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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ८० :: सत्यनारायण पाण्डेय

ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति!
अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रामोक्षसन्यासयोगोनामष्टादशोऽध्ये प्रचलति!


प्रिय बन्धुगण!
कल के विवेचन में हमलोगों नें गीताज्ञान की महिमा, कौन कौन इस ज्ञान के अधिकारी हैं, किन्हें यह ज्ञान दिया जाना चाहिए और किन्हें नहीं, भक्तों के बीच इस गीताशास्र का प्रचार करने वाला भगवान् का सबसे प्रिय होगा, इत्यादि के विषय में विस्तारपूर्वक जाना; किन्तु सभी मनुष्य इस गीता प्रचार सम्बन्धी कार्य करने की योग्यता नहीं रखते, गीता ज्ञान की सम्यक उपासना एवं तदनुसार आचरण करने वाले विरले ही होते हैं! अतः गीता के स्वाध्याय एवं अध्ययन की महिमा तथा जो स्वयं पढ़ नही सकते उनके द्वारा श्रवण करने की भी महिमा बतलाते हुए भगवान् अर्जुन से कहते हैं--


अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌॥


अर्थात्, जो पुरुष हम दोनों के इस धर्ममय संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा. जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा.


इस प्रकार गीताशास्त्र के कथन, पठन, श्रवण का माहात्म्य बता कर अब अर्जुन से ही अब तक की उसकी मनःस्थिति जानने के लिए (सर्वान्तर्यामी होते हुए भी) पूछते हैं कि, हे पार्थ! क्या तुमने मेरे द्वारा कहे गए गीताशास्त्र को एकाग्रचित्त हो श्रवण किया है? हे धनंजय! क्या तेरा वह अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया है?


कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय॥


अर्जुन भी एक योग्य एवं परम आज्ञाकारी समर्पित शिष्य की तरह भगवान् के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपनी मनःस्थिति का वर्णन करता हुआ कहता है: हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर ही आपके सामने स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा.


नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥


यहां एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि भगवान् कृष्ण स्वयं नारायण, परमपुरूष, परमात्मा हैं, अर्जुन नर (मनुष्य) दिव्य जीवात्मा का प्रतीक है. शास्त्र भी प्रमाणित करते हैं-- लोक शिक्षण के लिए नर और नारायण की लीला चलती ही रहती है!


दूसरी बात यह कि यह जीवात्मा भी परमात्मा का अंश होने के कारण वैसा ही दिव्य होता है, पर सांसारिक परिवेश में लोभ, मोहादि षड् विकारों के कारण अपने स्वरूप भूल जाता है; भाग्य से कोई योग्य गुरू मिल जाता है और उसे उसके स्वरूप की पहचान करा देता है, "जीव ब्रह्म एव नापरः"की स्मृति दिला देता है, तो सांसारिक मोह का तिरोहित होना स्वाभाविक हो जाता है! तभी तो भगवान् कृष्ण के उपदेश एवं पूछे गये प्रश्न के उत्तर में अर्जुन कहता है "नष्टो मोहः"मेरा मोह नष्ट हो गया; "स्मृतिर्लब्धा"अर्थात् स्मृति प्राप्त हो गयी. भूली हुई चीज की ही तो कोई याद करा देता है और समस्या सुलझ जाती है, जीवात्मा और परमात्मा के बीच के अज्ञान रूपी परदे को हटाना ही तो श्रीमद्भागवत पुराण का जीवात्मा रूप गोपियों के परमात्मारूप कृष्ण द्वारा चीरहरण का प्रसंग भी तो यही संकेत करता है! स्वरूप की स्मृति करा देना सद्गुरू का ही कार्य है, जो कृष्ण ऐसे सद्गुरू का सान्निध्य अर्जुन को मिला और समर्पित शिष्य की तरह उसने स्वीकार भी किया कि यह सब प्रभु कृपा से ही सम्भव हुआ-- "त्वत्प्रसादात्"अर्थात् आपकी कृपा से ही यह सम्भव हुआ! हम सब को भी गुरू-शिष्य का यह स्वरूप ध्यान में रखना चाहिए.


जैसा कि हम जानते हैं, गीता के आरम्भ प्रथम अध्याय से ही अन्तः सलिला की तरह दो और प्रमुख द्रष्टा और श्रोता-- संजय और धृतराष्ट्र जुड़े हैं; प्रसंग विदित ही है.


अतः प्रथम अध्याय में धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार--"धर्म क्षेत्रे..."के अनुसार युद्धक्षेत्र में भगवान कृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके उपसंहार करते हुए संजय अगले तीन श्लोकों में धृतराष्ट्र को गीता की महिमा का बखान करते हुए अपनी स्थिति भी बतलाते हैं--


इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌॥

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥

अर्थात्, संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना. श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना. हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ!



अन्तिम दो श्लोको में संजय भगवान् के अपने द्वारा किए गए विराटरूप दर्शन की महिमा बतलाते हुए धृतराष्ट्र को स्पष्ट कहते हैं कि--


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।

विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

अर्थात्, हे राजन्‌! श्रीहरि के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ. हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है.


यह अकाट्य सत्य ही है और इस बात का हमें सदैव स्मरण रहना चाहिए कि जहाँ योगेश्वर कृष्ण जैसा ज्ञान एवं गाण्डीवधारी अर्जुन की तरह शक्ति और सजग चेष्टा होगी वहीं श्री, विजय, विभूति और अचल नीति विद्यमान होंगे!


===ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः===


*** *** ***


प्रिय धर्मानुरागी गीताज्ञानयात्रा में आरम्भ से अन्त तक प्रेरणा के श्रोत बने आत्मीय बन्धुगण!


आज प्रथम अध्याय से अठारहवें अध्याय तक की यात्रा आपके सहयोग से और भगवत्कृपा से पूरी हुई, अब आप सब से विनम्र निवेदन है कि अपने सुझाव, विशेष जिज्ञासा, अपने प्रश्न, मेरी त्रुटियाँ बताते हुए मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें कि मैं भगवत्कृपा से फेसबुक के बाद अधिक से अधिक लोगों के लाभ की दृष्टि से इस गीताज्ञानयात्रा को पुस्तक का आकार दे सकूँ!


ऊँ श्री परमात्मने नमः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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