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Channel: अनुशील
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प्रतिबद्धता

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इंतज़ार बुनते हुए
आहटों का मंत्रोच्चार सुनते हुए
 

लौ विकल थी 


कि
अँधेरे का दिखता नहीं था कोई छोर 


वो बुझने ही वाली थी
कि इतने में खिली भोर! 


भोर का आना
लौ के लिए आश्वस्ति थी 


कि
अब बुझ सकती थी वह इत्मीनान से
मन पर बिना कोई बोझ लिए 


कि
वह राहगीरों का एकमात्र संबल थी
अँधेरे से होकर गुजरते क़दमों का आत्मबल थी 


लौ को एहसास था
अपने नन्हे से वजूद के महत्त्व का 


सो 

अपनी शक्ति भर 

हवा से लड़ती रही


रात भर जलती रही.


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