चौदहवें अध्याय में मुख्य रूप से सत्त्व, रज और तम-- इन तीन गुणों के स्वरूप, उनके क्या कार्य हैं तथा वे किस प्रकार जीवात्मा के लिए बन्धन के कारण हो जाते हैं, मनुष्य किस प्रकार इनसे बचते हुए परम पद का अधिकारी हो सकता है,इन तीन गुणों से अतीत हो परमात्मा को प्राप्त व्यक्ति की पहचान क्या है? इन्ही त्रिगुण संबंधी विषद विवेचन के कारण ही इस अध्याय का नाम गुणत्रयविभाग योग रखा गया है.
गुण रस्सी को भी कहते हैं. रस्सी जिससे बांधा जा सके. बंधन का पाश (रस्सी या चेन, सीकड़) सोनें का हो, चान्दी का हो या लोहे का बन्धन ही तो कहलाएगा अतः साधक को इस अध्याय में भली प्रकार से समझाया गया है कि रजो गुण एवं तमो गुण से कैसे बचा जा सकता है तथा अन्त में सतो गुण (सोने की जंजीर) से भी सर्वथा संबंध त्याग कैसे परमात्ममय हुआ जा सकता है, यही समझाने का प्रयास किया गया है. हमें यह बराबर ख्याल रखना है-- गीता मुख्य रूप से "ज्ञानसंवलित कर्मयोग शास्त्र"ही है. ज्ञान पूर्वक निष्काम कर्म सम्पादन ही विविध प्रकार से विभिन्न अध्यायों में समझाने की निरन्तर चेष्टा होती रही है, जैसा कि तेरहवें अध्याय में भी हम सब ने देखा-- हम सब ने देखा क्षर, अक्षर की जानकारी संबंधी ज्ञान का ही विवेचन मुख्य विषय था, उसे ही और स्पष्ट करने के लिए चौदहवें अध्याय में भी उसी का विस्तार से वर्णन हुआ है, इसीलिए इस अध्याय के आरम्भिक दो श्लोकों में उसी ज्ञान की महत्ता बतलाते हुए भगवान् कहते हैं--
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥
अर्थात्, श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं. इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते.
यह सुस्पष्ट है कि कुछ भी समझने के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है, "ज्ञानान्ऋते न मुक्ति"इसी लिए तो यहां भी कहा गया कि-- इस ज्ञान को धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरूष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल मे भी व्याकुल नहीं होते. यही कारण है कि उस ज्ञान के वर्णन के क्रम में अगले दो श्लोकों में प्रकृति और पुरूष से ही समस्त जगत की उत्पत्ति हुई है यह बतलाते हुए कहते हैं--
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
अर्थात्, हे अर्जुन! मेरी महत्-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनी है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनी में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ. उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है. नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ.
आगे के पांचवें से आठवें श्लोक में तीन गुणो की प्रकृति से उत्पत्ति और उनके विभिन्न नाम रूप बतलाते हुए, जीवात्मा के लिए वे बन्धन का कारण कैसे और क्योंकर बन जाते हैं, उसे अलग-अलग समझाने की चेष्टा की गई है, थोड़ी सतर्कता हम सब को भी बरतनी पड़ेगी, ताकि ये बातें हम सब के पल्ले भी पड़ सकें--
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
अर्थात्, सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं. उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है. हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान. वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है. सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान. वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा बाँधता है.
इस प्रकार हम सब ने तीनो गुणों के स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा कैसे बंधता जाता है, उसे जाना है! आगे बचने का उपाय भी जानेंगे और मुक्ति मार्ग में अग्रसर होने की प्रक्रिया को अपनाने की चेष्टा भी करेंगे.