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Channel: अनुशील
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दूरी

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मुझ तक नहीं आती है
कभी कोई ढाढ़स की आवाज़ 
अपना ढाढ़स होने को मुझे ही औरों का ढाढ़स होना पड़ता है


जिस जिस तक मैं पहुँची
वो सब मेरे खुद तक पहुँचने के ही उपक्रम थे


मेरा आसमान 
इतना भींगा था कि सूखे का भ्रम होता था 
पलकों में मीठी नींदों का सपना सोता था


और मैं जागती रह जाती थी


कि चैन की नींद सो पाऊँ 
ऐसा होने में आकाश भर आशंकाएं तैरती थीं 


मेरी खुद से अभी आकाश भर की दूरी थी।


-अनुपमा

"लौ दीये की"में संकलित

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पुस्तक का लिंक

https://shwetwarna.com/shop/books/lau-diye-ki-anupama/

8447540078 श्वेतवर्णा प्रकाशन के इस नंबर पर संपर्क करके भी पुस्तक मंगायी जा सकती है।





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