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Channel: अनुशील
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कि यादों के मौसम रोज़ नहीं आते... !!

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वो छुट्टियों का मौसम था कोई... कोई ९३ या ९४ की बात है... हम चारों भाई बहन और पापा मिल कर कुछ समय साथ बीता रहे थे... खेल कूद का ही माहौल था और फिर उसी दौरान कुछ कवितायेँ जोड़ी थीं हमने... आज इन यादों को पापा ने भेजा तो लगा सहेज लेना चाहिए कि यादों के मौसम रोज़ नहीं आते... !!


उस दिन की कुछ कवितायेँ
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१.

मेरी अभिलाषा
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मेरी यह अभिलाषा
हो सबकी प्रेमपगी भाषा


सब होवें सतर्क
हो सब के साथ-सबका सहज सम्पर्क


तेजस्विता हो जैसे हों अर्क
न समझे आदमी आदमी मे फर्क


सब की पूरी हो आशा ।
मेरी यह अभिलाषा ।


हम समझें अपने राम-रहीम
करें निर्णय जैसे करते हकीम


समझें...


करना है मर्ज का इलाज
जिससे बन जाय स्वस्थ समाज


रह न पाए किसी कोने में निराशा ।
मेरी यह अभिलाषा ।




२.

आए अनचाहे मेहमान
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आए अनचाहे मेहमान ।
चाहते सदा पूरा सम्मान ।
हमें करना पड़ता अपनी इच्छाओं का बलिदान!
आए अनचाहे मेहमान ।


इन्हे नहीं होती, दूसरे की चिंता ।
चाहे चढ़ जायें ,अरमान चिता ।
उनको अपना कुछ काम नहीं।
जम जाते जहां जाते वहीं ।


इन्हें नही होती समय की पहचान ।
आए अनचाहे मेहमान ।
हे प्रभु! दो इन्हें भी ज्ञान ।
हो जाए मेरी समस्या का समाधान ।


अब न ये मेरा समय जाया करें ।
अनावश्यक न आया करें ।
समझें वे अपनी भी आन
आए अनचाहे मेहमान ।



३.

आज के लिडर
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क्या यही आज के लिडर हैं ?
चोरी में ये निडर हैं ।
पर सीमा पर तो वे गिदड़ हैं ।


देखो खाते ये जनता की हैं,
पर गाते ये गुण्डों को हैं ।


इन्हें शरम का लेश नहीं,
बदल लेते हैं वेश कहीं ।


इनकी बातों का एतबार नहीं,
अब चाहे रोएं सौ बार कहीं ।


जनता अब न ठगायेगी ।
इनको सबक सिखायेगी ।



४.

पञ्चवर्षीय योजना
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बन गई हमारी पञ्चवर्षीय योजना ।
अब इसमें  (योजना के क्रियान्वयन में ) नहीं कुछ खोजना ।
यहां बनती सड़कें कागज पर,
नहरें भी बहती हैं कागज पर ।
यहां जनता की समृद्धि के प्रतीक,
होते केवल सत्ताधीश ।


जनता की करूण पुकार,
अनन्त काल से बेशुमार ।
कोई सुन न पाता है ।
हो कोई तो ठोकर खाता है ।


अगर हुआ हममे कोई  समझदार,
जनता की ओर से की पुकार,
तो होता किसी साजिश का शिकार ।


पर होना नहीं निराश ।
करनी है खुद मे से ही आगे की तलाश ।


तभी जाकर होगी सार्थक योजना
जिसकी न कभी होगी आलोचना



होगा सर्वत्र सुख -शान्ति का साम्राज्य ।



सभी समझ जायेंगे -----
देशप्रेम के लिए "क्षुद्र स्वार्थ"है


सर्वथा त्याज्य, ! सर्वथा त्याज्य,! सर्वथा त्याज्य!!


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