यह श्लोक देवाधिदेव महादेव के प्रति समर्पित है जिसका आशय यह है कि भगवान् शिव स्वयं देवाधिदेव महादेव हैं, उनके श्वसुर पर्वतराज हिमालय हैं, उनका मित्र धन का स्वामी कुबेर है, उनके पुत्र प्रथम पूज्य गणेश हैं फिर भी वे कपाल लेकर भिक्षाटन में संलग्न दिखते हैं. इसे ईश्वर की बलवान ईच्छा का फल न कहें तो और क्या कह सकते हैं. यह विषय भी गूढ़ विवेचना की अपेक्षा रखता है, ईश्वर कृपा से भविष्य में कभी चर्चा की जाएगी!
यहाँ मैं स्पष्ट रूप से स्वीकारता हूँ कि "बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा", यही सत्य है! कर्म भोग सिद्धांत तो परमसत्य है ही. परमात्मा ने संसार में जीवनयापन का जो संविधान बनाया है उसका सहज अनुपालन ही मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है.
गीता ज्ञान यात्रा के यथाक्रम की पिछली कड़ी में हमने कर्म संपादन के विशिष्ट रूप को हमने इस तरह जाना था
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
अर्थात, जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता.
आगे १५वें, १६वें, एवं १७वें श्लोक में कर्म करने की सहज प्रक्रिया को दर्शाते हुए कहा गया है-- नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥
अर्थात, सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं. परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर ही देता है. जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकात्मभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर परमगति को प्राप्त होते हैं.
यहाँ यह ध्यातव्य है कि परमात्म बुद्धि प्राप्त होते ही मनुष्य सहजबुद्धि प्राप्त कर लेता है, जिससे सर्वत्र सम और स्थिर बुद्धि वाला वह स्वतः हो जाता है. हम इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं. तुलसीदासजी ने प्रसंगवश उल्लेख किया है-- सिया राममय सब जग जानी। करउं प्रणाम जोरि जुग पानी। और ये भी कि निज प्रभुमय देखहिं जगत। केहि सन करहिं बिरोध।
इनके अर्थ बोधगम्य हैं, इसके अनुरूप अगर हमारी मति और बुद्धि सम्यक हो जाए तो हमारी सोच में सर्वत्र समता और सहजता का होना भी अवश्यम्भावी हो जायेगा. इसीलिए इस अध्याय के २०वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को स्पष्ट किया है कि-- न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ अर्थात, जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकात्मभाव से नित्य स्थित है. परमात्म बुद्धि होने पर यह सहज संभव है, इसका अनुभव प्रत्यक्ष आचरण में उतार हम स्वयं ही कर सकते हैं. यह स्वाभाविक है कि जब हमें सबमें परमात्मदर्शन होने लगेगा तब सम भाव होने के कारण सुख और दुःख के प्रति भी हमारा भाव समान ही हो जायेगा. किसी के प्रति क्रोध या प्रेम न हो कर एक सहज मानसिक स्थिति को हम प्राप्त हो जायेंगे, जिसका लाभ मानसिक सुख शांति के रूप में हमें स्वतः प्राप्त होने लग जायेगा. इस बात का संकेत भगवान् कृष्ण अर्जुन को इस अध्याय के २३वें और २४वें श्लोक में इस प्रकार देते हैं--
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
अर्थात, जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है. जो पुरुष आत्मा में ही रमण करने वाला है वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकात्मभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है. किन्तु २६वें श्लोक में यह हिदायत भी भगवान् देते हैं कि इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए काम और क्रोध को त्याग कर दृढ़तापूर्वक प्रयत्नशील भी यतियों की तरह होना आवश्यक होगा.
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥ अर्थात, काम- क्रोध आदि विकारों से मुक्त संयत चित्त वाले आत्मज्ञ, यतिगणों को शरीर छोड़ने से पहले एवं बाद में ब्राह्मी स्थिति की अवस्था में सहज ही निर्वाण की प्राप्ति होती है. यह स्वाभाविक इसलिए भी है क्यूंकि उस परब्रह्म परमात्मा को सर्वत्र देखने की सम्यक दृष्टि निरंतर अभ्यास से मनुष्य प्राप्त कर लेता है. अंततः इस अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान् ने इसी परमभाव को रेखांकित करते हुए कहा है भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ अर्थात, मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है. इस प्रकार कर्म सन्यासयोग नाम पंचम अध्याय पूर्ण हुआ. कल से हमारी यात्रा आत्मसंयम योगनाम छट्ठे अध्याय में प्रविष्ट होगी.