$ 0 0 सूखे पत्तेबर्फ़ के फ़ाहों सेढँक चुके हैं मन की ज़मीं परजमी परतकितना कुछ सहेज रही हैक्या कुछ छुपा रही है ये बादलों में उभरतीआकस्मिक आकृतियों सारहस्यमय संसार है भावों कीविरल व्याख्या काअदृष्ट आयतन है जितनी कह दीं जाती हैंउससे कहीं अधिककही जानी शेष बच जाती हैं पीड़ा का अध्याय वृहदाकार है इस अध्याय के विश्राम तक की यात्रादुष्कर है, तो है चलते चलना ही एकनिष्ठ आधार है किपहुंचना कहीं नहीं हैरास्तों के डाढ़-पात की सन्निधि ही जैसे सार है यूँ लुके-छिपे पातरह जाने हैं मौसम के अनछुए विम्बों में व्यक्तहृदय के कई घावअजाने हैं !