$ 0 0 रेलधीरे धीरेबढती है गंतव्य की ओर... कितने ही दृश्ययादों में संजोने...यादें,जिनका होना है,न कोई ओर न छोर...बस भागते हुए ही बीतनी है रातेंभागते हुए ही होती है भोर...कभी तो ठहर, ज़िन्दगी!किसी ठौर...***हर पड़ाव से बढ़ते हुएवहीँ कहीं थोड़ा साछूट जाते हैं हम...और यूँ छूटते छूटते एक दिनख़त्म हो जानी है यात्रा हमेशा के लिए...***इस एकांत में विराट पर्वत कीअचलता महसूस कीअथाह पानी केबहते निर्मल स्वरूप कोआत्मसात कियापत्तों के हरेपन मेंदर्द की हूक सुनीबारिश की बूंदों मेंनेह के उज्ज्वल इंद्रधनुषी रंग देखेइन सब देखने मेंअपनी लघुता भी देखी...प्रकृति के यूं होने की सार्थकता महसूस करते हुएअपने होने की निरर्थकता को भी जानाकि यात्राएं हमें हमारे सच तक ही तो ले जाती हैंहर यात्रा वस्तुत: खुद से खुद की यात्रा ही तो है... !!***किस सदी के ईंट पत्थर...ये भी एक अद्भुत मंज़र...इतिहास इन किलों में मुस्कुराता है...अंधेरा यहां, प्रकाश का ही, प्रतिरूप हो जाता है... !!***सूरज है तो डूबेगा भी...लेकिन फिर उग आएगासवेरा लेकर...जाता है रात को वहसारी जिम्मेदारियांचाँद को देकर...कि धरा परजितनी बेचैन आत्माएं हैंसबको चांदनी मिली रहे...जब भोर में उगे वहतो आस विश्वास की क्यारीसबके आँगन खिली रहे... !!*** *** ***[[ जीवन, यात्रा और हम ]]