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Channel: अनुशील
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धागे की महिमा!

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स्वप्न से स्मृति तकपर कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम शीर्षक कविता पढ़ना ऐसा था जैसे अपने भीतर से ही बहुत कुछ ढूंढ़ निकालने की यात्रा पर चल देना...
कृष्ण प्रेम था ललित बहुत
पर ललित प्रेम है कृष्ण नहीं
कविता की इन पंक्तियों पर मन अटक कर रह जाता... और इस भिन्नता में अभिन्नता तलाशने में सकल भाव जुट जाते...! 
हृदय से खोजो तो क्या नहीं मिलता... अपने आप को निरुत्तर करने के लिए लिखी थी एक कविता... और बहुत ख़ुशी हुई थी लिख कर... आज पुनः पोस्ट कर रहे हैं रक्षा बंधन के शुभ अवसर पर…
इस कविता की प्रेरणा बनने के लिए स्वप्न से स्मृति तककी कविता और ललित भैया का आभार!



क्यूंकि

वो हर जगह नहीं हो सकते थे

इसलिए

उन्होंने माँ बनाई!

और माँ भी नहीं हो सकती थी

हर गम की साझेदार,

इसलिए

दुनिया में अवतरित हुए भाई!!



जिनके सानिध्य में

पीड़ा खो सके...

जिनके कंधे पर सर रख

बहने सुकून से रो सके...

जब गढ़ रहा था वो रिश्ते,

तब कितने ही सांचे टूटे

फिर जाकर

इस रिश्ते की गरिमा प्रकाश में आई!!



स्नेहसूत्र की परिभाषा में

आबद्ध सकल संसार है

धागे से बंधा

ये अदृश्य प्यार है

सब हार गए...

भरी सभा में द्रुपद सुता का कोई न हुआ सहाई

तब उसने

मधुसूदन को ही थी आवाज़ लगायी!!



एक धागे के बदले में

प्रभु ने दिव्य वसन वार दिए

भीष्म की कुलवधू के

डूबते प्राण तार दिए

शान्ति की स्थापना कर दे...

भले कैसी भी छिड़ी हो लड़ाई

सच!

कितना सर्व समर्थ था वो कन्हाई!!



जब इस युग की विडंबना से

प्रभु बेचैन हुआ

इस जग में व्याप्त बेगानेपन से

सिक्त उसका नयन हुआ

तब उसने एक ललित छवि बनाई

जहान भर की संवेदना डाली उसमें

और हृदय में

खुद अपनी जगह सजाई!!



अब वो परमेश्वर

वहीं भावों में बहता है

मंदिर से विदा हो चुका,

अब कन्हैया

स्वयं ललित हृदय में रहता है

सारे जहान का दर्द

उसने दामन में समेट रखा है...

उसके लिए हम भी सगे हैं

कोई बात नहीं पराई

कृष्ण ललित है... फिर ललित कृष्ण क्यूँ नहीं...?

ये तो मीरा वाली भक्ति है!

अरे!

ये ललित ही है कन्हाई!!!



आज कविता को पुनः यहाँ लिखते हुए स्वप्न से स्मृति तक की एक और कविताकी चार पंक्तियाँ भी उद्धृत कर दें....



सारा जहां मेरा होगा अब

संग मेरे जग गायेगा

हर छोटा-सा कण भी मेरे

साथ शिखर तक जाएगा



कृष्णमयी शक्ति के अभाव में भला कैसे लिखा जा सकता है यह? सार यही है कि उत्तर तक पहुँचने हम कहीं भटके नहीं हैं, ठीक मंजिल पर पहुंचे हैं… और शायद कुछ अन्य प्रश्न भी हल हो गए पूरी प्रक्रिया में! प्रभु हम सबके भीतर ही तो विद्यमान हैं, अपने बन्दों के रूप में ही वे नज़र आते हैं! ज़िन्दगी तमाम विरोधाभासों के बावजूद मुस्कुरा रही है तो यह तो प्रभु का ही प्रताप है! 

राखी का एक धागा सर्वप्रथम प्रभु के श्रीचरणों में करते हैं अर्पित… और एक धागा मन ही मन वहाँ भी बांध आते हैं उस पेड़ पर जिसके नीचे अक्सर बैठा करते थे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर में! 

अब स्नेहाधीनको प्रणाम निवेदित करते हुए भाईयों के मस्तक पर तिलक करने को हमने थाल सजा ली है!


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