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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ७३ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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ऊँ श्रीपरमात्मने नमः!

सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदजनानां ये मनोयोगपूर्वकं अर्जुनविषादयोगोनाम प्रथमोऽध्यायतः मोक्षसंन्यासयोगपर्यन्तं निरन्तरं संलग्नाः सन्ति!

प्रिय बन्धुगण!

मैंने आरम्भ में ही निवेदन किया था श्रीमद्भगवद्गीता विषादयोग प्रथम अध्याय से मोक्षसंन्यासयोग अठारहवें अध्याय तक की यात्रा है. जन्म-मरण रूप संसार के बंधन से सदा के लिए छूटकर परमानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेना ही तो मोक्ष कहलाता है, जिसके प्रति आकर्षण सांसारिक विषयों के प्रति विकर्षण के बिना सम्भव ही नहीं. अतः सांसारिक विषयों से मुक्ति के लिए विषाद् का होना भी भगवत्कृपा ही है, अर्जुन के लिए सौभाग्य की बात थी भगवान् कृष्ण ऐसे उपदेशक (काउंसलर) उसे मिले. हम सबों को भी गीतोपदेश संसार में  जीने की कला सिखाती है, दैव कृपा से अगर खुद के साथ विषाद् का योग हो और हम गीता का अध्ययन मनन करें तो परम लक्ष्य मोक्ष तक की यात्रा सुगमता से कर लेंगे!

ध्यातव्य है कि इस अठारहवें अध्याय में पूर्वोक्त समस्त अध्यायों का सार संग्रह करके मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग का "संन्यास"के नाम से और कर्मयोग को "त्याग"के नाम से इंगित करते हुए उनका अंग-प्रत्यंगो सहित विषद वर्णन किया गया है तथा साक्षात् मोक्षरूप परमेश्वर में सर्व कर्मों का संन्यास यानी त्याग करने पर बल दिया गया है, यही मार्ग है जो संसार में निर्लिप्त भाव से बरतते हुए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है, जिससे जीवात्मा मोक्ष (परमानन्द स्वरूप परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है. इसी रूप में इस अध्याय का उपसंहार हुआ है, इसी लिए तो इस अध्याय का नाम 'मोक्षसंन्यासयोग'रखा गया है!

इस अध्याय में अर्जुन सर्वप्रथम यही प्रश्न भगवान् के सामने रखता है कि हे प्रभो! मुझे संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्ति के त्याग रूप कर्मयोग का तत्व भली-भाँति अलग-अलग बतलाने की कृपा करें--

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥

अर्जुन की जिज्ञासा के अनुरूप भगवान् ने अगले दो श्लोकों में संन्यास और त्याग के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाते हुए कहा है--

काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥
अर्थात्, श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं. कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं.

अब आगे भगवान् अर्जुन को सावधान होकर सुनने की बात कहते हुए त्याग के विषय में विस्तार से बतलाते हैं--

निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः॥
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌॥
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌॥
अर्थात्, हे अर्जुन! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है. यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो कर्तव्य है क्योंकि यज्ञ, दान और तपकर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है) पवित्र करने वाले हैं. इसलिए इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा मत है.

अब आगे तीन कोटि के त्याग--सात्विक त्याग, राजस त्याग और तामस त्याग का लक्षण बतलाते हुए उलटे क्रम में तामस त्याग, राजस त्याग और सात्विक त्याग का लक्षण क्रमशः बताया गया है--

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।
सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥
अर्थात्, निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है. इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है. जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता. शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इस भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाने वाला त्याग सात्त्विक त्याग माना गया है.

अब दसवें श्लोक में भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि सात्विक त्याग करने वाले पुरूष का निषिद्ध और काम्य कर्मों के प्रति तथा कर्तव्य कर्मों के प्रति कैसा भाव रहता है. सात्विक त्यागीपुरूष का लक्षण यूँ बताया गया है--

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥
अर्थात्, जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और न ही कुशल कर्म में आसक्त होता है, वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है.

क्रमशः

जय श्रीराधेकृष्ण!

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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