लिखने के मौसम होते हैं... मन का भी मौसम होता है... वसंत, ग्रीष्म, पतझड़ एवं शीत के मौसम आते हैं, बीत जाते हैं. पर शायद मन के मौसम का कुछ अलग ही गणित होता है, अनगिनत होते हैं मन के मौसम या फिर मात्र दो ही जिनके बीच झूलते हुए हम अनगिनत भावों से गुजरते हैं… अनगिनत रंग जीते हैं!
मन का मौसम लेखन को भी प्रभावित तो करता ही है, आखिर कहते भले हों कि लिखती कलम है, पर मूलतः लिखा तो मन से ही जाता है…
जो मन को छू जाए वही होता है हमारे लेखन का आधार भी, विषय भी और मंजिल भी…
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मेरी यात्रा जब अनुशील पर शुरू हुई थी तब नहीं जानते थे कि कब तक चलेगी यह… लौट भी आएगी रूठी कवितायेँ मेरे यहाँ या नहीं होगा उनका आना कभी भी?
अपनी
पुरानी कवितादोहराते हुए हमने यहाँ लिखना शुरू किया था, फिर धीरे धीरे ये यात्रा आगे बढ़ती रही, कभी लगातार लिखा, कभी बिलकुल छोड़ भी दिया… पर कविता और यात्रा हमेशा आवाज़ देते रहे और हम लौटते भी रहे, एक मौन के बाद… एक अन्तराल के बाद!
कोई यूँ बिना बताये बस चल दे तो कौन नाराज़ नहीं होगा! पर कवितायेँ कभी नहीं हुईं नाराज़, यात्रा ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा… कवितायेँ जुड़ी ही रहीं हमसे, हमारे आंसू भी पोंछे, हमें राह भी दिखाई और कविता ने हमें हमारी सारी धृष्टताओं के लिए सहर्ष क्षमादान भी दिया…
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रोज़ नहीं होता
सूर्योदय
इतना सुन्दर,
या शायद रोज़
हमें ही नहीं होती
इतनी फुर्सत
कि निहारें उसे!
वरना,
सूरज तो हर रोज़
उतनी ही सुन्दरता से
उगता है!
रोज़ नहीं चहकती
इतने सुर में
चिड़ियाँ,
या शायद
हमें ही नहीं हो पाती
सुरों की पहचान
अप्राकृत आवाज़ों के शोर में!
वरना,
प्रकृति में
सुर-संगीत का दौर तो
अहर्निश चलता रहता है!
रोज़ नहीं कुरेदती
इस कदर
उदासी,
या शायद
उस एहसास को भुला पाने में
अक्सर हो जाते हैं
कामयाब हम!
वरना,
दर्द का दरिया तो
हर पल
भीतर बहता है!
एक है छवि
अपनी सी
दिव्य व स्नेहमयी,
होता सामर्थ्य-
तो तोड़ लाते उसकी ख़ातिर
चाँद और तारे!
सुना है,
"प्रार्थना में बड़ी ताकत होती है"
बस, उसकी खुशियों के लिए
हृदय पल-पल
प्रार्थनारत रहता है!
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कविता का क्षेत्र जितना विशाल होता है, उतना ही विशाल है उनका हृदय; कविता जितनी स्नेहमयी होती है, उतने ही स्नेहपूर्ण हैं वो; कविता जितनी अपनी है, उतनी ही अपनी है उनकी दिव्य छवि!