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Channel: अनुशील
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भीतर कितने ही शहर बसे हैं!

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झरोखे से दीखता दृश्य रोमांचित करता है हमेशा, आर्क ऑफ़ कांस्टेंटायिन की एक भव्य तस्वीर लगायी है पिछलेपोस्ट में, पर कोलोसियम के इस झरोखे से दृश्यमान आर्क की यह तस्वीर हमें बहुत अच्छी लगती है. अपनी दीवारों से बाहर की ओर राह बनाती छवि हमें संभावनाओं के जिंदा होने का एहसास कराती है और बेहद निराशाजनक समय में भी हम एक दिया जलाने को तत्पर हो उठते हैं. खंडहर से बाहर की ओर देखना रोमांचित करता है, हालांकि बाहर भी खंडहर ही है, पर एक साझा वैभव जो है इनका, वह चमत्कृत करता है!
कोलोसियम से आगे बढे हम, "हॉप ऑन हॉप ऑफ" बस पर सवार हुए और चल पड़े अगली मंजिल की ओर. तसवीरें बस से भी लीं, दूर होता हुआ कोलोसियम स्थल तस्वीरों में कैद हो रहा था... हम रोम की सड़कों पर बढे जा रहे थे, एक सी भव्य ईमारतें थी सब ओर, विस्मयकारी युनिफ़ोर्मिटी देख हम स्तब्ध थे.
बीच बीच में कई खंडहरों से भी गुज़रा रास्ता, अभी भी पुरातत्ववेत्ता अपनी खोज में लगे हैं, सभ्यता संस्कृति की कितनी साँसे दफन होंगी वहाँ, खुदाई निरंतर चल ही रही है.…!
सच, न इतिहास का अंत है और न ही भविष्य की कोई सीमा है, वर्तमान के कंधे पर बीते और आने वाले दोनों ही 'कालों' व 'कलों' का बोझ है!
हल्की बारिश हो रही थी, हम खुले में सबसे ऊपर बैठे थे बस पर, रिमझिम फुहारों का आनंद लेते हुए.  कोलोसियम और रोमन फोरम में घूमते हुए हम थके तो थे ही तो यह सोचा कि बिना कहीं उतरे बस से ही पूरे रोम का अवलोकन कर लिया जाये… फिर शाम और अगला सारा दिन तो है ही घूमने के लिए!
ये विचित्र से पेड़ों की तस्वीर भी कहीं राह में बस से ही ली थी, एकदम सीधे खड़े ठूंठ चोटी पर हरी टोपी धारण किये हुए! इन्हें यूँ ही मेन्टेन किया जाता होगा शायद!
अब फुहारें तेज हो गयीं थीं, ज्यादा भींगना ठीक नहीं था सो हम नीचे उतर आये, अब ज्यादा दूरी नहीं थी, अपना निश्चित सर्कल पूरा कर बस हमें वापस उतारने वाली थी. बहुत सारी तसवीरें खींचते हुए हम होटल वापस लौटे, विश्राम करके पुनः शाम को निकलना जो था! रिमझिम फुहारों में भींगते हुए बस से रोम दर्शन के दौरान ली गयीं कुछ तसवीरें… शाम को जब थम जाएगी बारिश तब फिर निकलेंगे हम भ्रमण को!
अब लौटते हुए रोम की ऐतिहासिकता से अभिभूत हम अपने ठिकाने को याद कर रहे थे…
स्टॉकहोम की बात ही अलग है, यहाँ की भव्यता दूसरी है, यहाँ प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है एकदम साथ साथ, कोई अलगाव नहीं है, घरों ने… इमारतों ने…  जंगल से उनकी जगह नहीं छीनी है, बल्कि घर ही समा गए हैं प्रकृति की गोद में! जैसी जगह मिली, वैसा कंस्ट्रक्शन, पत्थरों पर घर, जंगल में घर, पेड़ों के पीछे चिड़िया के घोंसले सा छिपा कोई गृह… ऐसा लगता है प्रकृति के साथ कोई जुगलबंदी हो इनकी, पीसफुल को-एक्सिसटेन्स इसे ही कहते हैं शायद!
यहाँ की बारिश भी अलग ही है… १८ अगस्त २००९ की शाम जब स्टॉकहोम में कदम रखा था पहली बार, तब भी तो बारिश ही हो रही थी, एक बार बरस कर बिलकुल शांत जैसे रो लिए हों जी भर और मन हल्का हो गया हो!
रोम में स्टॉकहोम याद आ रहा था और स्टॉकहोम की यादों से भारत झाँक रहा था! कमरे में लौटकर घर बात हुई, घूम रहे थे रोम पर मन रमा था जमशेदपुर में. एक फ़ोन कॉल से जुड़ जाएँ और हो जाए पूरी यात्रा, ये रिश्ता तो केवल जमशेदपुर से है!
जमशेदपुर पर भी विस्तार से लिखने का मन है… लिखेंगे ज़रूर कभी. अभी तो ये रोम यात्रा पूरी करनी है, लेकिन ज़रा सुस्ता लें, राह लम्बी है और हमारा मन भींगा है…! एक यात्रा से दूसरी, दूसरे से तीसरी और न जाने यूँ ही कहाँ कहाँ भागता है मन, इसकी थाह लें ज़रा, फिर आगे बढ़ते हैं! अपने भीतर कितने ही शहर बसे हैं, सभी को जानना है… पहचानना है… यात्रारत रहना है…!
***
एक और महत्वपूर्ण यात्रा जिसे लेकर हम अभी अतिउत्साहित हैं: मेरी छोटी बहन स्टॉकहोम आ रही है आज. उसके स्वागत में मन हमारा सुबह से दरवाज़े पर खड़ा है!


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