बहुत देर से आसमान पर नज़रें टिकाये बैठे थे, चीज़ें जैसी हैं वैसी क्यूँ हैं, क्यूँ यूँ ही बस उठ कर कोई चल देता है जीवन के बीच से, समय से पहले क्यूँ बुझ जाती है बाती? इतनी सारी उलझनें है, इतने सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, मन इतना व्यथित और अव्यवस्थित है कि कुछ भी कह पाना संभव नहीं! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि नियति से कोई चूक हो गयी हो और इस बात का एहसास होते ही वह भूल सुधार करेगी और जो उसने छीना है जगत से, बिना क्षण खोये उसे लौटा देगी… वह फिर रच सकेगा, फिर हंस सकेगा फिर लिख सकेगा और अपनी कही बात दोहराते हुए हमें आश्वस्त करते हुए कह सकेगा : : "विदा....... शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है", मैं कैसे विदा हो जाऊं, लो आ गया वापस….!
उन्होंने कहा भी तो था: : "…बोल ही तो नहीं पाता मैं पर कह दूँगा इस बारमुझे जाना ही नहीं है यह पृथ्वी छोड़ कर..."फिर क्यूँ चले गए यूँ अचानक?
व्यथित मन उलझा हुआ था, आसमान पर बादल थे, मेरी आखें वहीँ थीं दूर तकती सूने अम्बर को, कि आसमान मानों कह उठा- गलत हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए था वक़्त के होठों पर एक प्रेमगीतसजाने वाले को यूँ नहीं जाना था!
व्यथित मन उलझा हुआ था, आसमान पर बादल थे, मेरी आखें वहीँ थीं दूर तकती सूने अम्बर को, कि आसमान मानों कह उठा- गलत हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए था वक़्त के होठों पर एक प्रेमगीतसजाने वाले को यूँ नहीं जाना था!
एक गलत का निसान है न वहाँ अम्बर पर और वहीँ एक पंछी उड़ा जा रहा है! ***आज उनकी यहकविता पढ़ते हुए आँखें नम हैं, मेरी खिड़की से नज़र आ रहा आकाश उदास और परेशान है.… जहां भी हैं क्या आज भी वे देख रहे हैं आकाश की ओर जैसा उन्होंने अपनी कविता में कहा है : :"मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,जब चाहता हूँ मैं होना उदास,सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,घास पर उल्टा लेट,मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,मिलाता हूँ आज के आकाश को ,छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से . "***कितने समय से यदा कदा उनके वाल पर जाते थे, इसी २६ अगस्त की बात है उनका फ्रेंड रिक्वेस्ट आया फ़ेसबुक पर, मैंने उसी क्षण एक्सेप्ट किया… फिर उनका मेसेज: :Deepak Aroraमैत्री के स्वीकार पर आभार लिखते कुछ अटपटा सा लगता है . मेरे ख्याल से आप एक छोटे शुक्रिये से काम चला लेंगी .शुक्रिया 8/26, 7:29pmAnupama PathakPranaam!It's all my pleasure, Sir!Friend request bhejne ke liye Shukriya:)8/26, 7:29pmDeepak Arora:)इतना सा परिचय था बस! भले जुड़ना महज़ कुछ दिनों पहले हुआ पर उन्हें पढ़ा तो हमने निरंतर ही. फेसबुक पर भी, प्रथम पुरुषपर भी. जिस दिन उनका ब्लॉग अस्तित्व में आया था ८ अप्रैल २०१२, उस दिन से उनकी कविताओं से परिचय है. अभी कल ही की तो बात है उनकी वाल से उनकी कविता शेयर की थी:"कवि एक अजन्मे बच्चे की मौत पर रोता ,अकेला खड़ा एक थका आदमी है ."कितना सच कह गए वे: "आदम को सिरज लेने के बाद उस के कंधे पर हाथ रखते ईश्वर ने कहा," देखो! जंकयार्ड में दुःख के छोटे छोटे टुकड़े पड़े हैं. जाओ अपना दुःख चुनो कि बिना दुख के यहाँ से कोई नहीं जाता."आदमी मुस्कुराया .....................और अपनी समझ से उसने सबसे छोटा चुना .यह स्मृति थी ."...................दीपक अरोड़ा***क्या क्या लिखें, उनकी कितनी बातें कोट करें, कितनी कविताओं को याद करें…प्रथम पुरुष की पहली पोस्टमें कविता कहती है… "सच कहूं ,तोआप इमानदार नहीं हैं ,अपनी नींद के साथ भी ,और जीना चाहते हैं ,विंडचाइम और कालबेल ,की घंटियों के बीच ही कहीं ,अपने बचे हुए समय को ,गहरी काली रातों में ,सायं-सायं करती तेज़ हवा चलती है ,और हवा से हिलती ,विंडचाइम की पाइपें,एक दुसरे से टकराती हैं ,सर्द रातों में भी आप ,दरवाज़ा खोल कर देखते हैं ,जहाँ किसी ने ,अब होना ही नहीं है |"-दीपक अरोड़ा
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आज उनकी यहकविता पढ़ते हुए आँखें नम हैं, मेरी खिड़की से नज़र आ रहा आकाश उदास और परेशान है.… जहां भी हैं क्या आज भी वे देख रहे हैं आकाश की ओर जैसा उन्होंने अपनी कविता में कहा है : :
"मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से . "