जो समाधान जागते हुए बड़े प्रयास के बाद भी नहीं मिलते, कभी कभी वो सारे हल स्वप्न दे जाता है... वास्तव में वह स्वप्न स्वप्न नहीं होता... उसकी तरलता इतनी वास्तविक होती है कि आँखें बहने लगती हैं. ये रोना कुछ अलग ही होता है कि हम अवचेतन रूप से रो रहे होते हैं, खुद आँख बेगानी होती है, भीगती है तब उसे एहसास होता है कि बह रही है. ऐसे ही आँखों से नींद के किसी द्वार पर खाड़ी मिल जाती है कविता... जग कर उसे जैसा देखा वैसा हम कागज़ पर उतार देते हैं और पहले से ही उपस्थित अस्तित्ववान उस कविता को अपनी रचना कह देते हैं... जगत व्यवहार सी बात है, ऐसे ही चलती है पर स्वप्न देखने वाली आँखें जानती हैं कि उसने बस देखी कविता रचित होती हुई, उसने बस देखे हल यूँ ही अनायास आँचल में खिलते हुए...
समस्यायों का निर्जन वन क्या कभी स्वप्न और कविता के उस धरातल तक जा पायेगा... क्या समझ पायेगी यह स्थूल दुनिया उस सूक्ष्मता का मर्म!
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सपने में देखा तुम्हें. तुम्हारी मुस्कराहट भी. तसल्ली हुई कि सब ठीक है. अच्छे हो तुम और संवाद की कोई सम्भावना न होते हुए भी हमने खूब बातें की. स्वप्न ने हमें वो ज़मीं दी, जहाँ हम दो घड़ी बैठ जीवन को थाह सकें.
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रात्रि का अन्धकार ममत्व से परिपूर्ण होता है. वह सबके लिए एक सी करुणा बरसता है कि सकल आत्माएं स्नेहमयी गोद में विश्राम कर सुबह की तपन झेलने का ताब खुद में जज़्ब कर सकें. दिन के हिस्से तो कई भेद भाव हैं. सबके हिस्से एक सी सुबह कहाँ आती है, न ही संतोष शांति की धूप ही हर छत एक सी खिलती है.