ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! अद्यापि श्रद्धात्रययोगनामसप्तदशोऽध्याये एव यात्रा भविष्यति!प्रिय बन्धुगण!
अभी तक इस अध्याय में हमलोग तीन प्रकार की श्रद्धा के अनुरूप तीन प्रकार के आहार, तीन प्रकार के यज्ञ एवं तीन प्रकार के तप के लक्षणों से परिचित हुए!अब अगले तीन श्लोक में तीन प्रकार के दान की चर्चा की गई है--
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥अर्थात्, दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार उपकार की प्रत्याशा के बिना दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है. किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है. जो दान बिना सत्कार के अयोग्य देश-काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है.
आगे यह स्पष्ट किया गया है कि तीन प्रकार की श्रद्धा के अनुरूप (यज्ञ तप, दान) सात्विक यज्ञ, तप, दान ही उचित और उपादेय क्यों हैं?ऊँ, तत् और सत् का यज्ञ, दान, तप आदि से सम्बन्ध का वर्णन विस्तार से किया गया है. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऊँ, तत्, सत् परमेश्वर के ही तीन नाम हैं, तथा इनसे प्रशस्त मांगलिक उत्तम कर्मों के सम्पादन में प्रयोग आवश्यक है ताकि हम सही ढंग से दैनन्दिन कर्मों को सात्विक रीति से सम्पादित करते हुए मोक्ष के अधिकारी बन सकें. जैसा कि हम जानते हैं, अगला अन्तिम अठारहवां अध्याय "मोक्षसंन्यासयोग"ही है!
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते॥अर्थात्, ॐ, तत्, सत्- ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए. इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ'के उच्चारण से ही आरम्भ होती हैं. तत् अर्थात् 'तत्'नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं. 'सत्'- यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तम कर्म में भी 'सत्'शब्द का प्रयोग किया जाता है. यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्'है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है.
इस प्रकार यहाँ तक विस्तार पूर्वक यह बतलाया गया कि सात्विक श्रद्धा से शास्त्र के निर्देशानुसार सम्पादित यज्ञ, दान, तप आदि विहित कर्म ही श्रेयष्कर एवं श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं. अब यह किसी की जिज्ञासा हो सकती है कि जो शास्त्र विहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के करते हों (तात्पर्य यह कि करना है, कर दिया, दान देना है, दे दिया, पर श्रद्धा नहीं है) वैसे कर्म का क्या परिणाम होता है? इसी को स्पष्ट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार किया गया है--
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥अर्थात्, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'श्रेणी में आता है इस कारण वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही!
इस तरह सुस्पष्ट है कि हम जो कुछ भी करें शुद्ध सात्विक श्रद्धा से करें अन्यथा वे किए गए यज्ञ, तप, दान या जो भी कर्म होंगे "असत्"कहलाएंगे जो लोक परलोक कही के लिए भी लाभदायक नहीं सिद्ध होना है.
कल से हम सबों की यात्रा "मोक्षसंन्यासयोग"नामक अठारहवें अध्याय में प्रविष्ट होगी। जय श्रीकृष्ण!
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
अर्थात्, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'श्रेणी में आता है इस कारण वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही!