सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति।
अद्य ज्ञानकर्मसन्यासयोगोनाम चतुर्थोऽध्यायेएव ध्यातव्यं विद्यते।
प्रिय बन्धुगण!
अर्जुन द्वारा की गयी शंका "अपरं भवतो जन्म..."के उत्तर में भगवान् कृष्ण ने कहा
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ (५)
अर्थात, श्री भगवान ने कहा - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, मुझे तो वह सभी जन्म याद है लेकिन तुझे कुछ भी याद नही है।
यहाँ हम सबों के लिए ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ नारायण स्वयं श्री कृष्ण हैं और नर अर्जुन है जो परब्रह्म परमात्मा और जीवात्मा के रूप में उपस्थित है. तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में इस ओर संकेत देते हुए कहा है-- "ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि", अर्थात, जीव ईश्वर का ही अंश है और अविनाशी होते हुए मलरहित यानि निष्पाप और सूख का पूँज ही है पर इस त्रिगुणमयी संसार में लोभ और मोह के वशीभूत होता हुआ अपने स्वरुप को भूल आसक्तियुक्त कर्मों के कारण आवागमन के चक्कर में पड़ जाता है और अपने मूल स्वरुप की विस्मृति के कारण जन्म-मृत्यु-क्रम के वशीभूत हो जाता है, और इस आवागमन की उसे सुधि तक नहीं रहती! ठीक इसी ओर श्रीमाद्भाग्वदमहापुराण के महात्म्य में परमात्मा और जीवात्मा के रूप में इस संसार में भ्रमणार्थ आने की "पुरंजन-कथा"वर्णित है, जहाँ जीवात्मा संसार के सौन्दर्य से आकर्षित हो कुछ दिन यहीं रहने की लालसा प्रगट करता है और मित्र रूप परमात्मा के कहने पर भी संसार में रम जाता है. कई जन्म उसके यहाँ व्यतीत होते हैं उसके बाद मित्र रूप परमात्मा जीवात्मा को उसके स्वरुप का बार बार बोध कराते हैं. संसार में व्यतीत हुए उसके कई जन्मों का प्रत्यक्ष दर्शन भी कराते हैं, लेकिन उसे बोध नहीं हो पाता, अतः परमात्मा उसका हाथ पकड़ जैसे ज्ञान रुपी वापी (तालाब) में स्नान करवाते हैं उसे अपने शुद्ध चिरंतन स्वरुप का बोध हो जाता है और वह परमात्मा के साथ जाने को उद्यत हो उठता है.
आगे छठे श्लोक में इसी ओर स्पष्ट संकेत देते हुए भगवान् कृष्ण ने इस संसार में अपने आने के तरीके को इस प्रकार स्पष्ट किया है
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (६)
अर्थात् यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर (स्वामी) होते हुए भी अपनी अपरा-प्रकृति (महा-माया) को अधीन करके अपनी परा-प्रकृति (योग-माया) से प्रकट होता हूँ।
तात्पर्य यह है कि ईश्वर को उस स्वरुप का समूल ज्ञान है जिसमें वे अवतरित हुए हैं, उन्हें अपने उद्देश्य का भी स्पष्ट ज्ञान है और जिस स्वरुप में अपनी योग माया से वापस लौटना है उसका भी उन्हें भान है. वहीँ जीवात्मा सांसारिक चकाचौंध में अपने मूल स्वरुप को भूल संसार में ही भटकता रह जाता है. यही रहस्य की बात है जिसे हम सबको ध्यानपूर्वक समझना है.
सातवें-आठवें श्लोक में भगवान् कृष्ण ने अपने अवतार ग्रहण करने का उद्देश्य स्पष्ट किया है--
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ (७)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (८)
अर्थात, हे भारत! जब भी और जहाँ भी धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ। भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।
यहाँ भगवान् के अवतरित होने का कारण और उद्देश्य दोनों स्पष्ट रूप से इंगित हैं. ठीक इसी तरह संसार में हम भेजे गए हों या अपने कर्मफल के अनुसार आये हों, हमारे कार्य भी सुनिश्चित हैं और यदि इस संसार के विधान के अनुसार निर्लिप्त भाव से मात्र अपने कर्तव्यों के पालन में निष्काम भाव से दिए गए दायित्व का निर्वहन करते चलें तो उस परमात्मा की तरह ही जीवात्मा के लिए भी यहाँ के कार्य बंधन के कारण नहीं होंगे और हम सब भी अपने उस सहज स्वरुप में लौट पाएंगे, इसमें कोई संदेह नहीं! हम इसे एक उदहारण से समझ सकते हैं, चाहे हम जिस संस्था, फर्म या विभाग में कार्य कर रहे हों, वहाँ के निदेशक के अनुसार दिए गए कार्यों का हम भली प्रकार संपादन कर लेते हैं तो किसी प्रकार के दोष के भागी नहीं होते पर वहीँ यदि हम उन निर्देशों की अवहेलना करते हैं तो दोष के भागी होते हैं और दंड के अधिकारी भी! संसार भी हमारा कार्यक्षेत्र है और यहाँ भी रहने के नियम निर्धारित हैं जहाँ हमें अपने वास्तविक स्वरुप का ख्याल रखते हुए सारे कार्यों को अभिनेता की तरह सम्पादित करते जाना है.
चिंतन यात्रा चलती रहेगी...
क्रमशः
--सत्यनारायण पाण्डेय