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या देवी सर्वभूतेषु... !! १ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातम्! मंगलकामना !
महालया (पितृ विसर्जन) के उपरान्त मां नवदुर्गा की आराधना के लिए नवरात्रि की सबों को हार्दिक शुभकामनाएँ !
कल आश्विन शुक्लपक्ष प्रतिपदा से कलश स्थापन पूर्वक मां दुर्गा की विधिवत आराधना आरम्भ हो जाएगी। मां की स्तुति के लिए"दुर्गासप्तशती"का पाठ भी आरम्भ हो जाएगा।
शप्तशती का अर्थ ही है सात सौ श्लोक युक्त मां की स्तुतिगायन करती पुस्तक। यह देवी के तीन चरित्र का गायन करता हुआ तेरह अध्यायों में विभक्त है। 

प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तर चरित्र।
प्रथम चरित्र राजा सुरथ, समाधी नाम वैश्य और मेधा ऋषि के माध्यम से सांसारिक माया और उससे निवृत्ति संकेत से आरभ्भ होती है।

राजा सुरथ शत्रुओं से पराजित हो घोर वन में विचरते हुए समाधि नाम वैश्य को चिन्तित मनःस्थिति मे पाते हैं, जिसे धनलोभ के कारण स्त्री और पुत्र ने अपमानित कर घर से निकाल दिया है। 
राजा और वैश्य आपस में अपनी अपनी व्यथा-कथा कहते सुनते चलते हुए एक आश्रम में पहुंचते हैं, जहां मेधा ऋषि विराज रहे हैं।
राजा ही मेधा ऋषि से समाधि वैश्य को ईंगित कर ऋषि से प्रश्न करता है, इस प्रश्न में राजा का मानसिक उलझन भी समाहित है--
राजा कहते हैं-- हे ऋषि! यह समाधि नाम वैश्य अपनी स्त्री पुत्रों के द्वारा अपमानित कर घर से निकाल दिया गया है, फिर भी उनकी ही सुख सुविधा के लिए चिन्तित है, ऐसा क्यों? इसे तो उनके अनिष्ट की कामना करनी चाहिए थी।
यहां स्वाभाविक स्थिति की ओर संकेत करते हुए ऋषि कहते हैं --"लोभात्प्रत्युपकाराय"लोभ के वशीभूत प्राणी ऐसा सोचते हैं कि कल के दिन बुढापे में मेरा पुत्र सहायक होगा।
आश्रम के एक भूभाग में माता चिड़ियां द्वारा घोसले में बैठे अपने बच्चे के चञ्चु में चावल कण डालते हुए दिखने पर ऋषि ने कहा -- देख नहीं रहे चिड़ियां स्वयं भूखी रहकर भी प्रत्युपकार के लोभ मे अन्न के कण को अपने बच्चे के मुख मे डाल रही है।
राजा और वैश्य दोनों ऋषि से पूछते हैं, आखिर ऐसा क्यों होता है?मनुष्य तो मनुष्य हिंस्र पशुपक्षी भी बच्चों के हित साधन में अपनी चिन्ता छोड़ लगे रहते हैं।
यह महामाया का प्रभाव है। ज्ञान तो कम या ज्यादा सभी प्राणियों में होता है :--

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोः विषयगोचरे
विषयश्च महाभाग यातिचैवं पृथक् पृथक्
दिवान्धः प्राणिणः केचित् रात्रान्धः तथापरे
केचिद्विवास्तथारत्रौ प्राणिणः तुल्यदृष्टयः ।।
भावार्थ यह है कि मात्रा कि कमी बेसी भले हो पर मनुष्य, पशु, पक्षी यहां तक कि सभी जीवों को ज्ञान होता है, पर महामाया बलपूर्वक मोह से जोड़ देती हैं।

ये महामाया कौन हैं? क्या हैं? कब अवतार लेती हैं? आदि के उत्तर में मेधाऋषि देवी की (महामाया की) कथा आरभ्भ करते हैं--"प्रलयके बाद क्षीरसागर में महामाया के प्रभाव से योगनिद्रा में शेषशय्या पर शयन कर रहे थे, उनके नाभिकमल पर ब्रह्माजी ध्यानस्थ बैठे हैं।ई धर भगवान विष्णु के कान के मैल से दो दुर्दान्त राक्षस उत्पन्न हो ऊपर की ओर देखते हुए ब्रह्माजी को मारना चहते हैं- 

विष्णुकर्णमलोद्भूतः असुरौ मधुकैटभौ।
दुरात्मानौतीर्यौ ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।।

ब्रह्मा ने योगमाया की स्तुति की, उन्हे प्रसन्न किया और भगवान विष्णु को योगनिद्रा से मुक्त करने का निवेदन किया ताकि वे प्रबोधित हो दुर्दान्त मधु-कैटभ से उनकी रक्षा कर सकें:-

"नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता:प्रणताम।।

विष्णु योगनिद्रा के अलग होते ही प्रबोधि हो मधुकैटभ से युद्ध करते हैं:--

"पञ्चवरष्रसहस्राणि बाहु:प्रहरणो विभु"

पांच हजार वर्ष तक बहु युद्ध मधु-कैटभ और भगवान विष्णु से होता रहा, राक्षस परास्त नहीं हुए, अन्त में विष्णु भी महामाया की शरण में गए और प्रार्थना किया कि हे महामाया! कुछ ऐसा करें कि ये मारे जा सकें, मैं शरणागत हूं। 

महामाया के प्रभाव से मोहित हो दोनों राक्षसों ने भगवान विष्णु से कहा :-- हम दोनों तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हैं। अकेला लड़कर भी जीवित हो! वरदान मांगों।

महामाया के वशीभूत हो गये थे दोनो अतः ऐसा प्रस्ताव भगवान विष्णु के सामने रखा और भगवान ने कहा तुम दोनो खुश होकर वरदान देना ही चाहते हो तो हमें वरदान दो कि, अभी अभी दोनों मेरे हाथ मारे जावो!

राक्षस वचनबद्ध थे मुकर तो नहीं सकते थे, बुद्धि दौड़ायी और कहा पृथिवी जहां जलमग्न न हो वहां हमे वध करो।

विष्णु ने जल से ऊपर अपनी जांघपर गर्दन रखने को कहा और एक एक कर सुदर्शन चक्र से दोनों का वध कर दिया।

यहां दो बातें ध्यातव्य हैं वुद्धि बल से बड़ी होती है:--
"बुद्धिं यस्य बलं तस्य निर्बुद्धस्तु कुतो बलम्।"
बुद्धि के बलपर ही विष्णु अपने लक्ष्यसिद्धि में सफल हुए।

दूसरी बात की हम सफेदपोशों से ज्यादा वचन के पक्के वे राक्षस हुआ करते थे, यदि वे दोनों चाहते तो वचन से मुकर जाते और लड़ते,प र वे दिए गए वचन के प्रति दृढ हैं, जबकि जीवन मरण का प्रश्न था, और एक  हम हैं सार्वजनिक रूप से शपथ लेकर भी चौबीस घंटे में बहत्तर बार वाग्भंग करते हैं !!

क्रमशः...

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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