कभी कभी क्या होता है...
सकल विपत्तियाँ एक साथ आती हैं...
समय कि ऐसी धाक है कि
उसके एक इशारे पर
मेरा कितने ही जतन से बनाया
रेत का महल
ढह जाता है...
समुद्री लहरें
सब बहा ले जाती हैं...
एक कतरा भी
आस विश्वास का
कहीं रह नहीं जाता...
---मैं
रुंधे हुए गले से
पूछती हूँ समंदर से...
समंदर तो प्रगल्भ है...
विशुद्ध मौन है...
वो कुछ नहीं कहता...
अपनी लहरों से कहलवाता है::
रेत का ही महल था न...
फिर से बना लो...
तुम्हारे महल में दरवाज़े तो थे
झरोखे नहीं थे
इस बार
झरोखे भी बनाना
कि
देख सको तुम आसमान
उन निराश अशक्त क्षणों में भी...
कि जब तुम जा नहीं सकती खुले गगन के तले
कुछ दर्द
पाँव की ज़ंजीर बन
उन्हें बढ़ने नहीं देते
उन लम्हों के लिए
ज़रूरी हैं वो झरोखे
तो
इस बार भूल न जाना
झरोखे भी बनाना !
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