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Channel: अनुशील
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कि पहुंचना कहीं नहीं है

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सूखे पत्ते
बर्फ़ के फ़ाहों से
ढँक चुके हैं 


मन की ज़मीं पर
जमी परत
कितना कुछ सहेज रही है
क्या कुछ छुपा रही है 


ये बादलों में उभरती
आकस्मिक आकृतियों सा
रहस्यमय संसार है 


भावों की
विरल व्याख्या का
अदृष्ट आयतन है 


जितनी कह दीं जाती हैं
उससे कहीं अधिक
कही जानी शेष बच जाती हैं 

पीड़ा का अध्याय वृहदाकार है 


इस अध्याय के विश्राम तक की यात्रा
दुष्कर है, तो है 

चलते चलना ही 

एकनिष्ठ आधार है 


कि
पहुंचना कहीं नहीं है
रास्तों के डाढ़-पात की सन्निधि ही 

जैसे सार है 


यूँ लुके-छिपे पात
रह जाने हैं 


मौसम के अनछुए विम्बों में व्यक्त
हृदय के कई घाव
अजाने हैं !


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