुन को जो बज उठी थी भीतर, उन पेड़ों की छाँव को भी जिनसे रौनक है वहाँ और खिली धुप को भी लिख जाना है… जो मैंने खिली देखी है वहाँ!कविताओं के अनुवाद के विषय में लिखते हुए उस शाम के बारे में लिख जाने का जिक्र भी किया था, वहाँ की एक तस्वीर भी चिपकाई थीउस पोस्टमें फिर इतने दिन बीत गये… तीन दिनों से दो एक पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं और यहाँ भी कलम अटक ही रही है… मन नहीं सौंप पा रहा कलम को वे भाव जो लिख जाने को गति देते हैं, मानों रोक दे रहा हो यह कहकर कि रुको अभी, अभी तुम्हारे कलम में वो बात नहीं कि उस नीरवता और उस दिव्यता को लिख सके जो महसूस की है तुमने और जिसे महसूस करने के लिए पुनः उद्विग्न हो तुम!***तसवीरें देख रहे थे… इस तस्वीर पर अटक कर रह गये… गलती से की गयी यह क्लीक जाने कैसे कितना कुछ अदेखा अबोला समेटे हुए है गलती से ही! कभी कभी यूँ ही बिना हमारे किसी प्रयास के ऐसा कुछ घटित हो जाता है जो कितना कुछ कह जाता है, जीवन को कुछ और समृद्ध कर जाता है…! चाँद सितारे सूरज जिनके संगी साथी हों, भला क्या अभाव हो उस धरा को, अगर हुआ भी तो ऐसा सान्निध्य सारी पीर हर लेगा. इस छवि में ऐसा लगता है जैसे किरणों संग सूरज भी उतरने को बेताब हो धरती पर फिर जैसे अचानक सूरज को यह एहसास हुआ, कि उसका ताप धरती को भस्म कर देगा, कि एक दूरी ज़रूरी है. धरा से उसका एक निश्चित दूरी पर होना ही तो धरा का जीवन है; इतना एहसास होना था कि सूरज ने उसी क्षण मानों चाँद का रूप धर लिया…! सूरज से रोशनी उधार लेकर चमकने वाले चाँद ने जैसे धरती पर अपनी शीतलता बिखेर कर अबतक के सूरज द्वारा किये गए सारे एहसानों का मोल चुका दिया हो. जाने आँखें क्या देखती हैं, मन क्या सोचता है, सभी बातों में तुक हो ज़रूरी तो नहीं, न इस तस्वीर का ही कोई तुक है न इस तस्वीर के विषय में मेरी बातों का ही पर हमें तुक से क्या लेना देना! ज़िन्दगी भी तो कई बार बेतुकी ही लगती है… अकथ अबूझ पहेली सी…!उस दिन यादों के पथ पर चलते हुए याद शहर की गरिमा से मन भरा भरा सा हो गया, अब भी भरा है, आँखें नम हो जाती हैं यूँ ही कई बार. याद शहर की कोई बात, यादों के आकाश का कोई तारा झिलमिला जाता है और मन आद्र हो जाता है, आँखें ऐसे में कैसे न हो नम.
आज बस यूँ ही तस्वीरें और कुछ भाव की लकीरें, इस जगह के विषय में तथ्यगत बातें फिर कभी! अभी तो बस यूँ ही टहल लिया मन ही मन बाहर से ही, फिर प्रवेश करते हैं इस द्वार से तो लिखते हैं याद शहर की कोई कहानी अगली बार!ये एक और जगह थी, सीढ़ियों से होते हुए पहुंचे थे यहाँ, यादों का बाग़ है यह… अपने स्वजनों को हमेशा के लिए विदा करने के बाद यहाँ उनकी याद को जीते हैं लोग. फूल खिले हुए हैं मानों कह रहे हों मौत भी जीवन का ही शंखनाद है, कि कोई कहीं नहीं जाता… हम यहीं के हैं यहीं रहते हैं हमेशा कभी शरीर में तो कभी आत्मा के रूप में याद के अम्बर पर!
बीच बाग में ये आकृतियाँ थीं, स्वीडिश सन्दर्भ चाहे जो हो, हमें तो कान्हा ही नज़र आ रहे हैं बांसुरी बजाते हुए एक ओर… इस चित्र में शायद स्पष्ट नहीं है पर कान्हा के अलावा बांसुरी और कौन बजा सकता है, जीवन और मौत की संधि बेला का एहसास कराते इस माहौल ने हमें तो गीता के श्लोकों के बाग तक अनायास ही पहुंचा दिया… मन में गूँज रहे थे श्लोक और वहीँ कृष्ण बांसुरी बजा रहे थे… वासांसी जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाती नरोपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यनयानी संयाति नवानि देही।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ श्लोक २२)
उनकी लीला वे ही जाने…!हमें इस पराये देश में भी अपनेपन की सुगंध बन कर मिल जाते हैं भगवान! उनकी कृपा है… सांस ले रहे हैं हम, उनकी इतनी कृपा हो कि ये सांसें इस लय में चले कि उनके बन्दों के काम आ सकें, किसी के लिए जीवन रहते हम छाँव बन सकें, और क्या चाहिए!
ॐ शरणागति शरणागति शरणागति!
आज बस यूँ ही तस्वीरें और कुछ भाव की लकीरें, इस जगह के विषय में तथ्यगत बातें फिर कभी! अभी तो बस यूँ ही टहल लिया मन ही मन बाहर से ही, फिर प्रवेश करते हैं इस द्वार से तो लिखते हैं याद शहर की कोई कहानी अगली बार!
बीच बाग में ये आकृतियाँ थीं, स्वीडिश सन्दर्भ चाहे जो हो, हमें तो कान्हा ही नज़र आ रहे हैं बांसुरी बजाते हुए एक ओर…
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यनयानी संयाति नवानि देही।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ श्लोक २२)
ॐ शरणागति शरणागति शरणागति!