सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति. अद्य ज्ञानविज्ञानयोगोनाम सप्तमो अध्यायस्य यात्रा भविष्यति!
प्रिय बंधुगण!
आत्मसंयमयोगनाम छठे अध्याय की पूर्णता के बाद हम आज ज्ञानविज्ञानयोगनाम सातवें अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं. भगवान् कृष्ण ने इसी अध्याय के द्वितीय श्लोक में अर्जुन से कहते हैं कि मैं तेरे लिए विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण रूप से बताऊँगा जिसे जानकर तुम्हारे लिए फिर इस संसार में कुछ और जानने योग्य शेष नहीं रह जायेगा--
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
हम सबों के लिए भी भगवान कृष्ण की यह वाणी ध्यान देने योग्य है. सप्तम अध्याय पर हम सबों का विशेष ध्यान, मनन और चिंतन की ज़रुरत है क्यूँकि इसे समझ लेने के बाद गीता के कर्मयोग को समझने में कभी संशय उत्पन्न नहीं होगा. सप्तम अध्याय के विषद विवेचन से पूर्व यहाँ वर्णित ज्ञान और विज्ञान को भी हमें समझना होगा. जिससे परमात्मा के निर्गुण निराकार तत्व का प्रभाव, महात्म्य एवं रहस्य सहित पूर्ण रूप से जानकारी मिले वह ज्ञान है तथा सगुण, निराकार एवं साकार तत्व के लीला, रहस्य, महत्त्व, गुण और प्रभाव आदि के पूर्ण ज्ञान को विज्ञान कहा गया है. अतः साधक द्वारा ज्ञान और विज्ञान सहित भगवान् के स्वरुप को समग्र रूप से जानने की सुविधा के लिए इस अध्याय में ज्ञान और विज्ञान की चर्चा हुई है. भगवान् ने प्रथम श्लोक में इसीलिए अर्जुन को विशेष सावधान करते हुए कहा है कि-- हे पार्थ! तुम अनन्य प्रेम से आसक्त चित्त होकर अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगे हुए जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त सबके आत्मरूप मुझ परमात्मा को संशय रहित होकर जानोगे उसे सुनो--
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
यहाँ यह सुस्पष्ट है कि जबतक किसी भी चीज़ के प्रति अनन्य प्रेम न हो, उस वास्तु की प्राप्ति के प्रति विशेष लगाव न हो और अनन्य भाव से उसे प्राप्त करने की चेष्टा न की जाए तो कुछ भी प्राप्त करना साधारण या विशिष्ट मनुष्य के लिए कदापि संभव नहीं. फिर यहाँ तो निर्गुण निराकार से लेकर सगुन साकार परमेश्वर के स्वरुप को समझने की बात है. अतः इस रहस्य जानने की प्रबल इच्छा रखने वाले को अनन्य प्रेमी एवं तत्परायण होना आवश्यक है.
शायद ऐसा मनोभाव सबों के लिए संभव नहीं हो पाता, इसीलिए तो भगवान् तीसरे श्लोक में अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि-- हे अर्जुन! हज़ारों हज़ार मनुष्यों में कोई एक मुझे प्राप्त करने के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले हज़ारों योगियों में कोई कोई ही मुझको तत्वतः यथार्थ रूप में जान पाता है--
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥
यहाँ पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि कुछ कठिन विषयों को जानने के लिए विशेष सजगता की ज़रुरत होती ही है. इसीलिए भगवान् ने अर्जुन को सजगता पूर्वक, प्रेमसहित, अनन्य भाव से चिंतन करने को प्रेरित किया है क्यूंकि भगवान् अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने समग्र स्वरुप को ज्ञान विज्ञान की संज्ञा देते हुए उसकी प्रशंसा की है और उसे अपरा और परा प्रकृतियों का स्वरुप बतलाते हुए चौथे एवं पांचवें श्लोक में यूँ संकेत किया है--
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
अर्थात:- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है. यह आठ प्रकार के भेदों वाली (अपरा) मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! दूसरी ओर, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा (परा) चेतन प्रकृति जान.
हम सबों को भी अपरा और परा प्रकृति को (जो प्रभु का ही दो स्वरूप है) बराबर ध्यान में रखना होगा नहीं तो आगे की यात्रा में भ्रम की स्थिति आ सकती है. उपरोक्त कथन को समझाते हुए छठे एवं सातवें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं--
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
अर्थात:- हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ. हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है. यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है.
ध्यातव्य है कि सूत्र और सूत्र से मणियों के जुड़े होने के दृष्टान्त से भगवान् ने अपनी सर्वरूपता और सर्वव्यापकता को बतलाने की चेष्टा की है. यद्यपि सूत्र अलग है और मणि अलग है तथापि दोनों के सम्मिलन से वह हार का रूप ग्रहण कर लेता है. आगे के श्लोकों में इसी को भली भाँती स्पष्ट करने के लिए विशिष्ट एवं प्रधान वस्तुओं में अपने स्वरुप को सबमें समाहित बतलाते हुए अर्जुन को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरे सिवा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं है.
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
अर्थात:- हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ. हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है. यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है.
ध्यातव्य है कि सूत्र और सूत्र से मणियों के जुड़े होने के दृष्टान्त से भगवान् ने अपनी सर्वरूपता और सर्वव्यापकता को बतलाने की चेष्टा की है. यद्यपि सूत्र अलग है और मणि अलग है तथापि दोनों के सम्मिलन से वह हार का रूप ग्रहण कर लेता है. आगे के श्लोकों में इसी को भली भाँती स्पष्ट करने के लिए विशिष्ट एवं प्रधान वस्तुओं में अपने स्वरुप को सबमें समाहित बतलाते हुए अर्जुन को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरे सिवा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं है.
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय