प्रिय बन्धुगण! चतुर्थ अध्याय भी येन-केन-प्रकारेण ज्ञान संबलित कर्म करने की ही विवेचना करता है. हाँ, शर्त्त वही है अनासक्त और फलाकांक्षारहित हो कर्म करने की. तेरहवें श्लोक में भगवान् स्वयं अपने द्वारा किये गए चारो वर्ण की सृष्टि, एवं स्वयं अकर्ता होने का उदहारण इस प्रकार प्रस्तुत किया है चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ (१३) अर्थात, प्रकृति के तीन गुणों (सत, रज, तम) के आधार पर कर्म को चार विभागों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में मेरे द्वारा रचा गया, इस प्रकार मानव समाज की कभी न बदलने वाली व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता ही समझ। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-- कंप्यूटर में डाटा फीडेड है, उस आधार पर वह सारे कैलकुलेशन करता है, इस प्रक्रिया में वह कर्ता होते हुए भी अकर्ता ही है क्यूँ कि किसी जोड़-घटाव-गुणा-भाग से उसे किसी प्रकार का कोई लेना देना नहीं है. डाटा फीड करने वाले व्यक्ति का भी परिणाम के प्रति अनासक्त भाव ही होता है, चाहे परिणाम पक्ष में हो या विपक्ष में.
चौदहवें श्लोक में उन्होंने अपने कथन की कर्म के प्रति निर्लिप्तता के भाव को भी इस प्रकार स्पष्ट किया है न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ (१४) अर्थात, कर्म के फल में मेरी आसक्ति न होने के कारण कर्म मेरे लिये बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाते हैं, इस प्रकार से जो मुझे जान लेता है, उस मनुष्य के कर्म भी उसके लिये कभी बन्धन उत्पन्न नही करते हैं।
पुनः कर्मयोग और ज्ञानयोग के प्रति संदेह करने वाले अर्जुन के प्रति उन्होंने पन्द्रहवें श्लोक में पुनः पूर्व में किये गए कर्मयोगियों के द्वारा कर्म करने को ही प्रेरित किया है! एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ (१५) अर्थात, पूर्व समय में भी सभी प्रकार के कर्म-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरी इस दिव्य प्रकृति को समझकर कर्तव्य-कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति की, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म अनिवार्य है, केवल करने के ढंग को भली प्रकार समझने की ज़रुरत है. जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया था कि ज्ञान, कर्म और भक्ति तीन भागों में समझी जाने वाली गीता मुख्य रूप से डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन महोदय के मतानुसार गीता "ज्ञान संबलित कर्मयोग" शास्त्र है. इसे हम सबको सदा ध्यान रखना चाहिए. ज्ञान पूर्वक किये गए कर्म कभी बंधन के कारण नहीं हो सकते. हमारे कोई भी कार्य पूर्व संकल्पित न हों पर संयोग से उपस्थित कर्तव्य कर्मों के प्रति दृढता हो, आसक्ति और अनासक्ति जैसी कोई दुविधा न हो. इस प्रकार कर्म करने से ज्ञान रुपी अग्नि में कर्म आहुत हो जाते हैं और ऐसे व्यक्ति को ही बुद्धिमान लोग पंडित भी कहते हैं जैसा कि उन्नीसवें श्लोक में स्वयं भगवान् ने अर्जुन को कहा है यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ (१९) अर्थात, जिस मनुष्य के निश्चय किये हुए सभी कार्य बिना फ़ल की इच्छा के पूरी लगन से सम्पन्न होते हैं तथा जिसके सभी कर्म ज्ञान-रूपी अग्नि में भस्म हो गए हैं, बुद्धिमान लोग उस महापुरुष को पूर्ण-ज्ञानी कहते हैं. तात्पर्य यह कि फिर ज्ञान युक्त होकर कर्म करने की ओर संकेत करना ही है!
इसी लिए तेईसवें श्लोक में भी इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्म में लगाव न हो, चित्त ज्ञान में अवस्थित हो और कर्म यज्ञ भाव से भावित हो तो वह कदापि बंधन का कारण नहीं होता! गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ (२३) अर्थात, प्रकृति के गुणों से मुक्त हुआ तथा ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित और अच्छी प्रकार से कर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सभी कर्म ज्ञान रूप ब्रह्म में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं।