$ 0 0 येअनिश्चित-सेकाश और शायद सरीखे शब्दों की ही महिमा हैकि हम चलते चले जाते हैंउन मोड़ों से भी आगेजहाँ से आगे की कोई राह नहीं दिखती ये शब्द सम्भावनाओं का वो आकाश हैंजो घिरे हुए बादलों के बीच भीचमक उठते हैंअपनी रौ में!एक आशा हैजो जिलाए रखती हैअंधकार के घोर प्रपात में हम दामन मेंएक मुस्कान बचाए रखते हैंतब भी जब कुछ भी नहीं होता अपने हाथ में मन की चंचलता उठते-गिरतेअपने लियेमन-भर आकाश गढ़ लेती हैजिसमें नए सिरे सेसूरज चाँद टाँकसमय की गति के गूढ़ार्थ पढ़ लेती है!