$ 0 0 इंतज़ार बुनते हुएआहटों का मंत्रोच्चार सुनते हुए लौ विकल थी किअँधेरे का दिखता नहीं था कोई छोर वो बुझने ही वाली थीकि इतने में खिली भोर! भोर का आनालौ के लिए आश्वस्ति थी किअब बुझ सकती थी वह इत्मीनान सेमन पर बिना कोई बोझ लिए किवह राहगीरों का एकमात्र संबल थीअँधेरे से होकर गुजरते क़दमों का आत्मबल थी लौ को एहसास थाअपने नन्हे से वजूद के महत्त्व का सो अपनी शक्ति भर हवा से लड़ती रहीरात भर जलती रही.